क्यों 13 जुलाई शहीदी-दिवस के तौर पर मनाया जाता है जम्मू-कश्मीर में

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डॉ. शिबन कृष्ण

अश्विनी कुमार चरंगू ने एक बयान जारी कर तेरह जुलाई को ‘कश्मीर-संकल्प-दिवस’ के रूप में मनाने का अनुरोध किया है। साथ ही निर्वासित कश्मीरी-पंडितों के बलिदान, त्याग और धैर्य की प्रशंसा करते हुए समुदाय के लोगों से निवेदन किया है कि वे एकजुट रहें।

5 अगस्त, 2019 को केंद्र-सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 हटाने के साथ ही जम्मू-कश्मीर को 2 भागों में बांटने का कानून पारित किया गया था। जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप कतिपय प्रशासनिक और संवैधानिक परिवर्तनों के साथ-साथ राजकीय अवकाशों में भी फेर-बदल किया गया।
पूर्व में जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई शहीदी-दिवस के तौर पर मनाया जाता रहा है। माना जाता है कि 1931 में इस दिन डोगरा शासक महाराजा हरिसिंह की सेना द्वारा की गई गोलीबारी में 22 लोगों की मौत हो गई थी। हालांकि यह एक प्रचारित कहानी है और हिंदुओं के लिए यह एक काला दिवस से कम नहीं है। दरअसल, 1931 में जम्मू-कश्मीर पर महाराजा हरिसिंह का शासन था। अंग्रेज चाहते थे कि हरिसिंह उन्हें गिलगित एजेंसी लीज पर दे दें। परंतु हरिसिंह ने इनकार किया। अंग्रेज इस बात से अवगत थे कि हरिसिंह एक हिंदू राजा हैं जो मुस्लिम जनसंख्या पर शासन कर रहे थे। चालबाज़ अंग्रेजों ने मुसलमानों को हरिसिंह के खिलाफ भडकाने का कुचक्र रचा। पेशावर के अब्दुल कादिर और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने एक सार्वजनिक सभा में राजा हरिसिंह के विरुद्ध भड़काऊ भाषण दिए।

इन उग्र-भाषणों की वजह से 13 जुलाई, 1931 को सुनियोजित सांप्रदायिक दंगे हुए और अंततः 22 नागरिकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौतें हुई। इसलिए इस दिन को पूर्ववर्ती सरकारें सार्वजनिक अवकाश घोषित कर शहीदी-दिवस के रूप में मनाती रहीं हैं। अब नई सरकार ने इस दिवस के बदले 26 अक्टूबर को ‘विलय दिवस’ के रूप में मनाने का फैसला किया है और इस दिन राजकीय अवकाश रहेगा। इसी तरह फारूक अब्दुल्ला के पिता स्व. शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की जयंती (05 दिसंबर) पर भी अब अवकाश नहीं होगा।

कश्मीरी पंडित नेता अश्विनी कुमार चरंगू ने एक बयान जारी कर तेरह जुलाई को ‘कश्मीर-संकल्प-दिवस’ के रूप में मनाने का अनुरोध किया है। साथ ही निर्वासित कश्मीरी-पंडितों के बलिदान, त्याग और धैर्य की प्रशंसा करते हुए समुदाय के लोगों से निवेदन किया है कि वे एकजुट रहें, विरोधी ताकतों के कुचक्रों के झांसे में न आएं और ऐसी हर चाल का पर्दाफाश करें जिससे पंडितों की ‘घर-वापसी’ की मुहिम कमज़ोर पड़े। श्री चरंगू ने स्पष्ट किया कि वे आला-कमान के नेताओं और उच्च अधिकारियों के निरंतर संपर्क में हैं। उन्होंने आशा जताई कि चूंकि केंद्र के सामने पंडितों की ‘घर-वापसी’ का मुद्दा उसकी राजनीतिक प्राथमिकताओं की सूची में पहले नंबर पर है, अतः कश्मीरी पंडितों के ‘पुनर्स्थापन’ का निश्चित तौर पर कोई-न-कोई समुचित हल जल्दी निकल आएगा।

‘हम एकजुट रहेंगे तो सफलता हमें ज़रूर मिलेगी। इसके विपरीत आपसी फूट से हमारे दीर्घकालीन आन्दोलन और सतत प्रयासों को धक्का ही लगेगा’: कश्मीरी पंडित-नेता चरंगू ने यह बात स्पष्ट शब्दों में कही।

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