भारत में गणित का इतिहास, भाग 3
सुमित पांडे
कालक्युलस का आविर्भाव
चंद्र ग्रहण का एक सटीक मानचित्रा विकसित करने के दौरान आर्यभट्ट को इनफाइनाटसिमल की परिकल्पना प्रस्तुत करना पड़ी, अर्थात् चंद्रमा की अति सूक्ष्म कालीन या लगभग तात्कालिक गति को समझने के लिए असीमित रूप से सूक्ष्म संख्याओं की परिकल्पना करके उसने उसे एक मौलिक डिफरेेेंशल समीकरण के रूप में प्रस्तुत किया। आर्यभट के समीकरणों की 10 वीं सदी में मंजुला ने और 12 वीं सदी में भास्कराचार्य ने विस्तार पूर्वक व्याख्या की। भास्कराचार्य ने ज्या फलन के डिफरेंशल का मान निकाला। परवर्ती गणितज्ञों ने इंटिग्रेशन की अपनी विलक्षण समझ का उपयोग करके वक्र तलों के क्षेत्राफल और वक्र तलां द्वारा घिरे आयतन का मान निकाला।
व्यावहारिक गणित, व्यावहारिक प्रश्नों के हल
इस काल में व्यावहारिक गणित में भी विकास हुआ – त्रिकोणमितीय सारिणी और माप की इकाइयां बनाई गईं। यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति 6 वीं सदी में तैयार हुई जिसमें समय और दूरी की माप के लिए विभिन्न इकाइयां दीं गईं हैं और असीमित समय की माप की प्रणाली भी बताई गई है।
9 वीं सदी में मैसूर के महावीराचार्य ने ’’गणित सार संग्रह’’ लिखा जिसमें उन्होंने लघुत्तम समापवत्र्य निकालने के प्रचलित तरीके का वर्णन किया है। उन्होंने दीर्घवृत्त के अंदर निर्मित चतुर्भुज का क्षेत्राफल निकालने का सूत्रा भी निकाला /इस पर ब्रह्मगुप्त ने भी काम किया था।/ इनडिटर्मिनेट समीकरणों का हल निकालने की समस्या पर भी 9 वीं सदी में काफी रुचि दिखलाई दी। कई गणितज्ञों ने विभिन्न प्रकार के इंडिटर्मिनेट समीकरणों का हल निकालने और निकटतम मान निकालने के बारे में योगदान दिया।
9 वीं सदी के उत्तरार्ध में श्रीधर ने जो संभवतया बंगाल के थे, नाना प्रकार के व्यवहारिक प्रश्नों जैसे अनुपात, विनिमय, साधारण ब्याज, मिश्रण, क्रय और विक्रय, गति की दर, वेतन और हौज भरना इत्यादि के लिए गणितीय सूत्रा प्रदान किए। कुछ उदाहरणों में तो उनके हल काफी जटिल थे। उनका पाटीगणित एक विकसित गणितीय कृति के रूप में स्वीकृत है। इस पुस्तक के कुछ खंड में अंकगणितीय और ज्यामितीय श्रेढ़ियों का वर्णन है जिसमें भिन्नात्मक संख्याओं या पदों की श्रेणियां भी शामिल हैं तथा कुछ सीमित श्रेढ़ियांे के योग के सूत्रा भी हैं। गणितीय अनुसंधान की यह श्रंखला 10 वीं सदी में बनारस के विजय नंदी तक चली आई जिनकी कृति ’’करणतिलक’’ का अलबरूनी ने अरबी में अनुवाद किया था। महाराष्ट्र् के श्रीपति भी इस सदी के प्रमुख गणितज्ञों में से एक थे।
भास्कराचार्य 12 वीं सदी के भारतीय गणित के पथ प्रदर्शक थे जो गणितज्ञों की एक लम्बी परंपरा के उत्तराधिकारी थे और उज्जैन स्थित वेधशाला के मुखिया थे। उन्होंने लीलावती और बीजगणित जैसी गणित की पुस्तकों की रचना की तथा ’’सिद्धांत शिरोमणि’’ नामक ज्योतिषशास्त्रा की पुस्तक लिखी। सर्व प्रथम उन्होंने ही इस तथ्य की पहचान की कि कुछ द्विघात समीकरणों की ऐसी श्रेणी भी हंै जिनके दो हल संभव हैं। इनडिटर्मिनेट समीकरणों को हल करने के लिए उनकी चक्रवात विधि यूरोपीय विधियों से कई सदियों आगे थीं। अपने सिद्धांत शिरामणि में उन्होंने परिकल्पित किया कि पृथ्वी में गुरूत्वाकर्षण बल है। उन्होंने इनफाइनाइटसिमल गणनाओं और इंटीग्रेशन के क्षेत्रा में विवेचना की। इस पुस्तक के दूसरे भाग में गोलक और उसके गुणों के अध्ययन तथा भूगोल में उनके उपयोग, ग्रहीय औसत गतियां, ग्रहों के उत्केंद्रीय अधिचक्र नमूना, ग्रहों का प्रथम दर्शन, मौसम, चंद्रकला आदि विषयों पर कई अध्याय हैं। उन्हांेने ज्योतिषीय यंत्रों और गोलकीय त्रिकोणमिति की भी विवेचना की है।
भारतीय गणित का प्रसार
ऐसा लगता है कि इस्लामी हमलों की तीव्रता के बाद, जब महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों का स्थान मदरसों ने ले लिया तब गणित के अध्ययन की गति मंद पड़ गई। लेकिन यही समय था जब भारतीय गणित की पुस्तकें भारी संख्या में अरबी और फारसी भाषाओं में अनूदित हुईं। यद्यपि अरब विद्वान बेबीलोनीय, सीरियाई, ग्रीक और कुछ चीनी पुस्तकों सहित विविध स्त्रोतों पर निर्भर करते थे परंतु भारतीय गणित की पुस्तकों का योगदान विशेषरूप से महत्वपूर्ण था। 8 वीं सदी में बगदाद के इब्न तारिक और अल फजरी, 9 वीं सदी में बसरा के अल किंदी, 9 वीं सदी में ही खीवा के अल ख्वारिज्.मी, 9 वीं सदी में मगरिब के अल कायारवानी जो ’’किताबफी अल हिसाब अल हिंदी’’ के लेखक थे, 10 वीं सदी में दमिश्क के अल उक्लिदिसी जिन्होंने ’’भारतीय गणित के अध्याय’’ लिखी, इब्न सिना, 11 वीं सदी में ग्रेनेडा, स्पेन के इब्न अल सम्ह, 11 वीं सदी में खुरासान, फारस के अल नसावी, 11 वीं सदी में खीवा में जन्मे अल बरूनी जिनका देहांत अफगानिस्तान में हुआ, तेहरान के अल राजी, 11 वीं सदी में कोर्डोवा के इब्न अल सफ्फर ये कुछ नाम हैं जिनकी वैज्ञानिक पुस्तकों का आधार अनूदित भारतीय ग्रंथ थे। कई प्रमाणों, अवधारणाओं और सूत्रों के भारतीय स्त्रोत् के होने के अभिलेख परवर्ती सदियों में धूमिल पड़ गए लेकिन भारतीय गणित की शानदार अतिशय देन को कई मशहूर अरबी और फारसी विद्वानों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है, विशेष रूप से स्पेन में। अब्बासी विद्वान अल गहेथ ने लिखाः ’’भारत ज्ञान, विचार और अनुभूतियों का स्त्रोत है।’’ 956 ई में अल मौदूदी ने जिसने पश्चिमी भारत का भ्रमण किया था, भारतीय विज्ञान की महत्ता के बारे में लिखा था। सईद अल अंदलूसी, 11 वीं सदी का स्पेन का विद्वान और दरबारी इतिहासकार, भारतीय सभ्यता की जमकर तारीफ करने वालों में से एक था और उसने विज्ञान और गणित में भारत की उपलब्धियों पर विशेष टिप्पणी की थी। अंततः भारतीय बीजगणित और त्रिकोणमिति अनुवाद के एक चक्र से गुजरकर अरब दुनिया से स्पेन और सिसली पहुंची और वहां से सारे यूरोप में प्रविष्ट हुई। उसी समय ग्रीस और मिश्र की वैज्ञानिक कृतियों के अरबी और फारसी अनुवाद भारत में सुगमता से उपलब्ध हो गये।
केरल के स्कूल
यद्यपि ऐसा लगता है कि इस्लामी फतह के बाद उत्तरी भारत के अधिकांश भागों मेें गणित में मौलिक कार्य रुक गये, बनारस गणित अध्ययन केंद्र के रूप में बचा रहा और केरल में गणित का एक महत्वपूर्ण स्कूल पल्लवित हुआ। 14 वीं सदी में कोच्चि में माधव ने गणित में महत्वपूर्ण अनुसंधान किए जिसे यूरोपीय गणितज्ञ कम से कम दो सदियों बाद ही जान पाये। उनके ज्या और कोज्या फलन के श्रेढी विस्तारण को जानने में न्यूटन को इसके बाद 300 वर्ष और लगे थे। गणित के इतिहासकार राजगोपाल, रंगाचारी और जोसेफ का मानना है कि गणित में उनकी देन इसे अगले सोपान पर – आधुनिक शास्त्राीय विश्लेषण पर – ले जाने में बहुत सहायक थी। 15 वीं सदी में तिरूर, केरल के नीलकंठ ने माधव द्वारा प्राप्त परिणामों को विस्तृत किया और व्याख्या की। 16 वीं सदी में केरल के ज्येष्ठदेव ने माधव और नीलकंठ की कृतियों में शामिल प्रमेयों के विस्तृत प्रमाण और नियमों के डेरिवेशन्स दिये। यह भी ध्यान देने योग्य है कि ज्येष्ठदेव की पुस्तक ’’युक्तिभास’’ में नीलकंठ की पुस्तक ’’तंत्रा संग्रह’’ पर टिप्पणियां तो हैं ही इसके अलावा उसमें ग्रहीय सिद्धांत की भी व्याख्या है जिसे टाइको व्राहे ने बहुत बाद में अपनाया; इसके अलावा परवर्ती यूरोपीय विद्वानों द्वारा कल्पित गणित की भी उन्होंने पूर्व में व्याख्या की थी। चित्राभानु, 16 वीं सदी, केरल ने परिणाम हासिल करने के लिए बीजगणितीय और ज्यामितीय दोनों रीतियों का प्रयोग किया और इसके द्वारा दो बीजगणितीय समीकरणों की 21 प्रकार की प्रणालियों के राशि हल दिए। केरल के गणितज्ञों द्वारा किए गए महत्वपूर्ण अनुसंधानों में न्यूटन-गाॅस का प्रक्षेप सूत्रा, एक असीम श्रेणी के योगफल का सूत्रा और पाइ का मान एक श्रेढ़ी के रूप में भी शामिल हैं। चाल्र्स व्हिश 1835 में ’’ट्र्ांसैक्शन्स आफ दी राॅयल एशियाटिक सोसायटी आॅफ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैंड’’ मेें प्रकाशित उन प्रथम पश्चिमी विद्वानों में से एक थे जिन्होंने इस तथ्य को स्वीकार किया कि इस क्षेत्रा में हुए यूरोपीय विकास को केरल स्कूल ने 300 वर्ष पहले ही कल्पित कर लिया था।
फिर भी गणित के इतिहास पर तैयार बहुत कम संक्षिप्त सारों ने भारतीय गणित के बहुधा मार्ग दर्शक और क्रांतिकारी अवदानों पर समुचित ध्यान दिया गया। लेकिन यह लेख यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि भारतीय उपमहाद्वीप में गणितीय गवेषणा का महत्वपूर्ण भाग उत्पन्न हुआ। गणित विज्ञान न केवल औद्योगिक का्रंति का बल्कि परवर्ती काल में हुईं वैज्ञानिक उन्नति का भी केंद्र बिन्दु रहा है। बिना गणित के विज्ञान की कोई भी शाखा पूर्ण नहीं हो सकती। भारत ने औद्योगिक क्रांति के लिए न केवल आर्थिक पंूजी प्रदान की /देखें उपनिवेशीकरण पर लेख/ वरन् विज्ञान की नींव के जीवंत तत्व भी प्रदान किये जिसके बिना मानवता विज्ञान और उच्च तकनीकी के इस आधुनिक दौर में प्रवेश नहीं कर पाती।
टिप्पणियांः
गणित और संगीतः पिंगल ने 300 सदी में चंदसूत्रा नामक गं्रथ की रचना की थी। उनने काम्बीनेटरीज और संगीत सिद्धांत के परस्पर संबंध की परीक्षा की जो मर्सिन, 1588-1648, द्वारा संगीत सिद्धांत पर रचित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का अग्रदूत है।
गणित और वास्तुशिल्पः अंकगणितीय और ज्यामितीय श्रेणियों में रुचि उत्पन्न होने का कारण भारतीय वास्तु के डिजाइन जैसे मंदिर शिखर, गोपुरम और मंदिरों की भीतरी छत की टेक हैं। वास्तव में ज्यामिति और वास्तु साजसज्जा का परस्पर संबंध उच्चतम स्तर पर विकसित हुआ था मुस्लिम शासकों द्वारा पोषित विभिन्न स्मारकों के निर्माण में जो मध्य एशिया, फारस, तुर्की, अरब और भारत के वास्तुशिल्पियों द्वारा निर्मित किये गए थे।
भारतीय अंक प्रणाली का प्रसारः भारतीय अंक प्रणाली के पश्चिम में प्रसार के प्रमाण ’’क्रेस्ट आॅफ पीकाॅक’’ के लेखक जोसेफ द्वारा इस प्रकार दिये गए हैंः-
सेबेरस सिबोख्त, 662 ई. ने एक सीरियाई पुस्तक में भारतीय ज्योतिर्विदों के ’’गूढ़ अनुसंधानों’’ का वर्णन करते हुए उन्हें ’’यूनानी और बेबीलानियन ज्योतिर्विदों की अपेक्षा अधिक प्रवीण’’ और ’’संगणना के उनके बहुमूल्य तरीकों को वर्णनातीत’’ बताया है और उसके बाद उसने उनकी नौ अंकों की प्रणाली के प्रयोग की चर्चा की है।
फिबोनाक्सी, 1170-1250, की पुस्तक ’’लिबर एबासी’’, एबाकस की पुस्तक, से उद्धतः नौ भारतीय अंक ….. हैं। इन नौ अंकों तथा 0 जिसे अरबी में सिफर कहते हैं से कोई भी अभीष्ट संख्या लिखी जा सकती है। /फिबोनाक्सी ने भारतीय अंकों के बारे में ज्ञान, उत्तरी अफ्रीका के अपने अरब अध्यापकों से प्राप्त किया था।
केरल स्कूल का प्रभावः ’’के्रस्ट आॅफ पीकाॅक’’ के लेखक जोसेफ कहते हैं कि गणित की भारतीय पांडुलिपियां यूरोप में संभवतया जेसुइट पादरियांे द्वारा लाई गई जैसे कि मात्तिओ रिक्सी जिसने 1580 में चर्च द्वारा निर्देश प्राप्त होने के बाद गोआ से कोचीन जाकर वहां दो साल बिताये। कोचीन त्रिचूर से केवल 70 किमी दूर स्थित है। त्रिचूर उस समय ज्योतिर्विद्या के अभिलेखों का सबसे बड़ा संग्रहालय था। व्हिश और हाइन, दो यूरोपीय गणितज्ञों ने त्रिचूर के केरलीय गणितज्ञों की कृतियों की नकल प्राप्त की थी और यह बड़ा स्वाभाविक लगता है कि जेसुइट पादरियों ने इन कृतियों की नकल पीसा या पदाउ या पेरिस में पहुंचाई। पीसा में गैलिलियो, कैवेलियरी और वालिस, पदाउ में जेम्स ग्रेगरी और पेरिस में मरसेन जो फरमैट और पास्कल के संपर्क में थे, इन गणितीय अवधारणाओं के प्रसार के अभिकर्ता बने।
संदर्भः-
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सुल्ब का विज्ञान – बी. दत्त, कलकत्ता, 1932।
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