अब की संस्कृति का मूल सिद्धांत तो वेद वाणी है। जिसमें पुनर्जन्म की बात कही गई है। ऋषि श्रृंग का भी पुनर्जन्म होना वेद संगत है। महर्षि श्रृंग द्वारा सुनाये गए आध्यात्मिक विषय से वेद के पुनर्जन्म संबंधित सिद्धांत की पुष्टि होती है।
अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास में धर्म महिमा का विवरण प्रस्तुत करते समय महर्षि दयानंद ने निम्न प्रकार मार्गदर्शन किया है :-
धर्म श नै: संचिनुयाद बल्मिकमिव पुत्तिका। परलोक सहायार्थ सर्व भूताण्य पीडयन।।
मनुस्मृति 4/238
अर्थात स्त्री और पुरुष को चाहिए कि जैसे पूत्तिका अर्थात दीमक बाल्मिक अर्थात बांबी या बिल को बनाती है , वैसे सब भूतों अर्थात प्राणियों को पीड़ा अर्थात कष्ट न देकर परलोक अर्थात पर जन्म के सुखार्थ धीरे-धीरे धर्म का संचय करें।
न पुत्रदारम न ज्ञातिर्धर्म स्टिष्ठ ती केवल: ।।
मनुस्मृति 4/ 239क्योंकि परलोक में न माता, न पिता , न पुत्र,न स्त्री ,न ज्ञाती अर्थात जान पहचान वाला सहायता कर सकते हैं, किंतु एक धर्म ही सहायक होगा।
स्वर्गीय श्री धर्मवीर धर्मी आर्य समाजी भजन उपदेशक ने एक भजन बनाया था जिसकी प्रारंभिक पंक्तियां निम्न प्रकार हैं :-
धन धरती में रह जाएगा, गज घोड़े साथ नहीं जाएंगे। यह त्रिया घर पर रुदन करें, ना साथी साथ निभाएंगे।।
हम ‘धर्मी’ जिसको धर्म कहें, परलोक में साथ निभाएंगे।।
इस प्रकार परलोक में केवल धर्म ही साथ देगा। यही कारण है कि विद्वान लोग धर्म के अनुसार कार्य करने पर अधिक बल देते हैं । जिसने इस लोक में रहते हुए धर्म के अनुसार अपने जीवन को साध लिया , उसके जीवन को धर्म साध कर जब धर्मराज अर्थात परमपिता परमेश्वर के न्यायालय में ले जाकर खड़ा करेगा तो ईश्वर उसके शुभ कार्यों का अर्थात धर्मानुसार किए गए आचरण का उचित पुरस्कार उसे अवश्य देगा।एक: प्रजायते जंतुरेक एव प्रलियते।
एकों नुभूंक्ते सुकृत्मेक एव च दुष्कृतम ।।
मनुस्मृति 4/ 240देखिए अकेला ही जीव जन्म और मरण को प्राप्त होता है। धर्म का फल सुख और जो अधर्म का दुख रूप फल उसको भोगना होता है।
महर्षि दयानंद का स्पष्ट मत है कि जीव जन्म और मरण को अकेला ही प्राप्त होता है , परंतु धर्म सदैव उसके साथ रहता है । क्योंकि धर्म के फल को प्राप्त करके कोई जीव सुख-दुख को प्राप्त होता है । इसी को लोगों ने नर्क और स्वर्ग का नाम दे दिया । इसी बात को अपनाते हुए मुस्लिम लोग दोजख और जन्नत की बात करते हैं तो इस ईसाई लोग भी इसी प्रकार की बात दोहराते हुए दिखाई देते हैं।एक: पापा नि कुरु ते फलम।
भोक्तारो विप्र मुच्य यंते कर्ता दौषेन्न।
(महाभारत उद्योग प्रजागर पर्व अध्याय 33 / 42)मृतम शरीर मुत सृज्य काष्ठलोष्ठ सम क्षितौ।
विमुखा बांधवा यानती धर्मस्त मनुगच्छती ।।
मनुस्मृति 5 /241जब कोई किसी का संबंधी मर जाता है , उसको मिट्टी के ढेले के समान भूमि में छोड़कर पीठ दिखाकर बंधु जन विमुख हो अर्थात मुंह फेर कर चले आते हैं ।कोई उसके साथ जाने वाला नहीं होता, किंतु एक धर्म ही उसका संगी साथी होता है। धर्म परलोक में भी साथ रहता है ।
इस प्रकार के चिंतन को देखकर पता चलता है कि हमारे ऋषियों ने जीवन की यात्रा को कितना सहज और सरल बना दिया है ? जब उन्होंने हमारे लिए यह कहा है कि धर्म का व्यवहार सदा करते चलो , क्योंकि धर्म ही हमारा शाश्वत साथी है । सनातन साथी है। जीवन मरण का साथी है । इसलिए संसार के लौकिक संबंधों पर यकीन मत करो । उसी सनातन साथी पर विश्वास करो जो हर पल , हर क्षण , हर स्थिति और हर परिस्थिति में आपके साथ रहेगा।तस्माद्ध रम सहायार्थ नित्य म संचि नु याछन।
धर्में हि सहायेन तमस्त रति दुस्तरम।।
मनुस्मृति 4 /242अर्थात इस हेतु से परलोक अर्थात परजन्म में सुख और जन्म के सहायार्थ नित्य धर्म का संचय धीरे-धीरे करता जाए। क्योंकि धर्म ही के सहाय से बड़े बड़े दुस्तर सागर को जीव तर सकता है।धर्म प्रधानम पुरुषम तपसा हत किलविशम।
परलोक नपत्याशु भास्वंतम खाशरीरिनम।।
( मनुस्मृति 4/243)अर्थात किंतु जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है। जिसका धर्म के अनुष्ठान से कर्तव्य पाप दूर हो गया, उसको प्रकाश स्वरूप और आकाश जिसका शरीरवत है ,उस परलोक अर्थात परम दर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।अब इस पर विचार करते हैं कि अध्यात्म क्या है ?
अध्यात्म आत्मा के अपने निज स्वरूप में स्थित या स्थिर होने को कहते हैं। आत्मा नित्य स्वरूप में योगाभ्यास से लौटती है। जिससे मनुष्य या योगाभ्यासी अपना प्राणायाम से अभ्यास बढ़ाकर इतनी योग्यता रेचक, पूरक और कुंभक की कर लेता है। ऐसी स्थिति में अध्यात्म वाला व्यक्ति स्वयं से प्रश्न करता है कि मैं कौन हूं ? और आध्यात्मिक व्यक्ति इसका उत्तर देता है कि ‘मैं आत्मा हूं।’
फिर दूसरा प्रश्न करता है स्वयं से कि ‘मेरा शरीर किस लिए है?’
मेरा शरीर मेरे कार्य के लिए साधन एवम् उपकरण की तरह है जो मेरे अधिकार या आधिपत्य में रहना चाहिए।
फिर तीसरा प्रश्न कि ‘मेरा शरीर व आत्मा पृथक पृथक है?’
इसका उत्तर स्वयं अध्यात्मवेत्ता देता है कि ‘मैं आत्मा शरीर से पृथक हूं। शक्ति विचार एवं चेतना का केंद्र हूं।’
चौथा प्रश्न होता है कि ‘क्या आत्मा अमर और शरीर नश्वर है?’
‘हां, मैं अमर हूं।’ मेरा कभी नाश नहीं हो सकता ।परंतु शरीर नाशवान है।
और यह चिंतन , मनन प्रत्येक पल, प्रतिक्षण, सोते जागते, उठते – बैठते, चलते – फिरते सदैव इस का स्मरण करते रहना ही अध्यात्म है। उपरोक्त के अतिरिक्त निम्न बिंदु भी आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन में परम आवश्यक है।
“मैं एक स्वतंत्र आत्मा हूं ।चित आदि अंतःकरण मेरे कार्यों के सघन उपकरण की तरह हैं ।मैं अंतःकरण से पृथक हूं ,और उसका स्वामी व अधिपति हूं। मैं अमर हूं ।समस्त शक्तियों का केंद्र हूं ।मैं कदापि मर नहीं सकता ।”
इस प्रकार आत्म स्थित अभ्यासी की हो जाती है। इसमें अर्थात अध्यात्म में प्रकृति तीनों गुणों से बाहर होकर आत्मा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाने पर आत्म स्थिति कहते हैं। अब यह जीवात्मा परमात्मा का साक्षात करेगा। अब कुछ बाकी नहीं रहा।
अध्यात्म आता है संयम से।तथा संयम आता है धारणा , ध्यान और समाधि से।
सही हमसे चित् की वृत्तियों का निरोध होता है। इससे मन और इंद्रियां योगी के वश में हो जाती है। तत्पश्चात योगी जागृत अवस्था को सुषुप्तावस्था बना देता है। अंतर्मुखी वृत्ति काम करने लगती है।समाधि निर्धूत मलस्य चेत्सो निवेशित स्यात्मनी।
न शक्यते वर्ण यितु म गिरा तदा स्वयंतः कर नेन ग्रह्यते।
( माण्डूक्योपनिषद 6/34)
अर्थात दुर्गुणों , दुर्व्यसनों अर्थात मल के दूर होने पर समाधिस्थ होकर आत्मरत् होने से जो आनंद प्राप्त होता है वह वाणी से व्यक्त नहीं किया जा सकता ।वह तो स्वयं अंतः करण से ग्रहण किया जा सकता है। अंत में प्राप्त संसार अर्थात प्रकृति रूप जगत को अध्यात्म के माध्यम से इस प्रकार काम में लाना चाहिए कि जिससे संसार आनंद स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन बन जाए तथा कैवल्य प्राप्त हो जाए। धर्म विकारों से रहित करता है तो अध्यात्म 5 शोकों से दूर करता है। 5 शोक या क्लेश अस्मिता, अविद्या, राग, द्वेष, और मृत्यु हैं ।
अध्यात्म में अपनी आत्मा प्रेम पूर्वक प्रसन्नता से आनंद स्वरूप में रमण करती है। अध्यात्म उद्वेग रहित वाणी सिखाता है, विनय देता है।
क्या मनुष्य के जीवन में उसकी जाति का प्रभाव पड़ता है ?
इसके लिए सर्वप्रथम उद्धृत करना चाहेंगे कि
जन्मना जायते शूद्र : संस्कारात द्विज उच्यते।
(मनुस्मृति)
उपरोक्त श्लोक से यह तथ्य एवं सत्य उद्घाटित होता है कि जन्म से हम सभी शूद्र हैं। संस्कारों से ब्राह्मण, विद्वान, पंडित कहे जाते हैं या बनते हैं। इसलिए जाति का मनुष्य के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि ऐसा रहा होता तो संत रविदास आदि जो शूद्र कुल में उत्पन्न हुए हैं ,उनकी पूजा भारत में नहीं होती। रावण के पुतले न जलाए जाते। रावण के विचार, व्यवहार अनुचित थे । इसलिए ब्राह्मण कुल में पैदा होने के कारण भी राक्षस कहा जाता है। क्योंकि शास्त्रों का ज्ञाता होते हुए भी धर्म शास्त्र और नीति के विरुद्ध आचरण करता था ।रावण की सोच स्वार्थी थी ।इसलिए उसने दूसरे लोगों के जीवन मूल्यों को क्षति पहुंचाई ।उनका महत्व नहीं समझा ।यदि व्यक्ति की सोच स्वार्थी नहीं , परमार्थ से परिपूर्ण है तो व्यक्ति दूसरों के जीवन मूल्यों को भी समझेगा ।इस प्रकार एक व्यक्ति की सोच समाज को प्रभावित कर जाती है। रावण और संत रविदास के उदाहरण हमारे सामने हैं । इसके अतिरिक्त साहू जी महाराज, वाल्मीकि ऋषि, ज्योतिबा फुले आदि महापुरुष हैं जो कुछ लोगों की दृष्टि में मात्र शूद्र हैं परंतु यह विचार शास्त्रोक्त नहीं है। इसलिए मैं भी इस विचार को नहीं मानता। ये लोग वास्तव में विद्वान ,पंडित और ब्राह्मण थे क्योंकि मनुष्य जाति से या कुल से महान नहीं होता बल्कि अपने श्रेष्ठ कर्मों से, संस्कारों से, विचारों से महान होता है।देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।