हूण शासक भी रहे विष्णु मंदिर के निर्माता अभिलेखीय साक्ष्य
लेखक:- डॉ0 श्रीकृष्ण जुगनू
मेवाड़ में शिलालेखों का क्रम कुछ इस तरह से मिलता है कि पूर्व ब्राह्मी से लेकर देवनागरी लिपि तक का क्रम पूरा हो जाता है। उदयपुर के प्राचीन शिलालेखाें में एक शिलालेख विक्रम संवत् 1010 तद्नुसार 953 ईस्वी का है। गणना के अनुसार 23 अप्रैल, वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन इस शिलालेख को लिखा गया व वराह की प्रतिमा उत्कीर्ण कर उसको प्रतिष्ठित किया गया था।
इसको ‘सारणेश्वर प्रशस्ति’ के नाम से जाना गया है। वर्तमान में यह सारणेश्वर शिव मंदिर में प्रवेश मंडप के छबने पर लगा है। किन्तु, यह मूलत: यहां नहीं था। यह आदिवराह मंदिर में लगा था और इसको स्थानांतरित किया गया। यह तत्कालीन देवनागरी लिपि में हैं ओर इसमें पहली बार देवालय न्यास अथवा देवकुल गोष्ठिक का संदर्भ मिलता है। यह स्थान प्रसिद्ध आहाड़ सभ्यता के पास ही है।
उस काल के कई पदाधिकारियों और उन लोगों का इसमें नाम हैं जिनके कंधों पर आदिवराह मंदिर के निर्माण और उसके संरक्षण सहित गतिविधियों के संचालन का दायित्व था। यह गुहिलवंशी महालक्ष्मी नामक रानी के पुत्र अल्लट के पुत्र नरवाहन का अभिलेख है। इसमें कहा गया है कि सोढक, सिद्ध, सीलुका, संधि विग्राहक दुर्लभराज, मातृदेव, सदुदेव, अभिनियुक्त अल्लट व अक्षपटलिक मयूर, समुद्र राजपुरोहित वसंत, नागरुद्र, भूषण, मावप, नारक, रिपि, प्रमाता, गुहिष, गर्ग, त्रिविक्रम और बंदिपति नाग आदि इस प्रासाद से जुड़े रहे हैं।
इसी प्रकार भिषगाधिराज या मुख्य वैद्यराज रुद्रादित्य और वज्रट, लिम्ब, आदित्यच्छन्न, अम्मुल, संगमवीर, ससोज्जा, वैश्रवण, अविक, भक्तिम्मोह, संगम, वेल्लक, नाग, जेलक, वासुदेव, दुम्बटक, यच्चक्य जैसे यहां व्यापारियों का वर्ग था। इस प्रासाद की गोष्ठिक या समिति में प्रतिहार वंश के यश के पुत्र रुद्रहास, राहट, धर्म, काष्ठिक साहार, श्रीधर, अनवृटि सहित हूण, और कृषु राजन्य, सर्वदेव जैसे व्यक्ति थे। आमात्य मम्मट के साथ सभी ने सहयोग करके इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
हूण नाम से ज्ञात होता है कि तब तक यह समुदाय भारतीय रंग में रंग चुका था। इस समुदाय ने विष्णु मंदिर के निर्माण में रुचि दिखाई। क्योंकि, कहा गया है कि सभी गोष्ठिकों ने अपने पुण्यों का परिपाक होने से बढ़ी कीर्ति को जानकर इस गंभीर संसार सिंधु को असार जानकर उससे तरण-तारण के उद़देश्य से जहाज के समान भगवान विष्णु का यह मंदिर पर्वत के शिखर पर निर्मित करवाया। शिलालेख में एक श्लोक में यह आशय आया है-
पुण्य प्रबंध परिपाकिमकीर्तयोर्मी
संसार सागरमसारमिमं गभीरं बुध्वा।
अद्रिराज शिखरोत्थम चीकरन्त
पोतायमानं इदं आयतनं मुरारे।। (मेरी पुस्तक ‘ राजस्थान के प्राचीन अभिलेख’, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 2013 ई. पृष्ठ 54-57)
मेरी उक्त पुस्तक में इसका संपादित मूलपाठ और उसका शब्दश: अनुवाद ससंदर्भ दिया गया है। इस शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि तब तक यहां कर्णाट और मध्य देश सहित लाट-गुजरात के व्यापारियों का आना जाना लगा रहता था। वे इस मंदिर के लिए दान करते थे। हाथी, घोड़ा और अन्य पशुओं की बिक्री होती थी। यहां साप्ताहिक हाट लगती थी। इस शिलालेख में रुपये का नाम रूपक आया है। अन्य मुद्राओं में द्रम, विंशक के नाम हैं और तौलादि के प्रमाण भी लिखे गए हैं।
है न रोचक। एक ही शिलालेख में इतनी सारी जानकारियां। आज इस मंदिर के पास से गुजर रहा था। सोचा कि इसका आनंद आप भी उठाएं। जय-जय।
नवज्ञात ताम्रपत्र तोरमाण का
#Copperplate_of_Torman_from_Gujarat
• श्रीकृष्ण “जुगनू”
भारत के हूण शासकों में तोरमाण का नाम बहुत प्रसिद्ध है। एरन के पाषाणीय शूकरोत्कीर्ण एक शिलालेख के अलावा उसके अभिलेखीय प्रमाणों में बड़ौदा में मौजूद एक ताम्रपत्र प्रमुख है। इस ताम्रपत्र से यह ज्ञात होता है कि हूणों को भारतीय संस्कृति ने जल्द ही प्रभावित कर लिया। उनके विषयपतियों अथवा जिलों के मुखियाओं ने व्यापारियों के लिए जिन अाज्ञाओं को प्रसारित किया, वे मंदिरों के प्रबंध के संबंध में है और आश्चर्य होता कि नवीं-दसवीं सदी तक आहाड़-उदयपुर तक की मंदिर गोष्ठिकों में जहां हूण राज भी न्यासी थे, इस प्रकार की व्यवस्था बरकरार रही। ( राजस्थान के प्राचीन अभिलेख : श्रीकृष्ण “जुगनू”)
तोरमाण का यह ताम्रपत्र पंचमहाल जिले में झालोड़ तालुका के सेंजली कस्बे में एक किसान को अपने खेत की जुताई करते समय मिला था। उससे इस ताम्रपत्र को जिस अली हुसैन ने खरीदा, उसके मन में इसकी लिपि को लेकर कुतूहल था और वह जिस किसी तरह इसको पढ़वाना चाहता था। बस, इसी तरह यह स्रोत सामने आया और इतिहास व इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण सूचना का केंद्र बना। महाराज सयाजी गायकवाड़ विश्व विद्यालय ने इस पर मोनाग्राफ का प्रकाशन किया।
यह तोरमाण के शासन के तीसरे साल का है जो गणना से वर्ष 499 ईस्वी होता है। यह 36.5 लंबा व 19.6 सेंटीमीटर चौडा और 1079 ग्राम वजन का है। उत्तर ब्राह्मी लिपि और संस्कृत भाषा में श्रावण शुक्ला 2 तिथि के इस ताम्रपत्र में तोरमाण की उपाधियां परमभट्टारक और महाराजाधिराज है, उसको पृथ्वी का शासक कहा गया है।
उसके अधीन शिवभागपुर जिले के प्रशासक महाराज भूत ने इसको जारी किया था और उसने इसमें आज्ञा दी थी कि वद्रपाली के पूर्व में जो जयस्वामी (विष्णु) का मंदिर है, उसमें पूजा के लिए नैवेद्य, यज्ञ, धूप, गंध, पुष्प, दीपक के लिए तेल का प्रबंध तो हो ही, जीर्ण होने पर पुनरूद्धार भी किया जाए।
यह मंदिर राजमाता विराढिया ने नगर को धार्मिक समृद्धि देने के उद्देश्य से बनवाया था। मंदिर में निरंतर पूजादि के व्यय के लिए ये आज्ञाएं स्थानीय निवासियों सहित उन व्यापारियों के लिए भी थी जो आते जाते रहते थे।
वहां पर गुड्, नमक, कपास का व्यापार होता था जिनके व्यापारियों को 10 विंशोपक मुद्राएं देनी होती थी। एक भांड वजन पर आधे प्रमाण से पादीनक का कर था। नमक के प्रत्येक भार पर सेतिनक को चुकाना होता था। धान्य के प्रति भल्ला पर एक सेतिनक, प्रति गाडी अनाज पर आधा कोतुम्बिका को चुकाया जाता, प्रत्येक गर्दभ भार पर विंशोपक व ढाई सेतिनक को देय रखा गया। ऐसे ही अन्य करों का प्रावधान रहा।
ये कर व मुद्राएं निश्चित ही उस काल में प्रचलित थे और बाद में मिहिरकुल के शासनकाल में भी रहे। मित्रों और अध्येताओं के लिए तोरमाण के ताम्रपत्र का स्वरूप और उसका पाठ जरूर उपयोगी होगा, यही विचार कर यहां दिया जा रहा है-
इस सहयोग के लिए मैं मित्रवर Bhupesh Niranjan Pathak का आभारी हूं।
मूल पाठ का संक्षिप्त अंश :
1. (संवत्स) रे 3 श्राव शुदि 2 परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीस्तोरमाणे पृृथिवीमनुशासति तत्प्रसादाद्विषयपति
2. (महारा) ज भूतस्य शिवभागमुरे भुज्यमानके वद्रपाल्या: पूर्व्वस्यान्दिशि एतद्राजमातु विराढियकाकारित
3. (स्व) देव जयस्वामिपादानां बलि चरु सत्र धूप गंध पुष्प दीप तैल खण्ड स्फुटित प्रति संस्कारणापयोग्यं
4. मात्मनं पुण्याभिवृद्धये चतुर्द्दिशाभ्यागतकवैदेश्य वाणिजका: वस्तव्या: पोट्टलिका पुत्राश्च लेखयन्ति
5. यत्र गुड लवण कर्प्पास भाण्डभरकेषु आचन्द्रार्क्कार्णव क्षितिस्थिति समकालीयं दश विंशोप-
6. कीनक: भाण्दभरक: अर्द्धपादीनक: लवण भरक: सेतिनक: धान्य भल्ला सेतीनिका धान्य शकट
7. मर्द्धकोटुबिकं गर्द्दभभाण्दभरको वींशोपक दिवर्द्धसेतक: भाण्डपाट्टलिका विंशोपकिनिकि धान्य भरकेषु
8. धान्यसेतिका अतोर्द्ध गर्द्दभभरकेषु दासीगुण्ठं पदूनं रूपीनकं एतानकं एतांचाक्षयणीं उपरि लिखितन्यायेन
9. दीयमानां य: वणिग्रामाभ्यन्तर: पुट्टलिका पुत्रो वा कश्चिद प्रमाणी करिष्यति स: पंचभिर्महापातकै: सं
10. युक्तो भविष्यन्ति एवं चास्य प्रमाणं वाणिजका: स्वहस्तेन लेखयन्ति दागपुर वास्तव्य गोमिक वेमत्त माथुर संन्निहितं….।
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✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनू
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