गांधी के ब्रम्हचर्य संबंधी मूर्खतापूर्ण प्रयोग और मनुबेन
मनु बेन के आइने में गांधी(1): मनु बेन महात्मा गाँधी के अंतिम वर्षों की निकट सहयोगी थीं। मनु को प्रायः गाँधीजी की पौत्री कहा जाता है। वास्तव में यह रिश्ता बहुत दूर का था। वह गाँधीजी के चाचा की प्रपौत्री थी। लगभग अशिक्षित, सोलह-सत्रह वर्ष की लड़की, जिस के पिता जयसुखलाल गाँधी एक लाचार से साधारण व्यक्ति थे।
उसी मनु को लेकर गाँधी के ‘ब्रह्मचर्य प्रयोग’ न केवल गाँधी के जीवन का अंतिम है, बल्कि सर्वाधिक विवादास्पद भी। गाँधी की जिद और उन के परिवार व निकट सहयोगियों के विरोध का यह दौर 1946-1947 ई. के दौरान कई महीने चला। इस पर गाँधी से उन के पुत्र देवदास तथा सरदार पटेल, किशोरलाल, नरहरि, आदि सहयोगियों ने गाँधी से आंशिक/ पूर्ण संबंध-विच्छेद तक कर लिया था। जिन लोगों ने तीखा विरोध किया उन में ठक्कर बापा, बिनोबा भावे, घनश्याम दास बिड़ला, आदि भी थे।
उन्हीं मनु बेन की डायरी 2013 ई. में प्रकाश में आई। इस से उन कई बिन्दुओं पर प्रकाश पड़ता है, जो पहले कुछ धुँधलके में थीं। इस से गाँधीजी की प्राकृतिक चिकित्सा, निजी जीवन या ब्रह्मचर्य प्रयोग संबंधी प्रसंगों पर कई आरोपों, शंकाओं की अनायास पुष्टि होती है। साथ ही, स्वयं गाँधीजी द्वारा दी गई कई सफाइयों और दावों का खंडन भी होता है। मनु बेन की डायरी मूल गुजराती में है और उस पर 11 अप्रैल 1943 से 21 फरवरी 1948 तक की तारीखें हैं।
डायरी के अनुसार, गाँधीजी ने मनु को बताया था कि उस के साथ वह जो ब्रह्मचर्य प्रयोग कर रहे हैं, उस से मनु का बहुत उत्थान होगा, ‘‘उस का चरित्र आसमान चूमने लगेगा’’। यह भी पता चलता है कि गाँधी ने अपने सचिव प्यारेलाल और मनु को विवाह करने की अनुमति नहीं दी। यद्यपि इस के लिए प्यारेलाल बरसों आग्रह करते रहे। प्यारेलाल की बहन सुशीला नायर, जो गाँधीजी की निजी डॉक्टर भी थीं, उस विवाह के पक्ष में थी। किन्तु गाँधी ने अपने प्रभाव का प्रयोग कर मनु को इस से रोका। किन्तु कोई कारण नहीं दिया। मनु की डायरी दिखाती है कि वह स्वयं को गाँधी के लिए पूर्ण समर्पित मानती थी।
गाँधी के देहांत के बाद मनु नितांत अकेली छूट गई। उन का जीवन मानो खत्म हो गया। अगले बाइस वर्ष गुमनामी में गुजार कर वह 1970 ई. में दुनिया से विदा हो गईं। जिस तरह मनु को उपेक्षित जीवन बिताना पड़ा, वह भी दिखाता है कि गाँधी की अंतरंग, पर मामूली सेविका के सिवा उसे कुछ नहीं समझा गया। यह समझना गलत न था। स्वयं गाँधी ने उसे यही समझा था। यह बात मनु बेन की डायरी भी कई स्थलों पर अनजाने बताती है, चाहे डायरी लेखक को इस का आभास न रहा हो।
मनु बेन की डायरी से यह प्रमाण भी मिलता है कि गाँधीजी के साथ नंगे सोने वाली रात्रि-चर्या अंततः मनु के ही आग्रह से बंद हुई। गाँधी ने अपने उस विवादास्पद कृत्य को अनेकानेक निकट सहयोगियों, परिवारजनों के आग्रह के बावजूद बंद नहीं किया। तरह-तरह की दलीलें देते रहे। अलग-अलग लोगों को अलग-अलग दलीलें। पर आखिरकार उन्हें लाचारी में इसे बंद करना पड़ा। क्योंकि स्वयं मनु के आग्रह करने के बाद गाँधी द्वारा उस आग्रह को ठुकराने से मामला दूसरा रूप ले लेता! फिर मनु ने यह आग्रह ठक्कर बापा की उपस्थित में किया था। तब, गाँधी को अलग सोना मंजूर करना पड़ा। लेकिन जिस तरह यह एकाएक बंद हो गया, जिसे गाँधी महीनों से तरह-तरह के तर्क देकर चला रहे थे, उस से यह भी दिखता है कि मनु के साथ सोने को ‘ब्रह्मचर्य प्रयोग’, ‘महायज्ञ’, ‘चरित्र का उत्थान’ आदि कहना शाब्दिक खेल ही था। चाहे स्वयं गाँधी उसे कुछ भी क्यों न समझते रहे हों।
आइए, मनु बेन की डायरी को सिलसिलेवार देखें (हिन्दी अनुवाद ‘इंडिया टुडे’, 19 जून 2013) –
श्रीरामपुर, बिहार, 28 दिसंबर 1946: ‘‘सुशीलाबेन ने आज मुझ से पूछा कि मैं बापू के साथ क्यों सो रही थी और कहा कि मुझे इस के गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। उन्होंने अपने भाई प्यारेलाल के साथ विवाह के प्रस्ताव पर मुझ से फिर से विचार करने को भी कहा और मैंने कह दिया कि मुझे उन में कोई दिलचस्पी नहीं है, और इस बारे में वे आइंदा फिर कभी बात न करें।” चार दिन बाद फिर, वहीं श्रीरामपुर में, ‘‘प्यारेलाल जी मेरे प्रेम में दीवाने हैं और मुझ पर शादी के लिए दबाव डाल रहे हैं, लेकिन मैं कतई तैयार नहीं हूँ।’’
बिरला हाउस, दिल्ली, 18 जनवरी 1947: ‘‘बापू ने कहा कि उन्होंने लंबे समय बाद मेरी डायरी को पढ़ा और बहुत ही अच्छा महसूस किया। वे बोले कि मेरी परीक्षा खत्म हुई और उन के जीवन में मेरी जैसी जहीन लड़की कभी नहीं आई और यही वजह थी कि वे खुद को सिर्फ मेरी माँ कहते थे। बापू ने कहाः ‘आभा या सुशीला, प्यारेलाल या कनु, मैं किसी की परवाह क्यों करूँ? वह लड़की (आभा) मुझे बेवकूफ बना रही है बल्कि सच यह है कि वह खुद को ठग रही है। इस महान यज्ञ में मैं तुम्हारे अभूतपूर्व योगदान का हृदय से आदर करता हूँ’।…’’ यह अंश पढ़कर हैरत होती है। आभा जिस तरह गाँधी के साथ कई तस्वीरों में नजर आती रही हैं, उस से स्पष्ट है कि वह भी गाँधी जी की निकट सेविका थी। लेकिन उस की पीठ पीछे, गाँधी उस की निंदा मनु से कर रहे हैं।
नवग्राम, बिहार, 31 जनवरी 1947: को मनु लिखती हैं, ‘‘ब्रह्मचर्य के प्रयोगों पर विवाद गंभीर रूप अख्तियार करता जा रहा है। मुझे संदेह है कि इस के पीछे अमतुस सलाम बेन, सुशीला बेन और कनुभाई (गाँधी के भतीजे) का हाथ था। मैंने जब बापू से यह बात कही तो वे मुझसे सहमत होते हुए कहने लगे कि पता नहीं, सुशीला को इतनी जलन क्यों हो रही है? असल में कल जब सुशीलाबेन मुझ से इस बारे में बात कर रही थीं तो मुझे लगा कि वे पूरा जोर लगाकर चिल्ला रही थीं। बापू ने मुझ से कहा कि अगर मैं इस प्रयोग में बेदाग निकल आई तो मेरा चरित्र आसमान चूमने लगेगा, मुझे जीवन में एक बड़ा सबक मिलेगा और मेरे सिर पर मंडराते विवादों के सारे बादल छँट जाएंगे। बापू का कहना था कि यह उन के ब्रह्मचर्य का यज्ञ है और मैं उस का पवित्र हिस्सा हूँ।…’’
यहाँ पर तनिक विचार करें। गाँधी द्वारा सुशीला की भावना के लिए ‘जलन’ शब्द का प्रयोग सच की चुगली करता दिखता है। यज्ञ जैसी पवित्र संज्ञा दिए गए कार्य में भागीदारों का नियमित ईर्ष्या-द्वेष गाँधी स्वयं नोट कर रहे हैं। तब इसे चलाते रहना क्या था? दूसरे, जब नाबालिग मनु के साथ प्रयोग गाँधी कर रहे थे, तब मनु पर ‘विवादों के बादल’, और उस के बेदाग निकल आने पर ‘अगर’ लगाने का क्या अर्थ है? यानी, मनु पर ‘दाग लगने’ की संभावना गाँधी स्वीकार कर रहे थे। किन्तु, तब, यह दाग मनु पर किस लिए और किस के कारण लगता?
शंकर शरण
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