सेकुलर भारतीय सरकारों के कारनामे
जब आपदाएं आती हैं तो सब लोग मदद के लिए आगे आते हैं | गुरूद्वारे से चंदा आ जाता है, चर्च फ़ौरन धर्म परिवर्तन के लिए दौड़ पड़ते हैं, आपदा ग्रस्त इलाकों में | ऐसे में मंदिर और मठ क्यों पीछे रह जाते हैं ? दरअसल इसके पीछे 1757 में बंगाल को जीतने वाले रोबर्ट क्लाइव का कारनामा है | लगभग इसी समय में उसने मैसूर पर भी कब्ज़ा जमा लिया था | सेर्फोजी द्वित्तीय के ज़माने में 1798 में जब थंजावुर को ईस्ट इंडिया ने अपने कब्जे में लिया तब से मंदिरों को भी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया था |
जब भारतीय रियासतों को अंग्रेजों ने अपने कब्ज़े में लेना शुरू किया तो अचानक उनका ध्यान गया की शिक्षा और संस्कृति के गढ़ तो ये मंदिर हैं | मंदिरों और मठों के पास ज़मीन भी काफी थी | देश पे कब्ज़ा ज़माने के साथ साथ आर्थिक फ़ायदे का ऐसा श्रोत वो कैसे जाने देते ? फ़ौरन ईस्ट इंडिया कंपनी के इसाई मिशनरियों ने इस मुद्दे पर ध्यान दिलाया | नतीज़न इसपर फौरन दो कानून बने | दक्षिण भारत और उत्तर भारत के लिए ये थोड़े से अलग थे |
1. Regulation XIX of Bengal Code, 1810
2. Regulation VII of Madras Code, 1817
“For the appropriation of the rents and produce of lands granted for the support of …. Hindu temples and colleges, and other purposes, for the maintenance and repair of bridges, sarais, kattras, and other public buildings; and for the custody and disposal of nazul property or escheats, in the Presidency of Fort Williams in Bengal and the Presidency of Fort Saint George, some duties were imposed on the Boards of Revenue….”
ऐसा जिस कनून में लिखा था जाहिर है वो ये समझकर लिखा गया था जिस से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं ज्यादा ना आहत हो जाएँ | धार्मिक भावनाओं को भड़काने का नतीजा अच्छा नहीं होगा उन्हें ये भी पता था, पूरेभारतीय समाज को ये एक हो जाने का मौका देने जैसा होता | इसके अलावा मिशनरियों कातरीका भी धीमा जहर देने का होता है |
· ईस्ट इंडिया कंपनी को पता था की मंदिरों के पास कितनी संपत्ति है | उन्हें बचाना क्यों जरुरी है इसका भी उन्हें अंदाजा था |
· इन निर्देशों /कानूनों में कहीं भी चर्चों का कोई जिक्र नहीं है | उनकी संपत्ति को छुआ तक नहीं गया है |
1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद जब पूरे भारत पर विदेशियों का कब्ज़ा हो गया तब उन्होंने अपनी असली रंगत दिखानी शुरू की | 1863 में ब्रिटिश सरकार अलग अलग मंदिरों के लिए अलग अलग ट्रस्टी बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दी | भारतीय तब विरोध करने लायक स्थिति में नहीं थे |
The Religious Endowments Act, 1863
· ट्रस्टी, मैनेजर और superintendent नियुक्त करने का अधिकार
· संपत्ति revenue board के अधीन होगी, जो ट्रस्टी चलाएंगे
· जिन मामलों में मंदिर या मठ की संपत्ति का सेक्युलर उदेश्यों के लिए इस्तेमाल करना हो
Beginning of the Loot, 1927
सरकार को नजर आया की मठों और मंदिरों की संपत्ति को आसानी से अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है | 1863 के बाद के सालों में वो भली भांति मंदिरों की संपत्ति पर अपने “सेक्युलर” अधिकारी बिठा चुके थे ऐसे में वो जो चाहे वो कर सकते थे | सही मौका देखकर Madras Hindu Religious Endowments Act, 1926(Act II of 1927) का निम्न किया गया | इस एक्ट के तहत सरकार सिर्फ एक Notification देकर मंदिर और उसकी संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती थी | इस एक्ट की एक और ख़ास बात ये है की पिछली बार जहाँ मस्जिद भी थोड़े बहुत सरकारी नियंत्रण में थे अब वो एक इसाई सरकार के नियंत्रण से बाहर थे |
ये कानून सिर्फ हिन्दू धार्मिक संस्थानों के लिए है | इसाई और मुस्लिम संस्थान इस से सर्वथा मुक्त हैं |
सिर्फ एक notification पूरे मंदिर की सारी चल अचल संपत्ति को ईसाईयों के कब्ज़े में डाल देता है |
“सेक्युलर” भारतीय सरकारों के कारनामे
हिन्दू धार्मिक संस्थानों पर पूरा कब्ज़ा, 1951
सन 1951 में मद्रास सरकार ने THE MADRAS HINDU RELIGIOUS AND CHARITABLE ENDOWMENTS ACT, 1951 बनाया | ये कानून बाकि सभी पिछले कानूनों के ऊपर था और हिन्दू मंदिरों पर सरकारी “सेक्युलर” नियंत्रण को पुख्ता करता था | कमिश्नर और उनके अधीन कर्मचारी कभी भी मंदिर पर पूरा कब्ज़ा जमा सकते थे | इस अनाचार का पुख्ता विरोध हुआ | 1954 में सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के कई हिस्सों को असंविधानिक करार दिया | यहाँ तक की सुप्रीम कोर्ट ने एक हिस्से के बारे में कहा की वो ‘beyond the competence of Madras legislature’ है |
1956 में दक्षिण भारतीय राज्यों के पुनःनिर्धारण के बाद हर राज्य ने मंदिरों पर नियंत्रण के अपने अलग अलग कानून बनाये |
हमने देखा की कैसे हिन्दुओं के मंदिरों को अपने कब्ज़े में लेने की साज़िश 1810 के ज़माने में अंग्रेजों ने रची | लेकिन ऐसा नहीं है की भारत के आजाद होने के बाद इस प्रक्रिया में कोई रोक लगी थी | पंद्रह सौ बरसों की गुलामी कर चुका हिन्दू राष्ट्र इतना कमज़ोर हो चुका था की वो अपने मंदिरों की रक्षा करने में भी समर्थ नहीं था | एक कारण ये भी था की इतने सालों में इतिहास को गायब कर दिया गया था | मंदिरों के पास संपत्ति ना होने के कारण वो किसी समाज सेवा में समर्थ ही नहीं थे |
ऐसे मौके पर जब दुष्टों ने आरोप लगाया की इनका किसी की मदद करने का तो कोई इतिहास ही नहीं तो लोगों को लगा की हाँ पिछले सौ सालों में तो देखा ही नहीं कुछ करते ! यहाँ धूर्तता से ये नहीं बताया गया की उनकी सारी चल अचल संपत्ति ये कहकर कब्जे में ली गई है की धार्मिक के अलावा “सेक्युलर” समाजसेवी कार्यों के लिए उपयोग में लायी जाएगी | उस पैसे का जब सरकारें अपनी तरफ से इस्तेमाल करती थी तो ये कभी नहीं बताती की ये मदद का पैसा मंदिरों की ओर से मदद के लिए आया है | इस तरह मदद होती तो मंदिरों के पैसे से है मगर झूठे लोगों को ये कहने का मौका मिल जाता है की मंदिर तो कुछ करते ही नहीं।।
उत्तर भारतीय मंदिर महमूद गजनवी के आक्रमण के समय से ही लूटे जा चुके थे | दिल्ली के क़ुतुब मीनार पर स्पष्ट लिखा है की इसे कई हिन्दू मंदिरों को तोड़कर उनकी ईटों से एक विजयस्तंभ के रूप में बनाया गया | ऐसे में हमारे पास सिर्फ दक्षिण भारतीय मंदिर थे जहाँ धन था | जमीने उठा कर एक जगह से दूसरी जगह नहीं ले जाई जा सकती थी | लेकिन मंदिरों में बरसों के दान से इकठ्ठा हुआ स्वर्ण अभी भी दक्षिण भारत के मंदिरों में था | फ़ौरन इसे लूटने की योजना बनाई गई | गजनवी लौट आया, इस बार उसके साथ तलवार भाले लिए कोई फौज़ नहीं थी | इस बार उसके पास कानून की तोप थी | उसका विरोध करनेवालों ने गाय को देखकर हथियार नहीं रखे थे | पता नहीं किस लोभ, किस भय से उन्होंने अपनी कलम रख दी थी | लोकतंत्र के स्तंभ माने जाने वाली पत्रकारिता के बहादुरों ने देश को ये बताना जरुरी नहीं समझा की क्यों ऐसे काले कानूनों को फिर से जगह दी जा रही है |
आज जब सूचना क्रांति के दौर में ये जानकारी जुटाना सुलभ है और सोशल मीडिया के संचार तंत्र हमें जानकारी आसानी से जुटा लेने की इजाजत देते हैं तो इन सभी तथाकथित लोकतंत्र के स्तंभों से पूछना हमारा धर्म है | अगर पत्रकारिता आपका धर्म था तो आपने जनता को सच क्यों नहीं बताया ? अगर कहीं आप नौकरी करते थे और विरोध करने से आपको नौकरी /आर्थिक क्षति का भय था तो नैतिकता की दुहाई किस मूंह से देते हैं ? जिन्हें आप भ्रष्ट कहते हैं, सत्ता लोलुप, घूस लेने वाला, बेईमान कहते हैं उसी की तरह पैसे के लालच में सच से मूंह आपने भी तो मोड़ रखा था न ?
शर्मा क्यों रहे हैं बताइए न ?
आइये फ़िलहाल आजादी के बाद बने कानूनों पर एक नजर डालें | धन की चर्चा होते ही सबसे पहले दक्षिण के मंदिरों की चर्चा होती है | कहा जाता है की इनके पास काफी सोना चढ़ावे में आता है | उनकी संपत्ति कैसे कानूनों से कब्जे में लेकर उस धन का सरकार इस्तेमाल कर रही है इसे देखने के लिए हम तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों के कानून पर एक नजर डालते हैं | यहाँ बने 1951 के कानून को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बता दिया था | 1954 में तीन चार साल मुक़दमा चलने के बाद ये कानून ख़ारिज हुआ और दूसरा कानून बनाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने जारी किया |
The Tamil Nadu Hindu Religious and Charitable Endowments Act 1959 & Karnataka Religious Institutions and Charitable Institutions Act 1997
तमिलनाडु की सरकार ने Tamil Nadu Hindu Religious And Charitable Endowments Act, 1959 बनाया था | उस समय वहां के. कामराज की सरकार थी | इन महान “सेकुलरों” ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा ख़ारिज किये गए हर हिस्से को दोबारा से इस नए कानून में डाल दिया | 1954 में जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने हटा दिया था उन्ही सेक्शन 63-69 को इसनए एक्ट में सेक्शन 71-76 के रूप में दोबारा घुसेड़ दिया गया था |
मैसूर राज्य और बाद में कर्नाटक ने 1951 के Madras act (और इसके सम्बंधित एक्ट्स) को 1997 तक जारी रखा | 1997 में The Karnataka Hindu Religious Institutions and Charitable Endowments Act, 1997 आया | ये एक्ट संविधान का सीधा उल्लंघन था | कर्नाटक हाईकोर्ट ने पाया की ये भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16, 25, और 26 का सीधा उल्लंघन है| ऐसा पाने पर 8 सितम्बर, 2006 को कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस एक्ट को निरस्त कर दिया | इसके बाद कर्नाटक सरकार The Karnataka Act 27 लेकर 2011 में आई जिसमे संविधान का उल्लंघन अपेक्षाकृत कम होता है |जैसे की इस एक्ट में ये प्रावधान है की राज्य और जिला स्तर पर हिन्दू पुजारियों और वेद के जानकारों की नियुक्ति हो सकती है | मंदिरों के संभाल के लिए कर्म कांडों के जानकार लोगों की नियुक्ति इस एक्ट के कारण संभव है |
इधर हाल फ़िलहाल के सालों में अजीबो गरीब तरीकों से मंदिरों को ‘notification’ के जरिये कब्ज़े में लेने की घटनाएँ बंद नहीं हुई हैं | 1971 में श्री कपलीश्वर मंदिर की संपत्ति को एक ‘ex-parte’ आदेश के जरिये डिप्टी कमिश्नर ने अपने कब्ज़े में ले लिया था | ऐसे ही एक ‘ex-parte’ आदेश से 18 जुलाई, 1964 में श्रीसुगवानेश्वर मंदिर को सालेम में कब्ज़े में लिया गया था | दक्षिण भारत के लगभग सभी बड़े मंदिरों को ऐसे ही ‘ex parte’ आदेश के जरिये किसी न किसी डिप्टी कमिश्नर ने अपने कब्ज़े में लिया हुआ है | इनके लिए 1959 के एक्ट की धारा 64(5)A का इस्तेमालकिया जाता है |
सन 1951 के एक्टकी धारा 63 और 1959 की धारा 71 की समानताएं कॉपी पेस्ट हैं | सीधा अंग्रेजी में ही डाल दिया है।एक असंवैधानिक घोषित किये जा चुके काले कानून को कैसे हमारी “सेक्युलर” सरकारें दोबारा इस्तेमाल कर रही हैं ?
(चूँकि पोस्ट बहुत लंबा हो जायेगा इसलिए इन धाराओं को गूगल में खुद सर्च करे आपको हकीकत पता चल जायेगा)
संयुक्त राज्य अमेरिका में स्टीफन नैप नाम के एक विदेशी लेखक की बहुत रिसर्च की हुई पुस्तक ” भारत के खिलाफ अपराधों और प्राचीन वैदिक परंपरा की रक्षा की आवश्यकता ” प्रकाशित हुई है। ये पुस्तक विदेशों में चर्चित हुई है मगर भारत में उपेक्षित, अवहेलित है। इस पुस्तक का विषय भारत में हिन्दुओं के मंदिरों की सम्पत्ति, चढ़ावे, व्यवस्था की बंदरबांट है। इस पुस्तक में दिए गए आँखें खोल देने वाले तथ्यों पर विचार करने से पहले आइये कुछ काल्पनिक प्रश्नों पर विचार करें।
बड़े उदार मन, बिलकुल सैक्यूलर हो कर परायी बछिया का दान करने की मानसिकता से ही बताइये कि क्या हाजियों से मिलने वाली राशि का सऊदी अरब सरकार ग़ैर-मुस्लिमों के लिये प्रयोग कर सकती है ? प्रयोग करना तो दूर वो क्या वो ऐसा करने की सोच भी सकती है ? केवल एक पल के लिये कल्पना कीजिये कि आज तक वहाबियत के प्रचार-प्रसार में लगे, कठमुल्लावाद को पोषण दे रहे, परिणामतः इस्लामी आतंकवाद की जड़ों को खाद-पानी देते आ रहे सऊदी अरब के राजतन्त्र का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो विश्व-बंधुत्व में विश्वास करने लगता है। सऊदी अरब की विश्व भर में वहाबियत के प्रचार-प्रसार के लिये खरबों डॉलर फेंकने वाली मवाली सरकार हज के बाद लौटते हुए भारतीय हाजियों के साथ भारत के मंदिरों के लिये 100 करोड़ रुपया भिजवाती है। कृपया हँसियेगा नहीं ये बहुत गंभीर प्रश्न है।
क्या वैटिकन आने वाले श्रद्धालुओं से प्राप्त राशि ग़ैर-ईसाई व्यवस्था में खर्च की जा सकती है ? कल्पना कीजिये कि पोप भारत आते हैं। दिल्ली के हवाई अड्डे पर विमान से उतरते ही भारत भूमि को दंडवत कर चूमते हैं। उठने के साथ घोषणा करते हैं कि वो भारत में हिन्दु धर्म के विकास के लिये 100 करोड़ रुपया विभिन्न प्रदेशों के देव-स्थानों को दे रहे हैं। तय है आप इन चुटकुलों पर हँसने लगेंगे और आपका उत्तर निश्चित रूप से नहीं होगा। प्रत्येक धर्म के स्थलों पर आने वाले धन का उपयोग उस धर्म के हित के लिए किया जाता है। तो इसी तरह स्वाभाविक ही होना चाहिए कि मंदिरों में आने वाले श्रद्धालुओं के चढ़ावे को मंदिरों की व्यवस्था, मरम्मत, मंदिरों के आसपास के बुनियादी ढांचे और सुविधाओं के प्रशासन, अन्य कम ज्ञात मंदिरों के रख-रखाव, पुजारियों, उनके परिवार की देखरेख, श्रद्धालुओं की सुविधा के लिये उपयोग किया जाये। अब यहाँ एक बड़ा प्रश्न फन काढ़े खड़ा है। क्या मंदिरों का धन मंदिर की व्यवस्था, उससे जुड़े लोगों के भरण-पोषण, आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्था से इतर कामों के लिये प्रयोग किया जा सकता है ?
अब आइये इस पुस्तक में दिए कुछ तथ्यों पर दृष्टिपात करें। आंध्र प्रदेश सरकार ने मंदिर अधिकारिता अधिनियम के तहत 43,000 मंदिरों को अपने नियंत्रण में ले लिया है और इन मंदिरों में आये चढ़ावे और राजस्व का केवल 18 के प्रतिशत मंदिर के प्रयोजनों के लिए वापस लौटाया जाता है। तिरुमाला तिरुपति मंदिर से 3,100 करोड़ रुपये हर साल राज्य सरकार लेती है और उसका केवल 15 प्रतिशत मंदिर से जुड़े कार्यों में प्रयोग होता है। 85 प्रतिशत राज्य के कोष में डाल दिया जाता है और उसका प्रयोग सरकार स्वेच्छा से करती है। क्या ये भगवान के धन का ग़बन नहीं है ? इस धन को आप और मैं मंदिरों में चढ़ाते हैं और इसका उपयोग प्रदेश सरकार हिंदु धर्म से जुड़े कार्यों की जगह मनमाना होता है। उड़ीसा में राज्य सरकार जगन्नाथ मंदिर की बंदोबस्ती की भूमि के ऊपर की 70,000 एकड़ जमीन को बेचने का इरादा रखती है।
केरल की कम्युनिस्ट और कांग्रेसी सरकारें गुरुवायुर मंदिर से प्राप्त धन अन्य संबंधित 45 हिंदू मंदिरों के आवश्यक सुधारों को नकार कर सरकारी परियोजनाओं के लिए भेज देती हैं। अयप्पा मंदिर से संबंधित भूमि घोटाला पकड़ा गया है। सबरीमाला के पास मंदिर की हजारों एकड़ भूमि पर कब्ज़ा कर चर्च चल रहे हैं। केरल की राज्य सरकार त्रावणकोर, कोचीन के स्वायत्त देवस्थानम बोर्ड को भंग कर 1,800 हिंदू मंदिरों को अधिकार पर लेने के लिए एक अध्यादेश पारित करने के लिए करना चाहती है।
कर्णाटक की भी ऐसी स्थिति है। यहाँ देवस्थान विभाग ने 79 करोड़ रुपए एकत्र किए गए थे और उसने उस 79 करोड़ रुपये में से दो लाख मंदिरों को उनके रख-रखाव के लिए सात करोड़ रुपये आबंटित किये। मदरसों और हज सब्सिडी के लिये 59 करोड़ दिए और लगभग 13 करोड़ रुपये चर्चों गया। कर्नाटक में दो लाख मंदिरों में से 25 प्रतिशत या लगभग 50000 मंदिरों को संसाधनों की कमी के कारण बंद कर दिया जायेगा। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि महमूद गज़नी तो 1030 ईसवी में मर गया मगर उसकी आत्मा अभी भी हज़ारों टुकड़ों में बाँट कर भारत के मंदिरों की लूट में लगी हुई है ?
यहाँ यह प्रश्न उठाना समीचीन है कि आख़िर मंदिर किसने बनाये हैं ? हिंदु समाज के अतिरिक्त क्या इनमें मुस्लिम, ईसाई समाज का कोई योगदान है ? बरेली के चुन्ना मियां के मंदिर को छोड़ कर सम्पूर्ण भारत में किसी को केवल दस और मंदिर ध्यान हैं जिनमें ग़ैरहिंदु समाज का योगदान हो ? मुस्लिम और ईसाई समाज कोई हिन्दू समाज की तरह थोड़े ही है जिसने 1857 के बाद अंग्रेज़ी फ़ौजों के घोड़े बांधने के अस्तबल में बदली जा चुकी दिल्ली की जामा-मस्जिद अंग्रेज़ों से ख़रीद कर मुसलमानों को सौंप दी हो।
यहाँ ये बात ध्यान में लानी उपयुक्त होगी कि दक्षिण के बड़े मंदिरों के कोष सामान्यतः संबंधित राज्यों के राजकोष हैं। एक उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट होगी। कुछ साल पहले पद्मनाभ मंदिर बहुत चर्चा में आया था। मंदिर में लाखों करोड़ का सोना, कीमती हीरे-जवाहरात की चर्चा थी। टी वी पर बाक़ायदा बहसें हुई थीं कि मंदिर का धन समाज के काम में लिया जाना चाहिये। यहाँ इस बात को सिरे से गोल कर दिया गया कि वो धन केवल हिन्दू समाज का है, भारत के निवासी हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों का नहीं है। उसका कोई सम्बन्ध मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी समाज से नहीं है। वैसे वह मंदिर प्राचीन त्रावणकोर राज्य, जो वर्तमान में केरल राज्य है, के अधिपति का है। मंदिर में विराजे हुए भगवान विष्णु महाराजाधिराज हैं और व्यवस्था करने वाले त्रावणकोर के महाराजा उनके दीवान हैं। नैतिक और क़ानूनी दोनों तरह से पद्मनाभ मंदिर का कोष वस्तुतः भगवान विष्णु, उनके दीवान प्राचीन त्रावणकोर राजपरिवार का, अर्थात तत्कालीन राज्य का निजी कोष हैं। उस धन पर क्रमशः महाराजाधिराज भगवान विष्णु, त्रावणकोर राजपरिवार और उनकी स्वीकृति से हिन्दू समाज का ही अधिकार है। केवल हिन्दु समाज के उस धन पर अब वामपंथी, कांग्रेसी गिद्ध जीभ लपलपा रहे हैं।
यहाँ एक ही जगह की यात्रा के दो अनुभवों के बारे में बात करना चाहूंगा। वर्षों पहले वैष्णव देवी के दर्शन करने जाना हुआ। कटरा से मंदिर तक भयानक गंदगी का बोलबाला था। घोड़ों की लीद, मनुष्य के मल-मूत्र से सारा रास्ता गंधा रहा था। लोग नाक पर कपड़ा रख कर चल रहे थे। हवा चलती थी तो कपड़ा दोहरा-तिहरा कर लेते थे। काफ़ी समय बाद 1991 में फिर वैष्णव देवी के दर्शन करने जाना हुआ। तब तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल पद को जगमोहन जी सुशोभित कर चुके थे। आश्चर्यजनक रूप से कटरा से मंदिर तक की यात्रा स्वच्छ और सुविधाजनक हो चुकी थी। कुछ वर्षों में ये बदलाव क्यों और कैसे आया ? पूछताछ करने पर पता चला कि वैष्णव देवी मंदिर को महामहिम राज्यपाल ने अधिग्रहीत कर लिया है और इसकी व्यवस्था के लिये अब बोर्ड बना दिया गया है। अब मंदिर में आने वाले चढ़ावे को बोर्ड लेता है। उसी चढ़ावे से पुजारियों को वेतन मिलता है और उसी धन से मंदिर और श्रद्धालुओं से सम्बंधित व्यवस्थायें की जाती हैं।
ये स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ गया कि मंदिर जो समाज के आस्था केंद्र हैं, वो पुजारी की निजी वृत्ति का ही केंद्र बन गए हैं और समाज के एकत्रीकरण, हित-चिंतन के केंद्र नहीं रहे हैं। अब समाज की निजी आस्था अर्थात हित-अहित की कामना और ईश्वर प्रतिमा पर आये चढ़ावे का व्यक्तिगत प्रयोग का केंद्र ही मंदिर बचा है। मंदिर के लोग न तो समाज के लिये चिंतित हैं न मंदिर आने वालों की सुविधा-असुविधा उनके ध्यान में आती है। क्या ये उचित और आवश्यक नहीं है कि मंदिर के पुजारी गण, मंदिर की व्यवस्था के लोग अपने साथ-साथ समाज के हित की चिंता भी करें ? यदि वो ऐसा नहीं करेंगे तो मंदिरों को अधर्मियों के हाथ में जाते देख कर हिंदु समाज भी मौन नहीं रहेगा ? मंदिरों के चढ़ावे का उपयोग मंदिर की व्यवस्था, उससे जुड़े लोगों के भरण-पोषण, आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्था के लिये होना स्वाभाविक है। ये त्वदीयम वस्तु गोविन्दः जैसा ही व्यवहार है। साथ ही हमारे मंदिर, हमारी व्यवस्था, हमारे द्वारा दिए गये चढ़ावे का उपयोग अहिन्दुओं के लिये न हो ये आवश्यक रूप से करवाये जाने वाले विषय हैं। संबंधित सरकारें इसका ध्यान करें, इसके लिये हिंदु समाज का चतुर्दिक दबाव आवश्यक है अन्यथा लुटेरे भेड़िये हमारी शक्ति से ही हमारे संस्थानों को नष्ट कर देंगे
✍🏻आनन्द कुमार