लोकमित्र
कुछ सच ऐसे होते हैं जिनके घटित होने के बाद भी उन पर यकीन नहीं होता। एक साल पहले तक देश का धुरंधर से धुरंधर राजनीतिक विश्लेषक पूरे विश्वास से यह नहीं कह सकता था कि आने वाले दिनों में ज्योतिरादित्य सिंधिया और फिर सचिन पायलट कांग्रेस को छोड़ सकते हैं। कांग्रेस ने अगर 2019 के चुनावों के पहले भाजपा को कभी जरा सा सशंकित किया या चौंकाया था तो सिर्फ मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में चुनावों के बाद ही चौंकाया था, जब इन दोनों राज्यों से भाजपा की सरकार चली गई थी।
जब राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी हो गई थी और गुजरात में भी उसने नैतिक विजय हासिल कर ली थी, उसके बाद कांग्रेस 2019 के चुनाव के लिए अगर बहुत जोरदार नहीं तो सम्मान योग्य प्रतिद्वंदी बन गई थी। लेकिन चुनावों के बाद अगर कांग्रेस की तकनीकी दुर्दशा के साथ-साथ उसकी मनोवैज्ञानिक दुर्बलता भी दयनीयता के साथ बेनकाब हुई है, तो इसका संबंध लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय से ज्यादा मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनावों को जीतने के बाद पार्टी आला कमान के नेतृत्व की बागडोर को सौंपने को लेकर गलत निर्णय था।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट से कहीं ज्यादा अनुभवी राजनेता हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में अगर कांग्रेस सत्ता में आई, तो इसके पीछे अनुभवी नेताओं की राजनीति या राजनीतिक होमवर्क नहीं था, बल्कि इसमें मुख्य योगदान इन दोनों प्रदेशों में इन्हीं युवा नेताओं का था, जिन्हें आज कांग्रेस खो चुकी है।
कांग्रेस पार्टी या आला कमान के यहां से चाहे जितनी सफाई आए कि सिंधिया और पायलट के नाराज होने में या इन युवा नेताओं के शब्दों में कहें तो नाराज होने में कांग्रेस आला कमान का कोई हाथ नहीं है। लेकिन यह भावुक राजनीतिक समझ वाला देश कभी इस बात को सच नहीं मानेगा। हो सकता है वाकई यह सच हो कि इन दोनों बगावतों में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कोई भूमिका न हो या उनके राजनीतिक समीकरणों के बनने बिगड़ने का इन दोनों घटनाओं से कोई लेना देना न हो। लेकिन अगर इसमें 10 जनपथ का कुछ लेना देना नहीं भी है, तो भी इस सबका ठीकरा उसी के सिर पर फूटेगा और फूटना भी चाहिए, क्योंकि निष्क्रियता अपने आपमें एक असफलता है।
लेकिन सिंधिया और पायलट के बाद भी क्या कांग्रेस से बाहर जाने वालों का सिलसिला थम जाएगा? सच तो यह है कि हर दिन सैकड़ों कार्यकर्ता और स्थानीय स्तर के नेता कांग्रेस से अलग होकर भाजपा या दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं या फिर नई पार्टी बनाने के बारे में सोच रहे हैं। लेकिन ये बहुत छोटे स्तर के कार्यकर्ता या स्थानीय स्तर के नेता होते हैं, इसलिए मीडिया में ऐसे खबरें नहीं आ पाती हैं। आखिर कांग्रेस को छोड़ने का यह सिलसिला लगातार क्यों बना हुआ है? इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं के पास कोई भरोसे लायक विचारधारा का नहीं होना है।
कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता चिंतित रहते हैं कि उनके पास भाजपा जैसे काडर क्यों नहीं है? इनके न होने का कारण ये तथाकथित नेता पैसा और प्रभाव की दुहाई देंगे। लेकिन यह सच नहीं है। सच्चाई यह है कि कांग्रेस के पास कोई विश्वसनीय विचार नहीं है। कोई आम कार्यकर्ता जिसे राजनीतिक पार्टियां कभी तनख्वाह नहीं देतीं। जिन्हें भारत जैसे देश में राजनीतिक लाभ मिलने भी इतने आसान नहीं होते, वे आखिर किसी पार्टी से क्यों चिपके रहते हैं? एक ही वजह इसकी होती है कि पार्टियों के पास एक विचारधारा होती है, भविष्य को बेहतर बनाने का एक सपना होता है। इसी के बल पर किसी पार्टी के साथ स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ता और राजनेता जुटते हैं। कांग्रेस के पास इसी विचारधारा का अभाव है।
[वरिष्ठ पत्रकार]
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