भारत की मुठभेड़ चीन से हुई लेकिन असली दंगल भाजपा और कांग्रेस के बीच हो रहा है
ललित गर्ग
कोरोना महाव्याधि एवं चीन से जूझ रहे भारत के निर्माण का महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है, मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है, यह गहन चिन्ता और चिन्तन का विषय है।
गलवान घाटी घटना पर देश में इन दिनों जमकर राजनीति हो रही है, विभिन्न शीर्षस्थ राजनीतिक दल फौज का मनोबल गिराने वाले बयान दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है गलवान घाटी में भारत की मुठभेड़ चीन से हुई लेकिन असली दंगल भाजपा और कांग्रेस के बीच हो रहा है। दोनों पार्टियों के नेता एक-दूसरे पर इतने हमले कर रहे हैं जितने भारतीय और चीनी नेताओं ने एक-दूसरे पर नहीं किए होंगे। इन्हीं आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे को लेकर भी गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई है। कांग्रेसी नेताओं ने प्रधानमंत्री का नया नामकरण करते हुए चीन के आगे घुटने टेकने का आरोप यह कहकर भी जड़ दिया कि ‘पीएम केयर्स फंड’ में भाजपा ने चीनी कंपनी हुवेई से 7 करोड़ रु. का दान ले लिया है। इस पर भाजपा और सरकार का भड़कना स्वाभाविक था। उसने अब सोनिया-गांधी परिवार के तीन ट्रस्टों पर जांच बिठाते हुए यह आरोप लगाया है कि उन्होंने चीनी सरकार और चीनी दूतावास से करोड़ों रु. स्वीकार किए हैं। इस पर कांग्रेसी नेता भाजपा सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वह चीन से तो पिट ही गई है लेकिन कांग्रेस पर फिजूल गुर्रा रही है। इस जंग में कांग्रेस यह जानना चाहती है कि पीएम केयर्स फंड में कितना रुपया कहां से आया है, क्यों आया है और उसका क्या इस्तेमाल हुआ है? इसके अलावा उसने यह मांग भी की है कि भाजपा से जुड़े कई ट्रस्टों और संगठनों की जांच करने से मोदी सरकार क्यों बिदक रही है? ऐसा लग रहा है कि अपने दागों को छिपाने के लिये सभी राजनीतिक दल महाभारत तो कर रहे हैं, नया भारत कोई नहीं बना रहा है।
कोरोना महाव्याधि एवं चीन सहित पड़ोसी देश से जूझ रहे भारत के निर्माण का महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है, मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है, यह गहन चिन्ता और चिन्तन का विषय है। विशेषतः देश की सुरक्षा एव संरक्षा की बजाय आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं की वकालत करने का राजनीतिक दलों का नंगा नाच अशोभनीय परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है। राजनीतिक दलों की मंशा एवं मनोवृत्ति प्रश्नों से घिरी है, जबकि उनकी निष्पक्षता और पवित्रता को कायम रखकर ही हम लोकतंत्र में नई प्राणऊर्जा का संचार कर सकेंगे।
कोरोना सहित अनेक संकटों से संघर्षरत सत्तर साल के प्रौढ़ लोकतंत्र के लिये हमारी राजनीति और उनकी आर्थिक अनियमितताएं एक त्रासदी बनती जा रही है, यह शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। राजनेता सत्ता के लिये सब कुछ करने लगा और इसी होड़ में राजनीति के आदर्श ही भूल गया, यही कारण है देश के राजनीतिक दलों विशेषतः कांग्रेस की फिजाओं में आर्थिक विषमताओं और विसंगतियों का जहर घुला हुआ है और कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। एक बड़े सवाल का जवाब चाहिए कि इन राजनीतिक दलों में पैसा कहां-कहां से आया है बल्कि प्रश्न यह भी है कि उस पैसे को क्या विदेशी बैंकों में भी छिपाया गया है और क्या जनकल्याण के नाम पर लिये दान का सदुपयोग भी किया गया है? वास्तव में राजनीतिक पार्टियों और नेताओं से जुड़े इन सभी ट्रस्टों पर कड़ी निगरानी एवं पारदर्शिता जरूरी है। सच्चाई यह है कि बिना भ्रष्टाचार किए राजनीतिक दलों का चलना संभव ही नहीं है, क्योंकि उनकी इतनी फिजूल खर्चियां हैं कि स्वच्छ दान से उनका काम नहीं चल सकता। राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। यह कानूनन अनिवार्य किया जाना चाहिए कि इन ट्रस्टों की आमदनी और खर्च का संपूर्ण विवरण हर साल सार्वजनिक किया जाए और किसी भी ट्रस्ट में एक परिवार का एक ही आदमी रखा जाए। राजनीतिक दलों का काम राजनीतिक भ्रष्टाचारियों, अपराध को मंडित करने वालों, कालेधन एवं सत्ता का दुरुपयोग करने वालों के बिना चल ही नहीं सकता, इस विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद सच्चाई को झुठलाना अब जरूरी हो गया है। अन्यथा विकास दुबे जैसे राजनीतिक अपराधी नयी शक्ल में आते रहेंगे।
सोनिया गांधी के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए स्मृति ईरानी ने सही कहा कि ‘दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब देश को कोविड-19 महामारी के खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है, तब कुछ राजनीतिक दल देश के सामने मौजूद चुनौतियों से फायदा उठाने की कोशिश में हैं।’ कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने एक के बाद एक दो ट्वीट कर देश के लोगों को राष्ट्र के साथ खड़े होने की अपील की, साथ ही सरकार पर देश की सरजमीं को गवांने का आरोप भी लगाया। प्रश्न है कि क्या देश के साथ खड़े होने का अर्थ सीमा सुरक्षा, कोरोना मुक्ति, आर्थिक अपराधों पर नियंत्रण नहीं है? लोकतंत्र को मजाक समझने वाले इन नेताओं को तो यह तक पता नहीं कि पिछले सात दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी से जूझ रहे देश के युवकों को क्या चाहिए? कोरोना से मुक्ति क्यों जरूरी है? चीन को करारा जवाब देना क्यों जरूरी हो गया था? ये लोग उस जुल्मी शिक्षा व्यवस्था के बारे में बात करना तक उचित नहीं समझते जिसने गरीब घरों के मेधावी नौजवानों को धन न होने की वजह से उच्च शिक्षा प्राप्त करने से रोक दिया है। ये नेता चिकित्सा व्यवस्था की चरमराती स्थितियों पर मौन धरे हैं।
देश दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती हैं, भयभीत करती हैं। समाज में बहुत कुछ बदला है, मूल्य, विचार, जीवन-शैली, वास्तुशिल्प सब में परिवर्तन है। ये बदलाव ऐसे हैं, जिनके भीतर से नई तरह की जिन्दगी की चकाचौंध तो है, पर धड़कन सुनाई नहीं दे रही है, मुश्किलें, अड़चनें, तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति अपनी जड़ों से दूर होता जा रहा है। चुनाव प्रक्रिया बहुत खर्चीली होती जा रही है। ईमानदार होना आज अवगुण है। अपराध के खिलाफ कदम उठाना पाप हो गया है। धर्म और अध्यात्म में रुचि लेना साम्प्रदायिक माना जाने लगा है। किसी अनियमितता का पर्दाफाश करना पूर्वाग्रह माना जाता है। सत्य बोलना अहम् पालने की श्रेणी में आता है। साफगोही अव्यावहारिक है। भ्रष्टाचार को प्रश्रय नहीं देना समय को नहीं पहचानना है। देश के शीर्ष राजनीतिक दल आपस में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की बहसों के परिप्रेक्ष्य में इन और ऐसे बुनियादी सवालों पर चर्चा को जरूरी क्यों नहीं मानते? आखिर कब तक राजनीतिक स्वार्थों के नाम पर नयी गढ़ी जा रही ये परिभाषाएं समाज और राष्ट्र को वीभत्स दिशाओं में धकेलती रहेंगी? विकास की बजाय थोथे आश्वासनों एवं घोषणाओं की तेज आंधी के नाम पर हमारा देश, हमारा समाज कब तक भुलावे में रहेगा? विचारणीय यह भी है कि राजनीतिक दलों को दान देने वाले की पात्रता देखी जाए या नहीं? कोई अपराधी, कोई स्वार्थी, कोई विरोधी या कोई अनैतिक व्यक्ति आपके राजनीतिक दलों के ट्रस्ट में दान दे रहा हो तो उससे दान क्यों लिया जाये?
क्या कभी सत्तापक्ष या विपक्ष से जुड़े लोगों ने या नये उभरने वाले राजनीति के दावेदारों ने और आदर्श की बातें करने वाले लोगों ने, अपनी करनी से ऐसा कोई अहसास दिया है कि उन्हें सीमित निहित स्वार्थों से ऊपर उठा हुआ राजनेता समझा जाए? यहां नेताओं के नाम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं न ही राजनीतिक दल महत्वपूर्ण है, महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि इस तरह का कूपमण्डूकी राजनीतिक एवं विपक्षी नेतृत्व कुल मिलाकर देश की राजनीति को छिछला ही बना रहा है। सकारात्मक राजनीति के लिए जिस तरह की नैतिक निष्ठा की आवश्यकता होती है और इसके लिए राजनेताओं में जिस तरह की परिपक्वता की अपेक्षा होती है, उसका अभाव एक पीड़ादायक स्थिति का ही निर्माण कर रहा है। और हम हैं कि ऐसे नेताओं के निर्माण में लगे हैं!