क्या है मानव जीवन का उद्देश्य ?
जब-जब धर्म की हानि हुई है तब तक भारत भूमि पर कोई न कोई ऐसा महामानव अवतरित हुआ है जिसने पथभ्रष्ट और धर्मभ्रष्ट मानव समाज को सही रास्ता दिखाया है ।आज समाज में जो परिस्थितियां पुनः निर्मित हो रही हैं उनमें पुनः एक चुनौती की झंकार है, एक ललकार है ,एक पुकार है हमें विश्वास है कि किसी देदीप्यमान नक्षत्र का पुन: आगमन होगा जो विश्व के गगनमंडल पर अपनी पूर्ण आभा से उदित होकर संसार को धर्म के दिव्यालोक से आलोकित कर देगा , जिसकी दिव्य आभा से संसार का तिमिर दूर होगा। अवश्य कोई शमा जलेगी अवश्य कोई ऐसा दीप प्रज्वलित होगा जो अज्ञान अंधकार को मिटा डालेगा। क्यों?
क्योंकि मानव के दो रास्ते हैं श्रेय मार्ग और प्रेय मार्ग । प्रत्येक मानव इस दोराहे पर जब आकर खड़ा होता है जो समझ नहीं पाता कि – ‘क: पंथा ?’
अर्थात कौन सा रास्ता उचित होगा ।उसके सामने एक धर्म का श्रेष्ठ मार्ग है ,जो श्रेय मार्ग है ,तो दूसरा पितरों का वह रास्ता है जिस पर संसार समर में आकर वह दुख भोगते चले गए ।यह प्रेयमार्ग है ।मनुष्य असमंजस में फंस जाता है कि कौन से रास्ते का चयन वह अपने लिए करें ?
महाराज युद्धिष्ठिर यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं -‘महाजनो येन गत:स: पंथा।’ अर्थात महापुरुष जिस रास्ते पर चलते हैं , वास्तव में हम सब के लिए अनुकरणीय मार्ग वही है । जो लोग अपने जीवन में महापुरुषों के अनुगामी होते हैं अर्थात उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का अनुकरण करते हैं उन्हें जीवन में कोई भी परेशानी आकर घेर नहीं पाती।
महापुरुषों का जीवन वेद मार्ग और धर्म मार्ग पर चलने वाला होता है , इसलिए उनके अनुकरण करने में किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करना चाहिए। जैसे कोई विधिवेत्ता कानून में नजीरें खोजता है , वैसे ही एक सन्मार्ग पर चलने की इच्छा रखने वाला सदगृहस्थी या सांसारिक व्यक्ति महापुरुषों के जीवन की नजीर खोजता रहता है किन्हीं भी विषम परिस्थितियों में जैसे उन्होंने आचरण किया हो वैसा ही आचरण करते हुए उनसे निकल जाना उनकी नजीर का अनुपालन करना होता है। यही महाजनों का अर्थात महापुरुषों का दिखाया हुआ रास्ता है।
जब संसार के लोग धर्म भ्रष्ट और पथभ्रष्ट हो जाते हैं तो कोई दिव्य विभूति उनको फिर से मर्यादा के उसी केंद्र से बांधने के लिए जन्म लेती है, जिससे वह दूर चले गए होते हैं । इस दिव्य आत्मा के इस प्रकार आगमन को कुछ लोगों ने अवतारवाद की संज्ञा दी है। जबकि वेद अवतारवाद में विश्वास नहीं करता।
ऐसे महामानव के आने पर मानव का अनार्यपन अर्थात अनाड़ी पन दूर होगा। मानव श्रेष्ठता की ऊंचाइयों को पुनः प्राप्त करेगा। कोई उसे बताएगा कि तू अपनी सात प्रकार की शुभशक्तियों का विकास कर ,उन्हें जगा और अपने लक्ष्य की ओर कदम आगे बढ़ा।
सर्वप्रथम मनुष्य को अपने खान-पान पर ध्यान देते हुए अपनी शारीरिक शक्ति का विकास करना होगा क्योंकि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। मानव की दूसरी शक्ति है जिसे मानसिक शक्ति कहा जा सकता है । मानसिक शक्ति का धनी व्यक्ति ही बौद्धिक संपदा संपन्न होता है। जिसकी संसार में सर्वत्र पूजा होती है । राजा अपने देश के अंदर ही पूजा जाता है किंतु ऐसा बौद्धिक संपदा का धनी व्यक्ति अर्थात विद्वान तो सर्वत्र ही पूजा जाता है ।यह बौद्धिक संपदा मानव की तीसरी शक्ति का नाम है। कहा गया है कि :-
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन । स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
भावार्थ : विद्वान और राजा की कोई तुलना नहीं हो सकती है । क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, जबकि विद्वान जहाँ-जहाँ भी जाता है वह हर जगह सम्मान पाता है ।
शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः । वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा॥
भावार्थ : सैकड़ों में कोई एक शूर-वीर होता है, हजारों में कोई एक विद्वान होता है, दस हजार में कोई एक वक्ता होता है और दानी लाखों में कोई विरला हीं होता है ।
मानव के पास उसकी सांसारिकआवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की शक्ति भी होनी चाहिए। अन्यथा बिन पानी अर्थात बिना धन सब सून वाली बात हो जाएगी , यद्यपि कुछ विद्वानों ने धनबल को कहीं-कहीं दूसरे स्थान पर भी रखा है उनका कहना है कि :-
पहला सुख निरोगी काया।
दूजा सुख घर में हो माया।।
शास्त्रों में मानव उन्नति के जिन चार सोपानों धर्म , अर्थ ,काम और मोक्ष को गिनाया गया है उनमें भी अर्थ का दूसरा स्थान है , किंतु यहां इसकी चर्चा चौथे स्थान पर की जा रही है । धनोपार्जन को हमारे ऋषि यों ने उस सीमा तक ही संचय करने पर बल दिया है जहां तक उचित है । सीमा से अधिक धन संचय को भी पाप मानते हुए उन्होंने इस पर हमारे लिए प्रतिबंध लगाया है । धन संचय के अभाव में भी मानव निष्फल और दुखी होता है किंतु ध्यान रखें कि इस धन संचय अथवा धनोपार्जन के लिए कोई भी गलत कार्य अथवा हथकंडा न अपनाएं।
मानव की पांचवी शक्ति होती है उसका आत्मिक बल मानव की शेष चार शक्तियां यदि न्यून मात्रा में भी है और आत्मिक बल पूर्ण मात्रा में है तो वह मानव कहीं भी निराश नहीं हो सकता । इसलिए आत्मिक बल का विकास करना भी मानव के लिए आवश्यक है जो उसे ईश्वर की उपासना ,आराधना और साधना से प्राप्त होता है ।
आत्मबल के ऐसे धनी व्यक्ति का हृदय निष्पाप हो जाता है । अंतःकरण मलिन नहीं रह पाता निष्काम भाव उस पर हावी हो जाता है।
सकाम भाव से किए गए कर्म से आत्मिक बल गिर जाया करता है इसलिए हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनते हुए उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए , जो हमें पाप कर्म से बचने के लिए प्रेरित करती रहती है । आत्मा कहती है कि हे मानव ! तू मन की चाल मत चल , क्योंकि यह मन तो चोर है , पापी है , चंचल है । मन को मार ।
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिम् विधेम । यजुर्वेद ४0/१६
हे अग्ने अर्थात् स्वप्रकाशज्ञान स्वरूप सब जगत् को प्रकाश करने हारे, देव अर्थात् सकल सुखदाता परमेश्वर आप जिससे, विद्वान् अर्थात् सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके अस्मान् अर्थात् हम लोगों को, राये अर्थात् विज्ञान व राज्यादि ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए, सुपथा अर्थात् अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से, विश्वानि अर्थात् सम्पूर्ण, वयुनानि अर्थात् प्रज्ञान और उत्तम कर्म न अर्थात् प्राप्त कराईये और अस्मत् अर्थात् हमसे जुहुराणम् अर्थात् कुटिलता युक्त एनः अर्थात् पापरूप कर्म को युयोधि अर्थात् दूर कीजिए इस कारण हम लोग ते अर्थात् आप की भूयिष्ठाम् अर्थात् बहुत प्रकार की स्तुतिरूप उक्तिम् अर्थात् नम्रता पूर्वक प्रशंसा विधेम अर्थात् सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें।
वेद के इस मंत्र में भी हम मन की कुटिलता से दूर रहने की प्रार्थना कर रहे हैं। वेद का यह मंत्र भी कह रहा है कि हे मानव तू मन् की मैं को मार और आत्म तत्व को जान । उसे समझ । क्योंकि वही तुझे इस भवसागर से पार लगाएगा जिससे तेरे कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। तथा दिग दिगंत के सारे भेद मिट जाएंगे । दुनिया के सारे झगड़े स्वत: समाप्त हो जाएंगे । समन्वय और तादात्म्य स्थापित हो जाएगा तब संसार में सर्वत्र शांति संतोष सुख और चैन होगा ।केवल आत्मिक चेतना के बल पर।
मानव की छठीशक्ति है सामाजिक शक्ति। इसका विकास करना भी मानव के लिए नितांत आवश्यक है हम सारी वसुधा को ही अपना परिवार मानें , क्योंकि सारी मानव जाति एक ही परम पिता की संतान है। इसलिए हम सब भाई -भाई हैं।
महर्षि दयानंद जी ने इसीलिए कहा कि प्रत्येक सर्वहितकारी नियम के पालने में हम परतंत्र रहें । हम पर यह अनिवार्य प्रतिबंध है कि समाज में हम वही कार्य करेंगे जिससे समाज का भला होगा । सिख धर्म में गुरुओं ने इसी बात को सरबत दा भला कहा है। जबकि बौद्ध धर्म में ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ कहकर इसी बात को महिमामंडित किया गया है।
यद्यपि वैदिक संस्कृति बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की बात न कर सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की बात करती है , जो निश्चय ही बहुजन हिताय बहुजन सुखाय से कहीं अधिक श्रेयस्कर है।
समाज में मानव भले कार्य करते हुए स्वयं को मानव के अधीन ही समझे। तभी मानव की सामाजिक शक्ति उदित होगी और तभी उसका सामाजिक विकास होगा । सातवें नंबर पर मानव को अपनी राजनीतिक शक्ति का विकास करना है । यह शक्ति भी उतनी ही आवश्यक है जितनी कि अन्य शक्ति ।
देश और समाज के उत्थान के लिए राजनीतिक शक्ति का सही दिशा में चलना भी परम आवश्यक है । मानव को राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति के लिए राजधर्म को जानकर उसके प्रति सजग होना होगा। राजा और राजनीतिज्ञों को आपातकाल में ही नहीं सामान्य परिस्थितियों में भी उनके कर्तव्य के प्रति सजग रखने के लिए नागरिकों का राजनीतिक रूप से सजग और जागरूक होना ही उनकी राजनीतिक चेतना शक्ति का विकास होना है । इसके लिए राजा के दरबार में , राजनीति में , विधान मंडलों में हमें अपनी आवाज पहुंचाने के लिए अपनी शक्तियों का विकास करना होगा और अच्छे लोगों को चुनकर विधान मंडलों में या संसद में भेजना होगा।
आज के झू ठे ,पाखंडी, अत्याचारी ,अनाचारी, राजनीतिज्ञों से दूर रहना तथा श्रेष्ठ राजनीतिज्ञों के साथ संबंध विकसित करना देश की सेवा करना है। राजनीतिक शक्ति के विकास में सहयोग प्रदान करना है । इस शक्ति का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए । हम ध्यान रखें हमारी हर शक्ति का उपयोग हमें मानव की मानवता को विकसित करने में करना है ना कि मानवता के विनाश के लिए ।
उपरोक्त सातों प्रकार की शक्तियां मानव को अपने जीवन में आयु पर्यंत विकसित करनी चाहिए। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को सुखद बनाने के लिए उपरोक्त वर्णित सभी संपत्तियां समानुपातिक दृष्टि से मानव के पास रहनी चाहिए अन्यथा मानव जीवन में दुख का सम्मिश्रण हो जाएगा।, इसलिए समय रहते हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए।
मानव जीवन में जहां उपरोक्त सात प्रकार की शक्तियों का महत्वपूर्ण स्थान है वहीं मानव को सात प्रकार की संपत्ति की जीवन में कमी नहीं आनी चाहिए यथा प्रथम है अन्न ,जल , वस्त्र आदि दूसरे धन जो कि पूर्व में भी उल्लिखित किया गया है। तीसरे घर जीवन यापन के लिए आवास की भी आवश्यकता है । जिसे अपने अपने लिए पशु पक्षी भी तैयार करते हैं। चौथे स्थान पर है पुत्र ।पुत्र भी सुसंस्कारित हो ।सुपुत्र जो माता-पिता की भावनाओं , इच्छाओं और आकांक्षाओं, कामनाओ का ध्यान रखने वाला हो। जिसको बताने की आवश्यकता नहीं, अपितु स्वयं ध्यान रखें तो तभी पुत्र कहलाएगा। पुत्र पु व त्र के योग से बनता है । पू का अर्थ है नर्क ।वृद्धावस्था मनुष्य जीवन में साक्षात नरक ही है और त्र का अर्थ है उससे तारने वाला अर्थात पुत्र वही हुआ जो वृद्ध माता-पिता की वृद्धावस्था में सेवा सुश्रुषा करके उन्हें प्रसन्न रखे ।इसके पश्चात पाचवी संपत्ति स्त्री। स्त्री शब्द का अर्थ है जो अपने पति , बच्चों की दुष्ट प्रवृत्तियों का ढिंढोरा नहीं पीटती अर्थात बाहर किसी के समक्ष उन्हें प्रकट नहीं करती है , इसलिए उसे पुरुष की सबसे अच्छी मित्र युधिष्ठिर और यक्ष संवाद में भी बताया गया है।
विद्या को छठी संपत्ति बताया गया है । विद्या वही है जो पदार्थ के अथवा तत्व के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करा दे जैसे चंद्र ग्रहण में सूर्य ग्रहण के विषय में जो हमें वास्तविक खगोलीय घटना को बताए ना कि राहु केतु की गप्प से हमारी तुष्टि करने का अतार्किक प्रयास करे । ऐसी यथार्थ विद्या के हम धनी होने चाहिए।
सातवीं संपत्ति है औषधि यह संपत्ति हमें निरोगिता प्रदान करती है। हमारे आहार ,विहार और आचार- विचार को मर्यादित व संतुलित उत्तम रखने में सहायक होती है।
इस प्रकार मानव जीवन के लिए इन सातों संपत्तियों का होना भी आवश्यक है । इनके अभाव में भी मानव दुख ताप का अनुभव करता है और जीवन उसे बोझिल सा लगने लगता है । हमारा जीवन कर्तव्य वाद की डगर पर चलने वाला हो । अनुसंधान करने वाला हो । स्वयं अपने विषय में खोज करने वाला हो कि मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? कहां जा रहा हूं ? मेरा उद्देश्य क्या है ? मैं क्यों आया हूं ? मुझे मानव जीवन क्यों प्रदान किया गया है ? इन सारे प्रश्नों का सही – सही उत्तर जितना हमारी समझ में आता जाएगा हम उतने ही धर्म के मर्म को समझते चले जाएंगे ।धर्म हमें उतने ही अनुपात में धारण करना प्रारंभ कर देगा । हमारा जीवन श्रेयमार्ग पर आरूढ़ हो जाएगा ।यह है आत्मावलोकन का सुफल।
हम विचार करें कि मैं परमात्मा से किस प्रकार जुड़ा हूं ? उससे मेरा संबंध किस प्रकार का होना चाहिए ? मेरा ‘मैं’ संसार के किस चकाचौंध पूर्ण आकर्षण में होकर रह गया है । इन बिंदुओं पर भी हमें विचार करना चाहिए । जब इन प्रश्नों पर मानव सोचेगा तो उसे अपनी पतन की वर्तमान अवस्था का बोध हो जाएगा । उसे ज्ञात होगा कि तेरे चहूंओर जो एक बंधन का घेरा सा बन गया है वह कितना दुखदाई है ? उसके हृदय की गांठ खुल जाती है और सर्व संशयों का नाश हो जाता है । गीता में कृष्ण जी ने भी यही कहा है –
भिद्यंते हृदय ग्रंथि छिद्यंते सर्व संशया।
क्षियनते चास्म कर्माणि तस्मिन दृष्टि परावरे।।
हृदय की गांठ खुल गई और संशयों का नाश हो गया तो कर्म क्षीण हो गए और इस अवस्था की प्राप्ति हो गई तो उस परमपिता परमेश्वर के दर्शन हो गए। कितनी सुंदर बात है ?
ऐसे व्यक्ति ही दूसरों के लिए प्रेरणा पुंज बना करते हैं। उनके हृदय में करुणा का वास हो जाता है ।
किंतु जो मानव उपरोक्त अवस्था से अछूता रह जाता है वह जीव के शाश्वत दुख जन्म – मरण के चक्कर से छूट नहीं पाता है । इस चक्कर से छूटने के लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है , क्योंकि भौतिक संसार में गुरु हमारा पथ प्रदर्शक बन जाता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
अति सुन्दर विचार प्राप्त हुआ। धन्यवाद आपका धन्यवाद।