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भारतीय संस्कृति

अधिकार से पहले कर्तव्य , अध्याय — 15 , पुलिस के समाज के प्रति कर्तव्य

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पुलिस के समाज के प्रति कर्तव्य

भारत में प्राचीन काल में पुलिस जैसी किसी व्यवस्था के होने के स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं । हाँ , इतना अवश्य है कि उस समय लोक प्रशासन को चलाने के लिए लोग स्वयं ही शासन – प्रशासन की सहायता किया करते थे । जिससे दंड , दंड व्यवस्था और राज्य- व्यवस्था सब सुचारू रूप से चलते रहें । इस काल में इतिहास में दंडधारी शब्द का उल्लेख आता है। भारतवर्ष में पुलिस शासन के विकासक्रम का इतिहास लिखते हुए इसी दंडधारी शब्द या दंडधारी व्यवस्था को आज की पुलिस व्यवस्था के साथ जोड़ने का प्रयास किया गया है । प्राचीन भारत में समाज सेवा के लिए लोग स्वयं अवसर खोजते थे । यह वह काल था जब लोग समाज सेवा और लोकसेवा को अपने जीवन में शान्ति प्राप्ति का एक अच्छा मार्ग समझा करते थे । उस समय कार्य के बदले वेतन लेने की परम्परा नहीं थी । जो भी कार्य किया जाता था वह परोपकार की भावना से प्रेरित होकर और अपना कर्तव्य मानकर किया जाता था । जब वेतन लेने की भी परम्परा न हो तो उस व्यवस्था में किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार की कोई संभावना नहीं होती । भारत ने भ्रष्टाचार मुक्त ऐसी ही लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपने यहाँ विकसित किया ।
प्राचीन भारत में ग्राम स्तर पर ग्रामिक नामक जनसेवी या लोकसेवक व्यक्ति नियुक्त होता था। ग्रामिक नाम का यह व्यक्ति ग्राम स्तर पर पंचायत राज को स्थापित कर उसे सुचारू रूप से चलाता था । इस प्रकार स्थानीय शासन की वह एक महत्वपूर्ण कड़ी था।
इस ग्रामिक की सहायता गांव के वयोवृद्ध लोग किया करते थे। ग्रामिक का चुनाव भी गांव के लोग किया करते थे। ग्रामिकों के ऊपर 5-10 गाँवों की व्यवस्था के लिए “गोप” एवं लगभग एक चौथाई जनपद की व्यवस्था करने के लिए “स्थानिक” नामक अधिकारी होते थे।

मुस्लिम काल में पुलिस व्यवस्था

जब भारत में विदेशी तुर्क और मुगलों का शासन स्थापित हुआ तो उस समय भी भारत की इसी प्राचीन शासन प्रणाली को थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ उन्होंने अपना लिया। उन्होंने अपने सत्ता स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही इस व्यवस्था में परिवर्तन किए। ऐसा नहीं था कि उन्होंने भारत की चली आ रही प्राचीन स्थानीय स्वशासन की प्रणाली को पूर्णतया समाप्त कर दिया हो । कहीं नाम परिवर्तन हुए तो कहीं ग्राम स्तर के लोकसेवकों के अधिकारों में परिवर्तन किया गया । नाम परिवर्तन उन्होंने अपनी भाषा के अनुसार किए और स्थानीय स्वशासन को पूर्ण करने वाले लोगों की नियुक्ति उन्होंने अपने तानाशाही ढंग से की । ऐसे लोगों को उनके द्वारा वहाँ बैठाया गया जो उनके अनुसार गांव के लोगों पर डंडे से शासन कर सकें। तुर्कों और मुगलों की शासन व्यवस्था में लोक सेवा का भाव उनकी इस ‘पुलिस व्यवस्था’ से पूर्णतया विलुप्त हो गया। मुस्लिम शासन में एक बात संतोषजनक रही कि हमारे प्राचीन जनसेवक क्रियाशील बने रहे । इसका एक कारण यह था कि मुस्लिम शासन को स्थाई रूप से हमारे देशभक्त क्रांतिकारी लोगों ने स्थापित नहीं होने दिया। सारा देश उनके विरुद्ध आंदोलित रहा और अपनी संस्कृति , धर्म व सामाजिक परम्पराओं को बनाए रखने के लिए लोग संघर्ष करते रहे । फलस्वरूप हमारी बहुत सी प्राचीन सामाजिक परम्पराएं क्षत-विक्षत होकर भी बहुत बड़े पैमाने पर पूर्ववत काम करती रहीं।
पूरे देश में कभी भी मुस्लिम शासन स्थापित नहीं हो पाया । मुगल काल में भारतीयों का स्वाधीनता आंदोलन कभी दक्षिण में चलता रहा तो कभी देश के दूसरे भागों में उनके विरुद्धआंदोलन होते रहे । यही स्थिति उनके पूर्व के तुर्क शासकों के विरुद्ध बनी रही । तुर्कों और मुगलों के विरुद्ध किए गए ये सारे जन – आंदोलन इस बात का प्रमाण हैं कि भारत अपनी परम्पराओं को बनाए रखना चाहता था । मुसलमानों को अपने शासनकाल में भारत की परम्पराओं को उजाड़ने का अवसर तो मिला , उन्होंने उन्हें चोटिल भी किया ,परंतु पूर्णतया उनका विनाश कर दिया हो- यह नहीं कहा जा सकता। यही कारण रहा कि भारत की शासन की प्राचीन व्यवस्थाएं और शासन-प्रशासन के सहयोग में लगे जनसेवी लोगों का स्वभाव कुल मिलाकर पहले जैसा बना रहा।

अंग्रेजों की पुलिस व्यवस्था

तुर्कों और मुगलों की इसी व्यवस्था में अपने हितों के अनुकूल और भी परिवर्तन करते हुए अंग्रेजों ने इन संस्थाओं के नाम अपनी भाषा में रखे । अंग्रेजों ने जनसेवा के लिए जिस बल का आविष्कार किया उसे उन्होंने पुलिस बल का नाम दिया। यद्यपि यह पुलिस बल भारत के प्राचीन जनसेवी बल या लोकसेवकों की भावनाओं के सर्वथा विपरीत था । जो भारत के लोगों की ग्राम स्तर की समस्याओं का समाधान अपने स्तर पर करते थे और समाज में आतंकवाद , उग्रवाद या और किसी भी प्रकार के ऐसे कार्य को रोकने के लिए देश की शासन व्यवस्था का सहयोग करते थे जिससे समाज की शांति भंग होती हो या सज्जन शक्ति के हित जिससे प्रभावित होते हों । अंग्रेजों की पुलिस व्यवस्था में भारत की प्राचीन व्यवस्था को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया गया । अब पुलिस की कार्यशैली और उसके चरित्र में भी भारी परिवर्तन आ गया।
प्राचीन काल में ग्राम स्तर का व्यक्ति ग्रामीण जहां समाज के असामाजिक लोगों की जानकारी शासन प्रशासन को देकर उन्हें समाप्त कराने में अपने समाज का हित समझता था , वहीं अंग्रेजों के काल तक आते-आते जिस पुलिस बल का आविष्कार किया गया , वह भारत के ग्राम स्तर के ऐसे लोगों को ढूंढने या खोजने लगा जो अंग्रेजों के विरुद्ध काम करता था या अंग्रेजी शासन व्यवस्था को भारत से उखाड़ने की गतिविधियों में संलिप्त होता था । इसके लिए अंग्रेजों की पुलिस व्यवस्था ने ग्राम स्तर पर अपने चौकीदार और पुलिस मुखबिर गोपनीय ढंग से नियुक्त किए । यही कारण है कि पुलिस के चौकीदार और मुखबिर को भारत के देहात में आज तक भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता । क्योंकि चौकीदार और मुखबिरी की अंग्रेजों की व्यवस्था भारत के राष्ट्रवादी और राष्ट्रप्रेमी लोगों का विनाश करने के लिए स्थापित की गई थी । इस प्रकार अंग्रेजों की इस व्यवस्था तक आते-आते हमारे प्राचीन काल के स्थानीय स्वशासन के स्वरूप का सर्वथा रूपांतरण हो गया।
लॉर्ड कार्नवालिस को भारत में वर्तमान पुलिस व्यवस्था का जन्मदाता माना जाता है।
अंग्रेजों के शासन काल में भी हमारे लोगों के भीतर जनसेवा का पुराना भाव बना रहा , परंतु शासन-प्रशासन में बैठे लोग भ्रष्टाचार में आकंठ डूब गए। उनकी कार्यशैली ऐसी हो गई जो जनता का खून चूसने वाली थी । पुलिस विभाग पर इस खून चूसने वाली शासन प्रशासन की अपसंस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा।

भारत की वर्तमान पुलिस व्यवस्था

वर्तमान काल में हमारे देश में पुलिस द्वारा अपराध निरोध सम्बन्धी कार्य की इकाई थाना अथवा पुलिस स्टेशन है। थाने में नियुक्त अधिकारी एवं कर्मचारियों द्वारा इन दायित्वों का पालन होता है। भारत में सन् 1861 के पुलिस ऐक्ट के आधार पर पुलिस शासन प्रत्येक प्रदेश में स्थापित है। इसके अन्तर्गत प्रदेश में महानिरीक्षक की अध्यक्षता में और उपमहानिरीक्षकों के निरीक्षण में जनपदीय पुलिस शासन स्थापित है। प्रत्येक जनपद में सुपरिटेंडेंट पुलिस के संचालन में पुलिस कार्य करती है। सन् 1861 के ऐक्ट के अनुसार जिलाधीश को जनपद के अपराध सम्बन्धी शासन का प्रमुख और उस रूप में जनपदीय पुलिस के कार्यों का निर्देशक माना गया है।,
वर्तमान समय में पुलिस से यह अपेक्षा की जाती है कि वह लोकतंत्र में मिले नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए काम करेगी । मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए प्रत्येक थाने में एक पट्टिका लगवाई गई है । जिस पर देश के जनसाधारण के प्रति एक प्रकार से पुलिस के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है । इस पट्टिका पर निम्नलिखित निर्देश लिखे होते हैं :–
— थाने पर जो पीड़ित आये उसकी रिपोर्ट अवश्य लिखी जायेगी और समुचित धाराओं के अन्तर्गत अभियोग पंजीकृत किया जायेगा, तथा प्रथम सूचना रिपोर्ट की प्रतिलिपि सूचनाकर्ता को निःशुल्क उपलब्ध कराई जायेगी। (पुलिस रेगुलशन पैरा 97/धारा 154 द.प्र.सं.)
— थाने पर लाये गये व्यक्ति के साथ मारपीट अथवा अमानवीय व्यवहार नहीं किया जायेगा। (सर्वोच्च न्यायालय का आदेश)
— यदि किसी व्यक्ति को थाने पर साक्ष्य हेतु बुलाया जाता है तो उचित यात्रा व्यय दिया जायेगा। (धारा 160 (2) द.प्र.सं.)
— गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को गिरफ्तारी का कारण बताया जायेगा तथा अपनी रुचि के विधि व्यवहार से परामर्श लेने और प्रतिरक्षा के अधिकार से वंचित नहीं रखा जायेगा। (धारा 50 (1) द.प्र.सं.)
— गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर न्यायालय में पेश किया जायेगा। (धारा 57 द.प्र.सं.)
— गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को जब निरूद्ध किया जायेगा तो उसे नियमानुसार भोजन आदि की सुविधा उपलब्ध कराई जायेगी।(पुलिस रेगुलेशन )
— निरूद्ध किये गये व्यक्ति को,विचाराधीन बन्दी को न्यायालय में पेश करते समय व कारागार ले जाते समय अथवा एक कारागार से दूसरे कारागार में स्थानान्तरण पर ले जाते समय हथकड़ी नहीं लगायी जायेगी जब तक कि सम्बन्धित न्यायालय से हथकड़ी लगाए जाने की अनुमति प्राप्त न कर ली जाये। (सर्वोच्च न्यायालय के आदेश)
— पुलिस रिमाण्ड में लिये गये व्यक्ति का प्रत्येक 48 घंटे में चिकित्सा परीक्षण अवश्य कराया जायेगा। (सर्वोच्च न्यायालय का आदेश)
— गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को, यदि गिरफ्तारी के दौरान हल्की या गहरी चोटें आती हैं तो ऐसे व्यक्ति का चिकित्सा परीक्षण कराया जायेगा और परीक्षण मेमो तैयार कराया जायेगा जिस पर अभियुक्त तथा पुलिस कर्मी के हस्ताक्षर होंगे। (सर्वोच्च न्यायालय का आदेश)
— प्रत्येक व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के बाद अपने परिचित को/यदि स्थानीय टेलीफोन की सुविधा उपलब्ध है तो टेलीफोन कराकर और टेलीफोन उपलब्ध न होने पर उसकी गिरफ्तारी की सूचना लिखित पत्र द्वारा दी जायेगी। (सर्वोच्च न्यायालय का आदेश)
— यदि पुलिस अभिरक्षा में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसकी सूचना तत्काल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को प्रेषित की जायेगी। (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का निर्देश)
— यदि किसी अपराधी से कोई बरामदगी की जाती है तो उसकी रसीद अवश्य दी जायेगी तथा कुर्क किये गये माल की उचित सुरक्षा भी की जायेगी। (धारा 51 द.प्र.सं.)
— यदि किसी व्यक्ति ने ऐसा अपराध कारित किया है जो जमानतीय है तो थाने पर उसकी जमानत, यदि कोई अन्यथा कारण न हो, ली जायेगी। (धारा 436 द.प्र.सं.)
— पुलिस कर्मियों द्वारा किसी भी व्यक्ति से पूछताछ करते समय अपनी वर्दी पर नाम, पट्टी (नाम प्लेट) धारण करना आवश्यक होगा। (सर्वोच्च न्यायालय का आदेश)
— किसी भी महिला को थाने पर अकारण नहीं रोका जायेगा। (पुलिस रेगुलेशन)।
— थाने पर पूछताछ के दौरान आने वाली समस्त महिलाओं से अभद्र/अश्लील भाषा का प्रयोग नहीं किया जायेगा और न उनसे कोई अश्लील/अभद्र प्रश्न पूछा जायेगा । विशेष रूप से बलात्कार की शिकार महिला के साथ जो पहले से मानसिक एवं शारीरिक वेदना से पीड़ित होती है, के साथ उच्च कोटि की संवेदनशीलता का परिचय दिया जायेगा और जहाँ तक सम्भव हो उसकी रिपोर्ट महिला पुलिस द्वारा लिखी जायेगी और यदि ऐसा सम्भव न हो तो कम से कम महिला आरक्षी की उपस्थिति अवश्य सुनिश्चित की जायेगी। (सर्वोच्च न्यायालय का आदेश)
— बलात्कार से पीड़ित महिला का बयान उसके किसी निकट सम्बन्धी की उपस्थिति में लिया जायेगा एवं चिकित्सकीय परीक्षण के लिए भेजते समय भी उसके किसी पुरूष सम्बन्धी की उपस्थिति सुनिश्चित की जाये यह सम्भव न हो तो महिला पुलिस कर्मी के साथ भेजा जाये।
— शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के अधिकारों का संरक्षण सुनिश्चित किया जायेगा। (अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान)
— श्रमिकों की समस्याओं, विशेषकर उनकी महिलाओं को संवेदनशीलता के साथ सुना जायेगा एवं उनका निराकरण किया जायेगा। (पुलिस रेगुलेशन)
— यह हमेशा ध्यान रहे कि पुलिस मानवाधिकारों की संरक्षक तथा जनता की सेवा हेतु है।
सभी पुलिस थानों में मानवाधिकार सम्बन्धी ये आदेश जनता की सूचना हेतु उपलब्ध होना चाहिये तथा थानों के सभी पुलिस कर्मियों को समय-समय पर पढ़कर अधिकारियों द्वारा सुनाये जाने चाहिए।

पुलिस की कार्यशैली

पुलिस थानों में मानवाधिकार सम्बन्धी उपरोक्त सूचना तो उपलब्ध होती है जिससे ऐसा आभास होता है कि पुलिस इन सूचनाओं को अपने लिए कर्तव्य परायणता का पाठ समझकर उनके अनुसार ही आचरण करती होगी। किंतु व्यवहार में ऐसा नहीं है।
व्यवहार में तो पुलिस की कार्यशैली अंग्रेजों के शासनकाल जैसी ही आज भी है। यह बहुत ही दु:ख का विषय है कि पुलिस देश के लोगों के साथ तानाशाही वाला व्यवहार करती है । यद्यपि वह अपने आप को जनता की सेवक कहती है। परन्तु व्यवहार में कुछ इसके विपरीत ही देखने में आता है। थानों के सामने से शान्ति प्रिय लोगों को आज भी निकलने में डर सा लगता है । इसका कारण केवल एक ही है कि पुलिस शान्तिप्रिय लोगों के साथ कई बार अपमानजनक व्यवहार करती देखी जाती है। जबकि दुर्जनों को वह ‘स्वजन’ मानती हुई दिखाई देती है।
देश के दूरदराज के देहाती क्षेत्र में पुलिसकर्मी आज भी उसी हैकड़ी के साथ से प्रवेश करते हैं जिस हैकड़ी के साथ कभी अंग्रेजी शासनकाल में प्रवेश किया करते थे। जिस देश के ग्रामीण आँचल में आज भी अधिकांश लोगों को यह पता नहीं है कि पुलिस का दरोगा बड़ा होता है या जिले का कलेक्टर बड़ा होता है , उसमें यदि पुलिस आज भी लोगों के साथ उत्पीड़नात्मक कार्यशैली अपनाती है तो यह बहुत ही चिंता का विषय है। ऐसे में पुलिस का यह विशेष कर्तव्य है कि वह देश के जनसाधारण को अपनी कार्यशैली में परिवर्तन कर यह विश्वास दिलाए कि वह वास्तव में ही उनकी सेवा को अपना सौभाग्य मानती है।
कितने ही स्थानों पर ऐसा देखा गया है कि जहाँ पुलिस विभाग में तैनात कर्मचारी या अधिकारी अपराध को बढ़ाने और अपराधी को प्रोत्साहित करने में संलिप्त मिले हैं । यहां तक कि कई डकैतियों , हत्याओं व बलात्कारों में भी पुलिसकर्मी सीधे संलिप्त मिले हैं। अंग्रेजों के शासन काल में पुलिस की ऐसी बर्बरता को उसका एक अच्छा गुण माना जाता था । क्योंकि पुलिस उस समय ऐसा उन भारतीयों के साथ करती थी जो अंग्रेजों के शासन का यहाँ विरोध करते थे , परंतु आज जब भारत स्वतंत्र है तो पुलिस का कर्तव्य है कि वह अपनी इस प्रकार की छवि को बदले और जो लोग ऐसे अपराधों में पुलिस वर्दी में रहते हुए संलिप्त मिलते हैं उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करे । पूरे पुलिस विभाग का संस्कार परिवर्तन करने के लिए नए लोगों के प्रशिक्षण के लिए कुछ नई कार्यशैली को विकसित किया जाए । जिससे उनमें सेवा का संस्कार जन्म ले सके।

पुलिस अपने को जनता की रक्षक बनाए

ऐसा भी देखा जाता है कि जो व्यक्ति न्याय के लिए पुलिस का दरवाजा खटखटाता है पुलिस के लोग उसी को अपराधी मानकर केस में फंसा देते हैं।
इस प्रकार पुलिस नागरिकों के अधिकारों की रक्षक न होकर उनकी भक्षक बन जाती है। पुलिस को अपनी इस प्रकार की प्रवृत्ति में परिवर्तन करना चाहिए। साथ ही उसका यह भी कर्तव्य है कि वह राजनीतिज्ञों या अपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को संरक्षण देती हुई दिखाई ना दे बल्कि उनके प्रति भी वैसे ही निपटे जैसे वह अन्य लोगों के साथ निपटती है। वास्तव में पुलिस पर राजनीतिज्ञ और अपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपना शिकंजा कसे रखना चाहते हैं । वह इस विभाग को अपने लिए प्रयोग करना चाहते हैं । उनकी प्रवृत्ति अंग्रेजों वाली है । ऐसे में पुलिस का कर्तव्य है कि वह अपने आपको इस प्रकार दिखाए कि वह किसी भी अपराधी की सगी नहीं है । उसका विश्वास कानून का पालन करने और कानून का पालन कराने में है । इसके अतिरिक्त उसके समक्ष जो भी कोई आएगा उससे वह कानून के अनुसार ही निपटेगी। हर स्थिति में उसका उद्देश्य यह होना चाहिए कि जनता के मन में यह विश्वास पैदा हो कि पुलिस हमारी रक्षक है भक्षक नहीं।
पुलिस के अत्याचारों की शिकार महिलाएं तो होती ही हैं बच्चे और बूढ़े भी होते हैं । जिससे इन सबके मन में पुलिस के प्रति आतंक का भाव बना रहता है। जब पुलिस के लोग बलात्कार जैसे अमानवीय कार्यों में सम्मिलित मिलते हैं तो वर्दी तो लज्जित होती ही है , मानवता भी लज्जित हो जाती है। इसके अतिरिक्त देश में होने वाले बड़े बड़े काले धंधे , जुए बाजी के खेल , कच्ची शराब तोड़ने का धंधा , यहाँ तक कि वेश्यावृत्ति कराने और ट्रक वालों या गाड़ी वालों से अवैध वसूली करने में भी पुलिस के लोग कितनी ही बार संलिप्त मिलते हैं। ये सारे कार्य पुलिस की वर्दी की शान घटाते हैं , इसलिए पुलिस का कर्तव्य है कि वह अपनी छवि में परिवर्तन लाने के लिए विशेष प्रयास करे । उसका यह भी कर्तव्य है कि वह अपने आपको चोरों , बदमाशों और अपराधियों की शत्रु और जनसाधारण की मित्र के रूप में प्रस्तुत करे । उसे अपनी इस प्रकार की प्रवृत्ति से बचना चाहिए कि वह जनसाधारण के भले लोगों को जेलों में डालकर अपराधियों का कोटा पूरा कर देना चाहती है । यह सच है कि जिस दिन पुलिस अपने आचरण , व्यवहार व कार्यशैली में सुधार की प्रवृत्ति अपनाकर अपने कर्तव्यों पर ध्यान देने लगेगी उस दिन देश में हो रहे अपराधों में अप्रत्याशित रूप से गिरावट आनी आरम्भ हो जाएगी। उसे अपने आपको सरकार की नौकर न दिखाकर कानून की नौकर के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
सच तो यह है कि पुलिस कर्मचारियों को प्रशिक्षण में दिए जाने वाले तटस्थता, निष्पक्षता, जवाबदेही , गरिमा, मानवीय अधिकार, संविधान से प्रतिबद्धता संबंधी नियम कानून के प्रति पुलिस को सदा ही प्रतिबंध रहना चाहिए । इन गुणों को आत्मसात करना चाहिए । इन्हीं के अनुसार अपनी जीवन शैली , कार्यशैली और आचरण को बनाकर जनता में अपने प्रति विश्वास बढ़ाना चाहिए। पुलिस को स्वयंसेवी लोगों की सहायता लेनी चाहिए । उनके माध्यम से अपना संदेश जनसामान्य तक पहुंचाना चाहिए और यदि दिखाना चाहिए कि हम स्वयं भी जनसेवा में विश्वास रखते हैं। पुलिस को ऐसी स्थिति पैदा करनी चाहिए कि जनसामान्य थाने में अपनी समस्या लेकर निसंकोच पहुंच सके , अपना दुख दर्द कह सके और पीड़ित व्यक्ति के विरुद्ध पुलिस से कार्यवाही भी करा सके । पुलिस विभाग में तैनात कर्मचारियों को लोग अपने बीच का एक ऐसा सेवक समझें जो उनकी सहायता और सुविधा के लिए नियुक्त किया गया है। उनके भीतर ऐसा भरोसा होना चाहिए यदि हम इन सेवकों को अपनी कोई भी समस्या सुनाएंगे तो उसका समाधान हमें निश्चित रूप से मिलेगा।
पुलिस को जनता में अपने प्रति यह विश्वास भी स्थापित करना चाहिए कि वह किसी भी बड़े से बड़े राजनीतिज्ञ , अधिकारी , नौकरशाह या आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति के साथ न होकर जनसाधारण के साथ है । पुलिस को अपनी वर्दी का सम्मान रखने के लिए अपने आपको किसी भी प्रकार के प्रभाव से मुक्त दिखाने के लिए अपनी कार्य शैली में पतिवर्तन करना चाहिए । उसे दिखाना चाहिए कि वह अपनी वर्दी को किसी प्रकार के भ्रष्टाचार में नीलाम नहीं होने देगी और न ही किसी प्रकार के अपराध में सम्मिलित होकर या किसी अपराधी को संरक्षण देकर या किसी मंत्री , विधायक ,सांसद आदि के प्रभाव में आकर उसे लज्जित होने देगी।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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