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दलाई लामा अब तिब्बत की स्वतंत्रता के मुद्दे पर मौन क्यों ?

 

तिब्बत शरणार्थियो अपना देश माँगो

भारत अशरण-शरण की प्राचीन परंपरा के प्रति आज भी संकल्पित है | अपने प्राण,धन और राज्य का बलिदान देकर भी हमारे राजाओं ने अपने शरणार्थी को नहीं त्यागा, किन्तु अधिकांश शरणार्थियों ने ही समय आने पर या तो विश्वासघात किया या फिर अपने आश्रय दाता के प्राण संकट में डाल कर वे स्वयं भाग खड़े हुए | सिकंदर लोदी के पुत्र इबराहीम लोदी ने ग्वालियर पर इसीलिए आक्रमण किया था क्यों कि यहाँ के राजा विक्रमादित्य ने  जलाल खां को शरण दे रखी थी | लोदी सेना के आने से पूर्व ही कृतघ्न जलाल खां भाग खड़ा हुआ और इसका मूल्य चुकाया आश्रय दाता ने |  चित्तोड़ के हम्मीर देव के साथ भी यही हुआ उन्हें भी शरण देने के कारण राज्य गँवाना पड़ा | इन दारुण प्रसंगों के पश्चात् भी  का या कहें कि शरण देने के कारण जन-धन हानि उठाते रहने के पश्चात् भी भारत ने अपनी  शरण देने की टेक यथावत रखी है | पंडित जवाहर लाल नेहरू जी यह जानते थे कि निर्वासित शरणार्थी दलाई लामा को शरण देने से चीन कुपित होगा और भारत चीन से युद्द नहीं चाहता, के पश्चात् भी नेहरू जी ने तिब्बत के निर्वासित धर्म गुरु दलाई लामा और उनके साथियों को भारत में शरण दी | इस अशरण-शरण की परिणति भी युद्ध में हुए बिना नहीं रह सकी | दलाई लामा को शरण देने के कारण चीन को यह कहने का अवसर मिला कि भारत उसके प्रवल शत्रु का शरण दाता और सहायक देश है | इसके बाद जो हुआ वह एक भयानक और कष्टकारक इतिहास है | यदि दलाई लामा को शरण न दी जाती तो युद्ध न होता यह आज के आलेख का वर्ण्य-विषय नहीं है विषय यह है कि जब शरण दे ही दी तब दलाई लामा जी का अपने आश्रय दाता के प्रति क्या कर्तव्य था और है ? क्या उन्होंने और उनके तिब्बती समूह ने अपने वचन या कर्म से इस आश्रय के प्रति कृतज्ञता में ऐसा कोई कदम उठाया है जिससे भारत को कूटनीतिक लाभ हुआ हो ? भारत में रहकर लामा जी ने शांति का नोवल पुरस्कार प्राप्त किया, वे स्वयं को भारत का बेटा भी कहते हैं | भारत में रहकर उन्होंने अपने धर्म,संस्कृति और भाषा के लिए वह सब-कुछ कर पाने का प्रयास किया जो उनके लिए अभीष्ट था | लामा जी भली-भाँति  जानते हैं और कहते भी रहे हैं कि उनका देश तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था जिस पर चीन ने बलात अधिकार कर लिया है | उनका घर-द्वार और देश छिन जाने के कारण ही उन्होंने यहाँ शरण ली है | किन्तु इतने वर्षों में उन्होंने या उनके अनुयायियों ने  भारत में रहते हुए तिब्बत को पुनः स्वतंत्र कराने के लिए कोई रणनीति बानाई है क्या ?  सुना है अब वे तिब्बत की मुक्ति/स्वतंत्रता के स्थान पर केवल सांस्कृतिक और धार्मिक स्वायत्तता की बात करने लगे हैं | प्रश्न यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने तिब्बत को चीन का अभिन्न अंग मान लिया है ? यदि हाँ तो फिर उन्हें अपने देश चीन के लिए प्रयाण कर देना चाहिए, यदि ऐसा नहीं है तो यही उपयुक्त समय है अब लामा जी सहित सभी तिब्बत शरणार्थियो को जो संख्या में लगभग एक लाख से भी अधिक हैं, को  अपने स्वतंत्र देश तिब्बत के लिए उठ खड़े होने का उपक्रम करना चाहिए  | अब तक के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब अमेरिका सहित अन्य यूरोपीय देश चीन के विरुद्ध इतने मुखर हुए हैं | कोरोना महामारी और विस्तारवादी सोच के कारण चीन की छवि को भारी  धक्का लगा है और भारत भी अक्साई चिन को पुनः प्राप्ति की बात करने लगा है | यदि इस समय लामा जी भी तिब्बत की स्वतंत्रता की माँग करें तो चीन-तिब्बत मुद्दा भी अंतरराष्ट्रीय  विश्व जगत के सामने पुनः आ जाएगा | भारत के लोग ऋषि मुनियों और संतो का सदैव आदर करते आए हैं इसीलिये वे लामा जी पर कोई भी दबाव नहीं बनाना चाहते  किन्तु लामा जी को स्वयं इस बात का चिंतन करना होगा कि उनके आश्रयदाता और उनका स्वयं का (तिब्बत का) हित सामान है तो फिर क्यों वे गलवान की घटना पर मौन धारण किये रहे | चीन की कम्युनिष्ट विचारधारा वाली सरकार के लिए तिब्बत का  सामरिक और संसाधानात्मक महत्व है न कि सांस्कृतिक  | इस बात की भी पूरी-पूरी संभावना है कि अगले लामा के रूप में चीन अपने ही किसी विश्वस्त को पदाभिषिक्त कर दे |संभावना यह भी है कि वर्तमान दलाई लामा जी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के संबंध में की गई घोषणा को भी चीन अमान्य कर दे |  यदि ऐसा होता है तो तिब्बती लोग भारत से हस्त क्षेप की आशा न करें क्यों कि आज तिब्बती जनसमूह हमारे गलवान के शहीदों के बलिदान पर भी चुप है | उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि  यहूदियों को इजराइल  इसीलिये मिल पाया क्यों कि उन्होंने  सतत संघर्ष किया | यद्यपि शरणदाता होने के कारण भारत सरकार कभी भी तिब्बतियों से  कोई आग्रह नहीं करती किन्तु आश्रयदाता देश के  नागरिक यह अपेक्षा तो कर ही सकते हैं कि जब दुर्धर्ष शत्रुवाहिनी द्वार पर खड़ी हो तो उसका शरणार्थी भी कुछ साहस दिखाए वो  युद्ध भले ही न लड़े, पर उत्साह की बातें तो करे  |

डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

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