भारत के विषय में यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इस देश की आज तक कोई राष्ट्रभाषा नहीं है । कई लोगों को यह भ्रान्ति है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है , परंतु वास्तव में हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा न होकर राजभाषा है और आज तक यह राजभाषा के दर्जे से आगे बढ़कर राष्ट्रभाषा के सम्मानित स्थान को प्राप्त करने में असफल रही है । इसके असफल होने के पीछे एक गहरा षड्यंत्र काम करता रहा है । जहां राजनीतिक लोगों की संकीर्ण राजनीतिक सोच इसके लिए जिम्मेदार है, वहीं कुछ अन्य सामाजिक संगठन व भाषाई पूर्वाग्रह रखने वाले लोगों को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है ।
भारत के विषय में यह भ्रांति पैदा की गई है कि यहां पर हर क्षेत्र में विभिन्नताएं पाई जाती हैं । कोशिश यह की गई है कि इन सारी विभिन्नताओं को ज्यों का त्यों बनाए रखकर एकता स्थापित की जाए । जबकि ऐसा नहीं हो सकता कि सारी विभिन्नताओं को आप दूध पिलाते रहें और फिर एकता की बात करें । एकता के लिए यह आवश्यक है कि विभिन्नताओं के उभरते स्वरूपों को धीरे-धीरे समाप्त किया जाए और ‘एक’ पर लाकर सबको सहमत कर लिया जाए ।
देश में विभिन्नताओं को बनाए रखने की इसी सोच ने भारत की अनेकों भाषाओं को दूध पिला – पिला कर उन्हें भारत की राजभाषा की विरोधी बनाने का घृणित कार्य किया है । सभी भाषाएं अपने स्थान पर सम्मान पूर्ण ढंग से बनी रहें , यह प्रयास करना एक अलग बात है , लेकिन सभी भाषाओं को इतना उदार और सहिष्णु बना देना कि वह राजभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मानित कर सकें , सबसे बड़ी और प्रशंसनीय बात है । जिसके लिए प्रयास किया जाना अपेक्षित था। हिंदी को राजभाषा का दर्जा 14 सितंबर 1949 को मिला था , लेकिन राष्ट्रभाषा को लेकर लंबी बहसें चली और परिणाम कुछ नहीं निकला।
देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है । यही कारण है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था। महात्मा गांधी ने वर्ष 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। महात्मा गांधी के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी थे ,जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की थी। यद्यपि नेहरू के शासनकाल में हिंदी को एक ‘खिचड़ी भाषा’ के रूप में विकसित करने का अतार्किक और अवैज्ञानिक प्रयास किया गया । शासकीय स्तर पर ऐसे प्रयास किए गए कि हिंदी में देश की सभी भाषाओं के शब्दों को सम्मिलित कर एक ऐसी ‘खिचड़ी भाषा’ बना ली जाए जिस पर किसी को आपत्ति ना हो । यह प्रयास देखने में तो अच्छा लगता है , परंतु वास्तव में यह हिंदी का सर्वनाश करने वाला सिद्ध हुआ।
जब देश का संविधान बनाया जा रहा था तो उस समय देश के संविधान निर्माताओं के सामने यह प्रश्न बड़ी गंभीरता से सामने आया कि देश की राष्ट्रभाषा किसे बनाया जाए ? यह प्रश्न भी हमारे संविधान निर्माताओं के समक्ष उपस्थित हुआ कि देश के संविधान को किस भाषा में लिखा जाए ? यह बहुत ही दुखद स्थिति थी कि देश में हिंदी जैसी समृद्ध भाषा के होते हुए भी संविधान निर्माताओं के सामने यह प्रश्न उभरा कि देश का संविधान कौन सी भाषा में लिखा जाए ?
कभी हिंदी की वकालत करने वाले महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने हिंदुस्तानी (हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण) भाषा का समर्थन किया, इनके साथ कई और सदस्य भी सम्मिलित हुए । उस समय विभाजन की पीड़ा को लेकर बहुत से सदस्य ऐसे थे जो गांधी और नेहरू के उपरोक्त ‘खिचड़ी भाषा’ के प्रस्ताव से असहमति रखते थे । उस समय गांधी नेहरू के इस प्रस्ताव को गिरा दिया गया । परंतु बाद में जब नेहरू जी देश के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अपनी बात को ही सर्वोपरि रखने के लिए ‘खिचड़ी भाषा’ हिंदुस्तानी के प्रयोग को ही जारी रखना उचित समझा। जब देश के संविधान का निर्माण हो रहा था और सम्मानित सदस्य संविधान सभा में बैठकर हिंदुस्तानी और हिंदी में अपनी बातों को कहने का प्रयास करते थे तो उस समय कुछ ऐसे सदस्य भी थे जो हिंदुस्तानी और हिंदी दोनों का विरोध करते थे । वह किसी भी ऐसे वक्तव्य का अनुवाद इंग्लिश में करने की मांग करते थे जिसे हिंदुस्तानी और हिंदी में रखा गया होता था। इससे हिंदी विरोध की गूंज संविधान सभा में रह रहकर उठने लगी ।मुट्ठी भर सदस्य हिन्दी विरोध के नाम पर लामबंद होने लगे।
ये लोग नहीं चाहते थे कि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में सम्मान प्राप्त करे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में एक स्थान पर उल्लेखित किया गया है कि मद्रास का प्रतिनिधित्व कर रहे टीटी कृष्णामचारी ने कहा कि – मैं दक्षिण भारतीय लोगों की ओर से चेतावनी देना चाहूंगा कि दक्षिण भारत में पहले ही कुछ ऐसे घटक हैं जो बंटवारे के पक्ष में हैं।
यूपी के मेरे मित्र हिंदी साम्राज्यवाद की बात करके हमारी समस्या और ना बढ़ाएं। उन्होंने कहा कि यूपी के मेरे मित्र पहले यह सुनिश्चित कर लें कि उन्हेें अखंड भारत चाहिए या हिंदी भारत। लंबी बहस के बाद सभा इस फैसले पर पहुंची कि भारत की राजभाषा हिंदी (देवनागिरी लिपि) होगी लेकिन संविधान लागू होने के 15 वर्ष पश्चात अर्थात 1965 तक सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में किए जाएंगे।
हिंदी समर्थक नेता बालकृष्णन शर्मा और पुरुषोत्तम दास टंडन ने अंग्रेजी का विरोध किया। 1965 में राष्ट्रभाषा पर फैसला लेना था, तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का निर्णय ले लिया था लेकिन इसके बाद तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन हुए।
प्रदर्शन के दौरान दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में हिंदी की पुस्तकें जलने लगीं, कई लोगों ने तमिल भाषा के लिए अपनी जान तक दे दी, जिसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने अपने निर्णय पर नर्मी दिखाई और घोषणा की कि राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है।
कांग्रेस के फैसले में कहा गया कि केंद्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग किया जाएगा और इस प्रकार हिंदी कड़े विरोध के बाद देश की केवल राजभाषा बनकर ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई।
उस समय ऐसे बहुत से कांग्रेसी थे जो नेहरू जी के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना नहीं चाहते थे ।वे नीचे ही नीचे देश के इस सुयोग्य प्रधानमंत्री को नीचा दिखाने का काम करते रहते थे । ऐसे कांग्रेसियों का नेतृत्व पंडित जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित कर रही थीं। वह शास्त्री जी को ‘तीन मूर्ति भवन’ ( जो कि उस समय प्रधानमंत्री आवास कहा जाता था । उसी में रहकर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने देश पर शासन किया था ) में रहते हुए देखकर भी प्रसन्न नहीं होती थीं। तीन मूर्ति भवन को वह नेहरू जी की स्मृति के रूप में स्थापित करने की मांग करने लगी थीं । इसके लिये अनेकों अवसरों पर उन्होंने शास्त्री जी को अपमानित किया था और उन पर इस बात के लिए दबाव बनाया था कि वह तीन मूर्ति भवन को छोड़कर कहीं अन्य चले जाएं । शास्त्री जी ने इस प्रकार के उपेक्षापूर्ण और कलहयुक्त परिवेश को छोड़कर तीन मूर्ति भवन को बड़ी विनम्रता से छोड़ दिया।
देश के अति निर्धन वर्ग में से निकल कर आए हुए लाल बहादुर शास्त्री को विजय लक्ष्मी पंडित प्रधानमंत्री के रूप में देखना भी पसंद नहीं करती थीं। ऐसे में यह सहज ही कल्पना की जा सकती है कि यदि शास्त्री जी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की तैयारी करने लगे थे तो विजयलक्ष्मी पंडित और उन कांग्रेसियों को इससे कितनी चोट पहुंची होगी जो अभी तक भी पंडित जवाहरलाल नेहरु की ‘हिंदुस्तानी’ के समर्थक रहे थे। तब शास्त्री जी को असफल सिद्ध करने के लिए चुपचाप ऐसे लोगों को उकसाने का काम किया गया जो हिंदी विरोध के लिए सड़कों पर आ गए थे । कांग्रेस के उस समय के ‘परिवार भक्त’ लोग देश के लोगों को यह संदेश देना चाहते थे कि देश पर शासन करना केवल नेहरू परिवार ही जानता है। फलस्वरुप शास्त्री जी को हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना पड़ा और तब से ही हम आज तक किसी ऐसे ‘शास्त्रीजी’ की प्रतीक्षा में हैं जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय ले सके।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत