अधिकार से पहले कर्तव्य , अध्याय –17 (अंतिम ) हमारा सामूहिक कर्तव्य : सभी शिक्षित हो

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‘ हमारा सामूहिक कर्तव्य : सब शिक्षित हों ‘
( Each one ,Teach one )

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक उगता भारत

शिक्षा शिक्षा तभी कहलाती है जब वह व्यक्ति के भीतर संस्कारों को जन्म दे और उसका सुन्दर से सुन्दर , बेहतर से बेहतर नवीनतम संस्करण निकालकर हमें प्रस्तुत करे । शिक्षा व्यक्ति के अन्तर्मन को पूरी तरह धो डालने वाला एक ऐसा यन्त्र है जो उसे बाहर और भीतर से साफ कर डालता है । उसका पूर्णतया परिष्कार कर देता है । शिक्षाविहीन व्यक्ति संसार में आकर भी संसार में आया हुआ नहीं माना जाता । यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने प्रत्येक व्यक्ति को विद्यावान , सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य माना । संसार का हर वह व्यक्ति जो किसी भी प्रकार से शिक्षित हो गया है , और संसार के बारे में कुछ जान गया है , उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह उन लोगों को भी अपने साथ लेकर चलेगा जो शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी कारण से पीछे रह गए हैं । जाति – पांति ,छुआछूत , ऊंच – नीच , छोटा – बड़ा ,अपना – पराया या सम्प्रदाय आदि की संकीर्ण सोच इस प्रकार के ‘सर्व शिक्षा अभियान’ में आड़े नहीं आएगी ।

बना दें दीपों की एक कतार

प्रत्येक व्यक्ति मानवतावाद से प्रेरित होकर इसे अपना पुनीत कर्तव्य समझेगा कि वह संसार के किसी न किसी व्यक्ति को अपने अनुभवों से और अपने ज्ञान से अवश्य लाभान्वित करा दे । प्राचीन काल में हमारे देश में वानप्रस्थी और संन्यासी लोग ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया करते थे। इस प्रकार बहुत बड़ी संख्या में लोग ‘सर्वशिक्षा अभियान’ के कार्य को संपन्न करने में लगे रहते थे । जिससे कहीं पर भी किसी प्रकार का कोई अज्ञानान्धकार शेष न रह जाए।
वर्तमान में सरकारी स्तर पर चलाया जा रहा ‘ सर्व शिक्षा अभियान’ भी तभी सफल होगा जब प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको इस अभियान से जुड़ा हुआ अनुभव करेगा । कहने का अभिप्राय है कि सर्व शिक्षा अभियान को सफल बनाने के लिए इसे जनान्दोलन बनाना पड़ेगा । इसकी मूल भावना के अनुसार जब हर व्यक्ति शिक्षा का एक दीप जलाने का प्रयास करेगा अर्थात किसी न किसी अशिक्षित को शिक्षित करेगा तभी यह अभियान सफल होगा। अपने आपको दीप बनाना अलग बात है , अपने आप को दीप बनाकर दूसरा दीप जला देना और फिर अंत में दीपों की एक बड़ी कतार खड़ी कर देना सर्वथा दूसरी बात है । वास्तव में हमारे ऋषियों का चिंतन दीपों की पंक्ति खड़ा करना ही रहा । दीपावली मनाना केवल भारत ही जानता है और भारत की दीपावली तभी मनती है जब दीप से दीप जलते हुए एक शिक्षित से दूसरा शिक्षित और अन्त में सब शिक्षित हो जाने का हमारा दिव्य संकल्प पूर्ण हो जाता है ।
शिक्षा की इस पवित्र दिव्य भावना को हमारे ऋषियों ने प्राचीन काल में नि:शुल्क विद्यालय अथवा गुरुकुल स्थापित करके प्रारम्भ किया था। जिसमें शिक्षा का कोई शुल्क नहीं था । उल्टे उस समय राजा ‘सर्व शिक्षा अभियान’ में लगे वानप्रस्थियों , संन्यासियों ,आचार्यों और ऋषियों को सरकारी कोष से सब आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराता था। आचार्यों को भी वेतन के नाम पर कुछ नहीं मिलता था । परंतु उनकी कोई भी आवश्यकता ऐसी नहीं होती थी , जिसे राजा पूर्ण नहीं करता था । शिक्षा सेवा के क्षेत्र में जो भी व्यक्ति अपना समय , श्रम , साधना और जीवन समर्पित करते थे उनकी सुविधाओं का ध्यान राजा या शासन की ओर से रखा जाता था ।
शिक्षा के प्रति जनता का और शासन का ऐसा समर्पण संसार के ज्ञात इतिहास में अन्यत्र मिलना दुर्लभ है , जहां दोनों ही इस बात के लिए संकल्पित और प्रतिबद्ध रहते थे कि शिक्षा संस्कार के अभियान में कोई भी छूट न जाए। वास्तव में भारत की यह परम्परा की वह परम्परा है जिसे ‘Each one , Teach one ‘की आदर्श परम्परा कहा जा सकता है।

वर्तमान में ‘सर्व शिक्षा अभियान’

वर्तमान काल में शिक्षा के इस महाभियान का शुभारंभ भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति आस्थावान रहे हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के शासनकाल में किया गया । अटल जी ने इस बात को बड़ी गंभीरता से अनुभव किया कि शिक्षा से वंचित रहना मानव जीवन के लिए एक अभिशाप है । इसलिए उत्तम गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। संसार में भोजन , वस्त्र और आवास की मूलभूत आवश्यकताएं व्यक्ति के लिए मानी गई हैं , परन्तु इन सबका समाधान भी शिक्षा के माध्यम से ही उत्तमता से हो सकता है। इसलिए अटल जी ने इस बात को गहराई से समझा कि ज्ञान प्राप्त करना और अर्जित ज्ञान के आधार पर अपने जीवन को उन्नत बनाने के अवसर प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है।
अपने इस महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने प्रधानमंत्रित्व – काल में ( 2001-2 ) संविधान में संबंधित आवश्यक 86 वां संशोधन किया । इस संविधान संशोधन के अन्तर्गत अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि प्रत्येक ऐसा बच्चा जो 6 वर्ष से 14 वर्ष की अवस्था के बीच का है , अनिवार्य रूप से शिक्षा प्राप्त करेगा । सरकार ने घोषित किया कि अब कोई भी बच्चा शिक्षा से वंचित नहीं रहेगा । अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के इस कार्यक्रम का उद्देश्य 2010 तक संतोषजनक गुणवत्ता वाली प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण को प्राप्त करना रहा था।
‘सर्व शिक्षा अभियान’ में मुख्य रूप से 8 कार्यक्रम सम्मिलित किए गए इसमें आईसीडीएस और आंगनवाड़ी आदि को भी सम्मिलित किया गया।
इसी प्रकार ‘कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना’ का शुभारम्भ 2004 में किया गया । जिसमें देश की सभी लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा देने का संकल्प व्यक्त किया गया । कुछ समय उपरान्त यह योजना ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के साथ विलय कर दी गई ।
इसमें कक्षा निर्माण, पानी की सुविधा, परिसर की दीवार, धोने का कमरा, अलग करने वाली दीवार, विद्युतीकरण और सिविल मरम्मत और मौजूदा सुविधा का पुनर्निर्माण सम्मिलित हैं । कोष के प्रमुख हिस्से को इनमें खर्च किया जाता है । क्योंकि गांव के अधिकांश स्कूल दयनीय स्थिति और असुरक्षित स्थिति में हैं। स्थानीय सरकारी निकायों और पीटीए (पैरेंट टिचर्स एसोसिएशन) की सहायता से सिविल निर्माण कार्य किए जाते हैं। ‘सर्व शिक्षा अभियान’ ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के स्तर में सुधार लाने के मूल में बुनियादी सुविधाओं में सुधार करने को महत्वपूर्ण मानता है। विद्यालय की सुविधा सुधार के अतिरिक्त, मौजूदा स्कूल सुविधाओं के निकट ही क्लस्टर संसाधन केन्द्र और ब्लॉक संसाधन केन्द्र का निर्माण किया जाता है।
‘सर्व शिक्षा अभियान’ की प्रमुख पहल है। प्राथमिक शिक्षकों को शिक्षा पद्धति, बाल मनोविज्ञान, शिक्षा, मूल्यांकन पद्धति और अभिभावक प्रशिक्षण पर सतत शिक्षक प्रशिक्षण दिया जाता है। इस प्रकार के प्रशिक्षण को प्राथमिक शिक्षकों के चयनित शिक्षक समूह को दी जाती है जिसे बाद में संसाधन व्यक्ति कहा जाता है। शिक्षक प्रशिक्षण के पीछे प्रमुख विचार शिक्षण और अधिगम प्रक्रिया के नए विकासक्रम के साथ शिक्षकों को अद्यतन करना है।
‘सर्व शिक्षा अभियान’ का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा गया कि 2003 तक सभी ऐसे बच्चे जो 6 वर्ष से 14 वर्ष की अवस्था के बीच के हैं , आवश्यक रूप से विद्यालयों में शिक्षा प्राप्ति हेतु भेज दिए जाएंगे।
संतोषजनक गुणवत्ता और जीवन के लिए शिक्षा पर बल देना भी इस अभियान का एक उद्देश्य घोषित किया गया। इसी प्रकार 2007 तक प्राथमिक स्तर पर और 2010 तक प्रारंभिक स्तर पर सभी लैंगिक और सामाजिक अंतर को समाप्त करने को भी सर्व शिक्षा अभियान का एक उद्देश्य बताया गया।

इस अभियान में हम कितने सफल रहे ?

अब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या हम ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के इन उपरोक्त वर्णित उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हुए या नहीं ? निश्चित रूप से इस प्रश्न का उत्तर नहीं में है। क्योंकि शिक्षा के क्षेत्र में हमारे बच्चों की स्थिति आज भी विश्व स्तर पर बहुत दयनीय है । सर्व शिक्षा अभियान भी हमारे उन अनेकों सरकारी अभियानों की तरह केवल कागजी अभियान बनकर रह गया , जिन्हें हम अक्सर कागजों में चलते हुए देखते हैं , परंतु वे यथार्थ के धरातल पर कभी नहीं चलते ।
‘सर्व शिक्षा अभियान’ की ऐसी स्थिति इसलिए बनी है कि इसमें जन सहयोग अपेक्षित रूप से नहीं मिला। यहां तक कि जिन अभिभावकों के बच्चे शिक्षा के लिए स्कूल जाने चाहिए थे , उन्होंने भी सरकार की ओर से चलाए गए इस अभियान का समुचित लाभ लेने से उस समय इनकार कर दिया , जब उन्होंने अपने ही बच्चों को स्कूल में प्रवेश नहीं दिलाया।
यदि किसी प्रकार से अध्यापक उन्हें विद्यालय के लिए ले भी गए तो उन अभिभावकों ने अपने बच्चों को विद्यालय में भेजा नहीं। इसके अतिरिक्त समाज के शिक्षित और जागरूक लोगों ने भी ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के इस पुनीत कार्य में अपना कर्तव्य निर्वाह करने में चूक की। उन्होंने ‘दीप से दीप जलाने’ की भारत की परम्परा का निर्वाह नहीं किया। इसका कारण यह भी है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली स्वार्थपूर्ण है । हमें ऐसी शिक्षा नहीं दी जाती कि आप किसी के लिए स्वयं मोमबत्ती बन जाएं या दीप से दीप जलाने का एक शुभ संस्कार आपके भीतर हो जो स्वयं बोलता हो कि तुमको दूसरे के जीवन में प्रकाश करने के लिए मोमबत्ती बनना है । फलस्वरुप अटल जी का यह सपना एक जन – आंदोलन बनने में असफल रहा।
वास्तव में लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति इस सबके लिए दोषी है।

शिक्षित लोग आगे आएं

अच्छी बात यही होगी कि देश का प्रबुद्ध वर्ग , शिक्षित और सुसभ्य जन इस बात के लिए आगे आएं कि वे दूसरों के जीवन में प्रकाश करने का काम करेंगे। भारत के सांस्कृतिक मूल्यों को , नैतिक मूल्यों को और मानवतावाद को दूसरों के भीतर भरना और उसे अज्ञान रूपी अंधकार से बाहर निकालकर ज्ञान के प्रकाश में लाना सभी सुशिक्षित लोगों का कर्तव्य होना चाहिए । इस प्रकार की भावना से राष्ट्र का निर्माण होता है । समाज में शांति आती है और यह भाव विकसित करने में सहायता मिलती है कि हम सबकी शिक्षा सबके सामूहिक कल्याण के लिए है। यदि शिक्षा में स्वार्थ है , शिक्षा में केवल अपने – अपने कामों को पूरा करने की भावना है तो समझिए कि वह शिक्षा शिक्षा होकर भी सबके कल्याण में रत न होने से कुशिक्षा ही कही जाएगी । हमें ऐसी शिक्षा से बचने का प्रयास करना चाहिए।
सरकारी स्तर पर ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के चाहे जो लक्ष्य हों या उद्देश्य हों , हमारी दृष्टि में :सर्वशिक्षा अभियान’ का अभिप्राय केवल और केवल यही है कि ‘Each one ,Teach one ‘ अर्थात एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को शिक्षित करे , सुसंस्कृत करे । अपने इस कर्तव्य के माध्यम से समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण में सहयोगी और सहभागी हो। स्वार्थवाद को मिटाकर परमार्थवाद अथवा परोपकार का मार्ग प्रशस्त करे और संसार में शांति – व्यवस्था स्थापित करने के अपने उस लक्ष्य को पहचाने जिसके बारे में वह परमपिता परमेश्वर को वचन देकर धरती पर आया था।
शिक्षा के माध्यम से हमें प्रत्येक व्यक्ति को ‘आत्म दीपो भव: ‘ – का संगीत सुनाना है और उस संगीत को उसकी सांसों की सरगम बना देना है । हमारे लिए शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए कि व्यक्ति आत्मनिर्भर न बनकर आत्मानुशासित बने । वह दूसरे के अधिकारों का सम्मान करने वाला कर्तव्यपरायण व्यक्ति बने। वर्तमान शिक्षा शास्त्री भी इस बात को आवश्यक मानते हैं कि शिक्षा का उद्देश्य उन कर्तव्यों का निर्वाह करना होना चाहिए जिससे किसी भी व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता हो । उसके भीतर सद्भावना का विचार बढ़ता हो और वह अपने आपको देश व समाज से भी आगे जाकर मानवता और प्राणी मात्र के कल्याण के लिए समर्पित करके चले। इन सबके प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता हुआ चले।
शिक्षाशास्त्रियों की चिंता है कि शिक्षा प्राप्त व्यक्ति पवित्रता और जीवन की सद्भावना के प्रति कैसे समर्पित हो ? उसका चारित्रिक निर्माण कैसे हो ? उसके व्यक्तित्व का निर्माण कैसे हो ? नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों के प्रति उसके भीतर समर्पण का भाव कैसे विकसित हो ? सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति की प्राप्ति के लिए उसे अवसर कैसे उपलब्ध कराए जाएं ? उसे इस बात के लिए कैसे समर्पित किया जाए कि संस्कृति का संरक्षण और विस्तार करना तेरे जीवन का ध्येय है ?
वास्तव में यह सारी चिंताएं व्यक्ति को कर्तव्यपरायण बनाने को लेकर ही हैं , जब शिक्षा इन सब उद्देश्यों के प्रति समर्पित हो जाती है और व्यक्ति व्यक्ति को इन्हीं भाव और भावनाओं के प्रति समर्पित करने की प्रेरणा देने लगता है तब समझिए कि ‘सर्व शिक्षा अभियान’ पूर्णता को प्राप्त हो रहा है और समाज में शिक्षा क्रांति की पर्याय बन चुकी है। कहना न होगा कि शिक्षा क्रांति की पर्याय तभी बनती है जब हर व्यक्ति कर्तव्यपरायण हो उठता है और यह मान लेता है कि अधिकारों की प्राप्ति से पहले कर्तव्य निर्वाह का भाव मेरे भीतर कूट – कूट कर भरा हो।

क्या हैं शिक्षा के मूल उद्देश्य ?

भारत में विश्वविद्यालय आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पोस्ट करते हुए कहा गया है कि विवेक का विस्तार करना , नये ज्ञान के लिए इच्छा जागृत करना ,
जीवन का अर्थ समझने के लिए प्रयत्न करना , व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना – ये शिक्षा के मूल उद्देश्य हैं। हमारा मानना है कि इसमें शिक्षा का एक उद्देश्य यह भी जोड़ा जाए कि प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति दूसरों को शिक्षित करने का भी प्रयास करेगा, अर्थात शिक्षा ऐसे मानव का निर्माण करेगी जो सर्व समाज को शिक्षित करने के लिए अपने आपको स्वेच्छा से समर्पित करने वाला हो। अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक , सचेत व सावधान मानव ही सचेत , जागरूक और उत्कृष्ट मानव समाज का निर्माण कर सकता है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षा के उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि जनतांत्रिक नागरिकता का विकास करना शिक्षा का पहला उद्देश्य है। जिसके अनुसार देश में सच्चे , ईमानदार , देशभक्त ,और कर्मठ नागरिक बनाना परमावश्यक है। इसलिए मध्यमिक शिक्षा आयोग यह आवश्यक मानता है कि बच्चों को जनतांत्रिक नागरिकता की शिक्षा दिया जाना बहुत आवश्यक है । इस प्रकार की शिक्षा के द्वारा बच्चों के भीतर कर्तव्यपरायणता का भाव जागृत होता है । जनतांत्रिक नागरिकता का अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति भारत के उन सांस्कृतिक मूल्यों को अंगीकार करे जिनमें जनसहयोग के लिए प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के प्रति समर्पित हो , जनभावना का स्वाभाविक रूप से सब सम्मान करते हों और जनसेवा को अपना हथियार बनाकर जनकल्याण के कार्यों में सब लगे हों । इस प्रकार जनतांत्रिक नागरिकता का उद्देश्य सर्वजन के द्वारा सर्वजन का हित करना है। शिक्षा का भी यही उद्देश्य होना चाहिए और इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना कर्तव्य कर्म पहचानना चाहिए।
कुशल जीवन-यापन कला की दीक्षा दिए जाने को माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षा का दूसरा उद्देश्य घोषित किया है । एकांत में रहकर न तो व्यक्ति जीवन-यापन कर सकता है और न ही पूर्णत: विकसित हो सकता है। इस गुण के द्वारा छात्र-छात्राओं के भीतर समाज बोध जागृत होता है । वह अपने सामाजिक कर्तव्यों का पाठ पढ़ता है और जीवन में वह समाज के काम किस प्रकार आ सकता है ? – इस पर अपना ध्यान केंद्रित करता है । इस दृष्टि में चेतना तथा अनुशासन एवं देशभक्ति आदि अनेक सामाजिक गुणों का विकास किया जाना चाहिये । जिससे प्रत्येक बालक इस विशाल देश के विभिन्न व्यक्तियों का आदर करते हुए एक-दूसरे के साथ घुलमिल कर रहना सीख जाये।

शिक्षा और सामाजिकता का संस्कार

कहने का अभिप्राय है कि मनुष्य के भीतर सामाजिकता का संस्कार शिक्षा के माध्यम से ही आता है । यह सामाजिक संस्कार ही व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ता है और उसके जीवन को सार्थक बनाता है।
इसके अतिरिक्त व्यावसायिक कुशलता की उन्नति , व्यक्तित्व का विकास और नेतृत्व की शिक्षा प्रदान करने को भी माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षा का उद्देश्य घोषित किया है। हमारे देश में राष्ट्रवाद की प्रबल भावना को जागृत करना और सभी वर्गों , संप्रदायों , आंचलों, विभिन्न भाषा भाषियों और विभिन्न वर्गों के लोगों को साथ लेकर चलने की शिक्षा का संस्कार विद्यालय में शिक्षा के माध्यम से ही बच्चों में भरा जाता है । यदि शिक्षा सार्थक जीवन बोध कराने वाली हो तो व्यक्ति ऐसा नेतृत्व देने का प्रयास जीवन भर करता है जिसमें ‘सबका साथ सबका विकास’ होता हो । किसी प्रकार का पक्षपात ना होता हो । इसी सार्थक जीवन बोध के माध्यम से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है और इसी से व्यवसाय कुशलता की उन्नति भी संभव होती है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग के द्वारा निर्धारित शिक्षा के इन उद्देश्यों पर यदि विचार किया जाए तो इनसे भी स्पष्ट होता है कि संस्कार और कर्तव्यपरायणता को चाहे सांकेतिक रूप में ही सही पर इस आयोग ने भी स्वीकार किया है। यद्यपि हमारा मानना है कि माध्यमिक शिक्षा आयोग को भी संस्कार और कर्तव्य परायणता को विद्यार्थियों में कूट – कूट कर भरना शिक्षा का स्पष्ट उद्देश्य घोषित करना चाहिए।
कोठारी आयोग ने भी शिक्षा के क्षेत्र में अपनी ओर से कुछ ऐसे विचार प्रस्तुत किए हैं जिनसे पता चलता है कि वह उत्पादन में वृद्धि , सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास , जनतंत्र को सुदृढ़ करने , देश का आधुनिकीकरण करने सामाजिक , नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास करने को शिक्षा का उद्देश्य घोषित करता है। कोठारी आयोग की संस्तुतियों में सामाजिक , नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास करने को शिक्षा का उद्देश्य घोषित किया जाना निश्चय ही प्रशंसनीय है। वास्तव में यही वह बुनियादी उद्देश्य है जो शिक्षा के माध्यम से देश के नागरिकों को एक दूसरे के प्रति सहानुभूति रखने वाला बनाता है । देश की परिस्थितियों को सबके रहने योग्य बनाता है और देश के नागरिकों में एक दूसरे के प्रति ऐसे भाव और संस्कार पैदा करता है जिससे वे सब एक दूसरे को अपने ही परिवार का सदस्य समझने के लिए प्रेरित होते हैं । वास्तव में हमारी दृष्टि में भी शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य यही है कि हम सब एक दूसरे को अपने परिवार का सदस्य समझें और स्वभावत: एक दूसरे के प्रति ऐसा ही बरतना आरम्भ करें।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सबसे बड़ा दोष यह है कि वह हमारे बच्चों के व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक नहीं है। शिष्टाचार एवं नैतिकता किसे कहा जाता है यह कभी सिखाया ही नहीं जाता बल्कि गणित, विज्ञान, अंग्रेजी आदि विषयों पर जोर दिया जाता है, जिससे बच्चे पढ़ना तो सीख रहे हैं, लेकिन संस्कार, नैतिकता व शिष्टाचार किसे कहते हैं ? – उससे अनभिज्ञ हैं। हमारे स्कूलों में बच्चों के व्यक्तित्व का विकास उन्हें सामाजिक वातावरण में रखते हुए करना चाहिए।
डॉ केपी शर्मा , प्रधानाचार्य किंग जॉर्ज रॉयल , कहते हैं कि अनैतिकता ही अशिष्टता का कारण है। अनैतिकता को समाप्त करने के लिए हमें बच्चों को उसी प्रकार से शिक्षित करने की जरूरत है। संस्कार होंगे तो बच्चों में नैतिकता व शिष्टाचार भी आएंगे। हम अगर बच्चों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ इस प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था करें जिसमें बच्चों में नैतिकता व शिष्टाचार को बढ़ावा मिले तो जल्द ही यह बातें सुनने को नहीं मिलेंगी कि आज की पीढ़ी में अनैतिकता व अशिष्टता है। जब हम उन्हें ज्ञान ही नहीं देंगे तो उनसे शिष्टाचार की आस कैसे लगाएं।
बच्चों में अनैतिकता का एक कारण यह भी है कि आज हर परिवार में बच्चों के माता – पिता दोनों अभिभावक नौकरी करते हैं। बच्चा अकेला घर पर रह रहा है , जिस साथ की उसे जरूरत है वह नहीं मिल पा रहा है। इससे वह खाली समय में टेलीविजन देख रहा है , उसे बड़ों के साथ अच्छा समय बिताने को नहीं मिल पा रहा है। यह कुछ कारण हैं जिससे युवा अनैतिक व अशिष्ट होते जा रहे हैं। इनमें नैतिकता व शिष्टाचार तथा संस्कार लाने के लिए हमें स्वयं को भी सोचना होगा।’
डॉ केपी शर्मा की उपरोक्त बातों में शिक्षा और संस्कार के उचित समन्वय का होना स्पष्टत: स्वीकार किया गया है । आज की शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या ही यह है कि यह शिक्षा संस्कार के साथ समन्वय करके नहीं चल पा रही है । यही कारण है कि देश के प्रबुद्ध वर्ग की ओर से यह मांग लंबे समय से की जा रही है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर समाज में शिक्षा और संस्कार का समन्वय स्थापित करते हुए नई शिक्षा प्रणाली लागू की जाए। सचमुच शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो व्यष्टि से समष्टि निर्माण की बात करती हो और व्यक्ति को कर्तव्यपरायण बनाकर उसे समाज , राष्ट्र और विश्व की गाड़ी का एक महत्वपूर्ण पुर्जा बना दे।

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