क्या राजनेताओं की देन है गैंगस्टर, एक मरा है और भी पनपेंगे
योगेंद्र योगी
सवाल यही है कि आखिर ऐसे कयास लगाए क्यों गए। इससे जाहिर है कि देश में न्यायपालिका की जड़ें कमजोर हैं। कुख्यात अपराधी सबूतों के अभाव में जमानत पर छूट जाते हैं। यदि नहीं भी छूटते तो अदालतों में मामले सालों तक चलते रहते हैं।
कुख्यात गैंगेस्टर विकास दुबे का एनकाउन्टर में मारा जाना पुलिस के साथ न्यायपालिका पर भी सवाल खड़े करता है। इससे जाहिर है कि देश में न्यायपालिका की जड़ें अभी तक मजबूत नहीं हुई हैं। प्रशासन और सरकार को भी न्यायपालिका पर पूरा भरोसा नहीं है। दुबे जैसा ही चर्चित मामला हैदाराबाद में महिला चिकित्सक से सामूहिक बलात्कार और हत्या करने वाले आरोपियों का पुलिस एनकाउन्टर में मारा जाना था। इस मामले में भी बलात्कारियों के नहीं पकड़ जाने पर देश भर में गुस्से की लहर थी। तेलंगाना सरकार की किरकिरी हो रही थी। पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। इन आरोपियों का पुलिस ने एनकाउन्टर कर दिया। आरोप यह लगाया कि आरोपी पुलिस से हथियार छीन कर भागने का प्रयास कर रहे थे। गैंगेस्टर विकास दुबे द्वारा आठ पुलिसकर्मियों को मारे जाने के बाद भी यही कयास लगाए जा रहे थे कि यदि पुलिस ने उसे जीवित पकड़ लिया तो उसका एनकाउंटर संभव है। आखिरकार यह कयास सही साबित हुआ। पुलिस ने उसे उज्जैन से गिरफ्तार किया और कानपुर में एनकाउन्टर में उसकी मौत हो गई।
सवाल यही है कि आखिर ऐसे कयास लगाए क्यों गए। इससे जाहिर है कि देश में न्यायपालिका की जड़ें कमजोर हैं। कुख्यात अपराधी सबूतों के अभाव में जमानत पर छूट जाते हैं। यदि नहीं भी छूटते तो अदालतों में मामले सालों तक चलते रहते हैं। पुलिस को कुख्यात अपराधियों के खिलाफ सबूत जुटाने में भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसे अपराधियों के खिलाफ पहले तो कोई आसानी से गवाही के लिए तैयार ही नहीं होता। यदि गवाह मिल भी जाए तो उसकी जान को हमेशा खतरा रहती है। ऐसे मामलों में पुलिस गवाहों को संरक्षण देने में नाकाम रही है। यदि अदालत के निर्देश से कुछ मामलों में गवाहों को संरक्षण मिल भी जाता है तो उनकी व्यवहारिक कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं। ऐसे में लोग मौके पर मौजूद होने के बावजूद अपराधियों के खिलाफ गवाही देने से कतराते हैं।
अपराधियों के मुकदमे सालों अदालतों में लंबित रहते हैं। इसके बावजूद भी कोई गारंटी नहीं कि अपराधी को सजा मिल ही जाए। दरअसल नेता और प्रशासनिक तंत्र ऐसे अपराधियों के मामले में मौका मिलते ही अपनी नाकामयाबी, मिलीभगत और भ्रष्टाचार का ठीकरा न्यायपालिका पर फोड़ कर न सिर्फ जन सैलाब के आक्रोश से बचने का प्रयास करते हैं, बल्कि अपराधियों के गठजोड़ पर भी पर्दा डालने में लगे रहते हैं। यही विकास दुबे के एनकाउन्टर में हुआ। इसमें पुलिस की मिलीभगत के रहस्यों पर अब पर्दा पड़ा रहेगा। यही जाहिर हो चुका है कि जब पुलिस कानपुर में विकास दुबे को गिरफ्तार करने गई तो कुछ पुलिसकर्मियों ने ही इसकी सूचना पहले ही दुबे को दे दी। इससे उसने पुलिस पर हमला कर आठ पुलिसकर्मियों को मार डाला और फरार हो गया।
पुलिस प्रशासन सरकारी तंत्र का हिस्सा है। इस सरकारी तंत्र को चलाने वाले राजनीतिक दलों के नेता हैं। पुलिस हों या प्रशासनिक अधिकारी, किसी में भी सत्तारुढ़ नेताओं के नीतिगत गलत कार्यों का विरोध करने का साहस नहीं होता। यदि कुछ अधिकारी ऐसा प्रयास भी करते हैं, तो सरकार के पास उनके तबादले, निलंबन और नौकरी से बाहर किए जाने की तलवार रहती है। यही वजह है कि जब भी सरकार बदलती है, सबसे पहले पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के तबादलों की सूची जारी होती है। सरकार ऐसे अफसरों को पसंद करती है, जो विशेषकर उसके मौखिक निर्देशों को आंख बंद करके पालन करें। इसमें भी जाति, धर्म के अलावा राजनीतिक रसूकात और हर हाल में वफादारी निभाने वाले अफसरों को मलाईदार पोस्टिंग में प्राथमिकता मिलती है। यह बात दीगर है कि सभी अफसर समान परीक्षा पास करके आते हैं। सभी का प्रशिक्षण भी एक जैसा होता है। इसके बावजूद सरकार कुछ खास अफसरों को तरजीह देकर महत्वपूर्ण पोस्टों पर बिठाती है। ऐसे अफसर जो सरकार की हां में हां नहीं मिलाते, सालों तक महत्वपूर्ण महकमों की पोस्टिंग के लिए तरसते रहते हैं।
प्रशासन में गंदगी की शुरुआत अफसरों के तबादलों−पोस्टिंग से होती है। सरकार के इशारे पर नाचने वाले अफसरों से यह उम्मीद कदापि नहीं कि जाती वे कानून के मुताबिक काम करेंगे। कानून सरकार बनाती है, किन्तु कानून बनाने में भेदभाव संभव नहीं है। कानून बनाने की एक निर्धारित प्रक्रिया है। सत्ता में आने पर सभी राजनीतिक दलों को उसी संवैधानिक प्रक्रिया की पालना करनी होती है। राजनीतिक दलों के स्वार्थ कानून से इतर होते हैं। उन्हें पूरा करने के लिए उन्हीं के बनाए कानून आड़े आते हैं। ऐसे में मौखिक निर्देशों के जरिए मनमर्जी के काम कराए जाते हैं। भ्रष्टाचार और अपराधों की शुरुआत यहीं से होती है। सत्तारुढ़ दल के नेताओं के गैरकानूनी काम करने वाले अफसरों के हाथ कमजोर हो जाते हैं। ऐसे हालात में विकास दुबे जैसे गैंगेस्टर पैदा होते हैं। इतना ही नहीं ऐसे गैंगेस्टरों को अंदाजा होता है कि असली ढाल तो नेता हैं, इसलिए कुछ गैंगेस्टरों ने नेताओं का चोला धारण कर लिया। इससे उन्हें वैधानिक सुरक्षा मिल गई। चुनावों में चुंकि जाति और धर्म के आधार पर टिकटों का वितरण होता है। ऐसे में गैंगेस्टरों को भी राजनीतिक में प्रवेश करने को मौका मिल जाता है। राजनीति में प्रवेश करके विधायक, सांसद या मंत्री बनने के बाद तस्वीर पूरी तरह बदल जाती है। जो पुलिस ऐसे अपराधियों का पीछा करती रहती थी, वही अब उनकी सुरक्षा में तैनात रहती है। ऐसे में राजनीतिक दल किस मुंह से अपराधों को खत्म करने की बात करते हैं।
यही वजह है कि चाहे देश की संसद हो या विधानसभाएं, ऐसा एक भी राजनीतिक दल नहीं है जिसके सांसद या विधायक दागदार नहीं हों। इस मामले में हास्यादपद स्थिति यह है कि सभी दल ऐसे दागदार अपराधी नेताओं के मामले में एक−दूसरे को आईना दिखाते रहते हैं। सभी दलों के दर्जनों जनप्रतिनिधियों के दामन पर अपराधों के छींटे पड़े हुए हैं। इनमें साधारण अपराधी ही नहीं बल्कि गैंगेस्टर से नेता बने लोग भी शामिल हैं। ऐसे में सवाल यही उठता है कि आखिर सरकारें किस मुंह से अपराधों का समाप्त करने की बात करती हैं। सरकारों की कथनी और करनी में साफ अंतर है। दुबे के मारे जाने से ऐसे अपराधियों का बनना तब तक बंद नहीं होगा जब तक निर्वाचित सदनों की गंदगी साफ नहीं होगी। अपराधियों को जब तक राजनीतिक दलों का समर्थन और संरक्षण मिलता रहेगा, एक नहीं कई दुबे जैसे गैंगेस्टर पनपते रहेंगे।
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