अधिकार से पहले कर्तव्य , अध्याय — 13 , समाज के प्रति हमारे कर्तव्य

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समाज के प्रति हमारे कर्तव्य

वेद सामाजिक संगठन की बात करता है । इस प्रकार संसार को समाज , सामाजिक संगठन या सामाजिक संस्थाएं देने का चिन्तन व दर्शन सर्वप्रथम वेदों ने दिया । यही कारण है कि वैदिक संस्कृति में आस्था रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति के भीतर समाज , सामाजिक संगठन और समाज सेवा के प्रति विशेष भाव होता है । समाज के साथ चलना , समाज की सेवा करना और सामाजिक संगठनों के माध्यम से समाज को सशक्त बनाने का भाव संसार में किन्हीं लोगों के भीतर मिलता है तो वे वैदिक सनातन धर्म के लोग ही हैं ।

सबकी चाल एक जैसी हो

वैदिक संस्कृति का चिंतन है कि सामाजिक शान्ति , सामाजिक समरसता और सामाजिक उन्नति — ये तीन ऐसे सोपान हैं , जिनके प्रति समर्पण का भाव रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। जो व्यक्ति सामाजिक शान्ति , सामाजिक समरसता और सामाजिक उन्नति के इन तीनों सोपानों में किसी भी प्रकार से व्यवधान उत्पन्न करता है , उसको समाज का सामूहिक शत्रु मानकर उसका विनाश करना भी मानव का कर्तव्य है। कवि की यह पंक्तियां बड़ी सार्थक हैं :–

“छीनता हो सत्व कोई तू त्याग,
तप से काम ले ये पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना,
बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है।।’’

यही कारण रहा कि वेद भगवान ने मानव जाति को सृष्टि के प्रारंभ में यह उपदेश दिया कि ‘संगच्छध्वं’ मिलकर चलो। ‘संवध्वम्‌’ मिलकर बोलो। जहां बोलने की अनिवार्य आवश्यकता हो , वहां पर बोलो , अपनी आवाज उठाओ और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करो । अभिप्राय है कि एक आवाज पर हम देश व समाज के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने तक को उद्यत हो जाएं ।
भारत की आजादी के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सुभाषचन्द्र बोस ने अपना वेश बदलकर काबुली वेश बनाकर कांधार और काबुल के रास्ते जापान पहुंचे और वहां के रेडियो स्टेशन से अपनी आवाज बुलंद करते हुए उद्‌घोषणा की थी कि–
”मेरे प्यारे भारत वासियो! मैं तुम्हारा भाई सुभाष बोल रहा हूं। यह मत समझना कि मैं तुमसे दूर हूं बल्कि मैं तुम्हारे ,निकट ही हूँ। भारत मां आज गुलामी की जंजीरों में कैद है, इसे मुक्त करना आज हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। इसके लिए आवश्यकता है कि ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।।’’
सुभाष चंद्र बोस की इस आवाज ने देशवासियों के खून को खौला दिया था। नेताजी ने सच्चे देशभक्त और नायक की भूमिका में आकर लोगों का आवाहन किया और लोग थे कि उनकी आवाज पर उनके कहे अनुसार देशभक्ति के प्रदर्शन के लिए सहर्ष उठ खड़े हुए । किसी ने भी अपने प्राणों की चिंता नहीं की । सारा देश नेताजीमय हो गया । सब अपने देश व समाज के लिए प्राण न्यौछावर करने के लिए तैयार हो गए।
वेद का सामाजिक चिंतन यही है कि मनुष्य समाज व राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों को समझे । अपने द्वारा कोई भी ऐसा काम ना करे जिससे सामाजिक विसंगतियों को या सामाजिक कुरीतियों को प्रोत्साहन मिले। इसके अतिरिक्त इस बात का भी ध्यान रखे कि सामाजिक संगठन उसके कारण टूटने न पाए । देश की एकता और अखंडता को किसी प्रकार का खतरा पैदा ना हो और राष्ट्रवादी शक्तियों को उसके रहने से मजबूती तो मिले कहीं से भी कमजोरी ना मिलने पाए।
वास्तव में वेद ने सामाजिक संगठन के प्रति व्यक्ति के समर्पण को इसलिए अनिवार्य माना है कि ऐसी व्यवस्था होने से समाज में ‘सुराज और स्वराज्य’ दोनों की रक्षा हो पाना संभव है । एक प्रकार से सज्जन शक्ति का संगठनीकरण हो तो ही समाज वास्तविक उन्नति कर सकता है। ‘सुराज और स्वराज्य’ की स्थापना के लिए यह आवश्यक है कि समाज में आतंकवादियों या ऐसी शक्तियों के विरुद्ध जो समाज की शांति और शक्ति को किसी भी प्रकार से छिन्न – भिन्न करने के षड्यंत्र में लगी रहती हैं , सज्जन शक्ति में एकता स्थापित की जाए , समाज का नाम ही सज्जन शक्ति की एकता है।

सज्जन शक्ति में एकता रहनी चाहिए

आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सज्जन शक्ति एक नहीं हो पाती और समाज के विरुद्ध कार्य करने वाली शक्तियां सज्जन शक्ति का क्षय करती रहती हैं। ऐसे में मनुष्य का समाज के प्रति यह कर्तव्य है कि वह समाज में शांति व्यवस्था स्थापित रखने के लिए सज्जन शक्ति को मजबूती देने का अपने स्तर पर सदा प्रयास करता रहे।
समाज में सज्जन शक्ति की एकता को मजबूत करने के उद्देश्य से मनुष्य को प्रेरित करते हुए वेद कहता है :–
यदजः प्रथमं सम्बभूव स ह तत्स्वराज्यमियाय। यस्मान्नान्यत्परमस्ति भूतम्। (अथर्व. 10.7.31)

भावार्थ वेद के ऋषि का मानना है कि जब तक सामाजिक स्तर पर देश के लोगों को संगठित नहीं किया जाएगा तब तक कोई भी समाज अपनी राष्ट्रीय भावना को मजबूती नहीं दे सकता । वेद का कहना है कि देशवासियों के लिए संगठित होकर राष्ट्रीय भावना का विकास करना आवश्यक है। कहने का अभिप्राय है कि वेद यहां पर सामाजिक शान्ति और उन्नति के लिए लोगों का यह कर्तव्य आरोपित कर रहा है कि उन्हें समाज में सज्जन शक्ति के संगठनीकरण के लिए सदैव प्रयास करना चाहिए । अपने इस कर्तव्य को समझकर ही वे देश की उन्नति में अपनी सहभागिता सुनिश्चित कर सकते हैं । समाज में जब इस प्रकार की भावना बलवती होती है तब ही राष्ट्र सुदृढ व बलशाली बन सकता है।
ऋग्वेद के संगठन सूक्त में समाज के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों को सविस्तार स्पष्ट किया गया है । वहां पर इस भावना पर बल दिया गया है कि मनुष्य को सबके साथ मिलकर चलने , मिलकर बोलने और यहाँ तक कि सामूहिक संकल्प शक्ति में विश्वास रखकर चलना चाहिए । संगठन की इस भावना को जानने से पता चलता है कि हमारे ऋषियों ने ‘सबका साथ और सबका विकास’ – की भावना को समाज का सामूहिक संस्कार स्वीकार किया था । उन्होंने इसी भावना को बलवती करने के लिए लोगों से यह अपेक्षा की थी कि वे अपने कर्तव्यों का तदनुसार निर्वाह करें। वेद समाज के प्रति मनुष्य की इस कर्तव्य भावना को स्पष्ट करते हुए कहता है-

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

अर्थात समाज की उन्नति और सामाजिक शांति के प्रति समर्पित , संसार के हे भद्र पुरुषो ! यदि तुम वास्तव में सामाजिक उन्नति में विश्वास रखते हो और सामाजिक समरसता की स्थापना करना आपके जीवन का उद्देश्य है तो एक ही बात को गांठ बांध लो कि तुम सब को परस्पर मिलकर एक साथ चलना है , और एक ही साथ बोलना है । तुम्हारी चाल अलग-अलग दिशाओं में न हो अपितु एक ही दिशा में हो । एक होकर तुम आगे बढ़ो । शत्रु के विरुद्ध यदि आवाज उठानी है तो एक साथ मिलकर उठाओ। समाज में सज्जन शक्ति के संगठनीकरण के लिए इससे उत्तम कोई नीति नहीं हो सकती कि सब एक साथ एक दिशा में मिलकर आगे बढ़ें और एक आवाज लगाते हुए एक सुर में सब बोलें।
बहेलिया का सामना करने के लिए जाल में फंसे कबूतरों ने जब अपने आपको एक साथ उड़ाया तो वह न केवल जाल को एक साथ लेकर उड़ने में सफल हुए बल्कि ऐसा करने से बहेलिया से उनकी जान भी बच गई । इस प्रकार संगठन में बहुत बल है – इस बात को समझ कर सज्जन शक्ति के बल को बढ़ाने में हमें विश्वास रखना चाहिए।
वेद का ऋषि यहाँ पर कह रहा है कि – प्रेम से मिलकर चलो बोलो सभी ज्ञानी बनो ,- ज्ञानी बनने का अभिप्राय है कि इस तथ्य को समझ जाओ कि मिलकर चलने और बोलने में ही लाभ है । जहां सज्जन शक्ति या भले लोग न तो मिलकर बोल पाते हैं और न ही मिलकर एक दिशा में आगे बढ़ पाते हैं , वहाँ पर शत्रु पक्ष अथवा समाज विरोधी लोग उनको कष्ट पहुंचाते रहते हैं ।जिसका परिणाम यह आता है कि ऐसा समाज और राष्ट्र दोनों ही रसातल को जाते रहते हैं।
सामाजिक समता के लिए यह भी आवश्यक है कि सभी के विचार समान हों और मानसिक धरातल पर सब सब के प्रति समर्पित होकर सब के कल्याण के लिए कार्य योजनाएं बनाते हों । बाहरी कानूनों या संवैधानिक प्रावधानों से सामाजिक समरसता यह समता का भाव उत्पन्न नहीं हो सकता । इसके लिए वेद की इस आदर्श विचारधारा को ही अपनाना उचित होगा कि व्यक्ति के चित्त , मन और विचार सब एक जैसे हो जाएं । सीधे शब्दों में वेद का यह सन्देश है कि मनुष्य के विचार , चित्त व मन सब एक हों और सब सामाजिक उन्नति के प्रति समर्पित होकर कार्य करें , यही उनका कर्तव्य है।

विचार , चित्त और मन हम सबके एक हों

वेद का आदेश है कि :–
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
भावार्थ : सामाजिक उन्नति करने – कराने में विश्वास रखने वाले हे अमृत पुत्रो ! यदि आप वास्तव में सामाजिक उन्नति के पक्षधर हो और प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक एवं राजनीतिक उन्नति करने के अवसर देने को उचित समझते हो तो तुम्हारे सबके विचार , चित्त और मन सब एक हों । तुम्हारे मानसिक धरातल पर किसी के प्रति नकारात्मक चिंतन न तो उभरे और न ही किसी के अधिकारों का शोषण करने का ही विचार उठे । कुल मिलाकर तुम्हारे भावों की पवित्रता बनी रहे। इस प्रकार वेद का कहना है कि सामाजिक उन्नति के लिए विचार, चित्त और मन की पवित्रता बनाए रखने के अपने कर्तव्य के प्रति सदैव सजग रहो।
विचार , चित्त और मन की पवित्रता का अभिप्राय सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का प्रदर्शन करने से भी है । जो भी कार्य आपको मिला है उसे पूर्ण निष्ठा के साथ करना और उसमें सदैव इस बात के लिए प्रयासरत रहना कि मैं लोगों के हित और समाजहित के विरुद्ध कोई भी कार्य नहीं करूंगा। इस प्रकार के भावों को अपनाने से जीवन और बुद्धि की सार्थकता का बोध होता है। यही चिंतन सारे समाज को एक सूत्र में बांधता है और सामाजिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। विचार , चित्त और मन की इस पवित्रता से हमारे संकल्पों में दृढ़ता आती है । संकल्पों की इस दृढ़ता से हम अपने आदर्शों, मान्यताओं और सिद्धांतों के प्रति समर्पित होते हैं और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए भी सक्रिय होते हैं ।

हमारे संकल्प एक दूसरे के विरोधी ना हों

संकल्पों की पवित्रता किसी भी समाज और राष्ट्र को बलशाली बनाती है । इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए वेद ने हमारे लिए समाजहित में यह भी स्पष्ट किया है कि :–
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।

भावार्थ : वेद के ऋषि का मानना है कि सभी के दिल तथा संकल्प अविरोधी हों । उनमें किसी प्रकार का विरोधाभास ना हो । सब एक दिशा में सोचेंगे तो एक संकल्प का बनना निश्चित है । संकल्प तभी संकल्प है जब वह ‘शिव’ हो अर्थात कल्याणकारी हो । किसी के विनाश की योजना बनाना भी संकल्प हो सकता है, लेकिन वह स्वार्थ पूर्ण संकल्प होने के कारण किसी व्यक्ति का संकल्प हो सकता है , उसे समाज का शिव संकल्प नहीं कहा जा सकता । समाज के शिवसंकल्प की बात करें तो यह तभी ‘शिव’ माना जाएगा जब इसमें केवल और केवल लोकमंगल छिपा हो ।
समाज में चाहे हम कितनी ही समरसता व समता की बात कर लें , इन इसके उपरांत भी बौद्धिक स्तर पर छोटे – बड़े का भेद बना रहता है और भी कुछ नहीं तो अवस्था के आधार पर भी छोटे – बड़े का भेद बना रहता है । इस दिखावटी विषमता को कैसे समाप्त किया जाए और कैसे सब छोटे- बड़े मिलकर एक दिशा में एक सोच लेकर आगे बढ़ें ? – इसका समाधान करते हुए ऋग्वेद स्पष्ट कहता है कि हाथ की उंगलियाँ एक समान न होते हुए भी एक होकर कार्य करती हैं, उसी तरह राष्ट्र की प्रजा छोटी-बड़ी होने पर भी एक होकर राष्ट्र के हितकारी कार्यों के लिए एक मन वाली हो । (ऋ. 1.62.10)।
कुल मिलाकर वेद ‘संघे शक्ति’ की बात कर रहा है। समाज की उन्नति की बात कर रहा है । समाज की एकता और समरसता की बात कर रहा है । उसके लिए हाथ की उंगलियों का उदाहरण देकर वेद ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो जिस कार्य के लायक है वह अपना कार्य स्वयं चुन ले और एक मुट्ठी बनाने के लिए सब अपने-अपने स्थानों पर अपने कार्य के प्रति सत्यनिष्ठा का भाव रखते हुए उठ खड़े हों । इसमें जातीय या सांप्रदायिक वैमनस्य कहीं आड़े नहीं आना चाहिए। सामाजिक उन्नति चाहने वाले लोगों के लिए वेद ने एक ही भाव रखने वाली एक ही प्रार्थना को सर्वमान्य बनाने का प्रयास किया है।
यह भी तो वैदिक ऋषियों का ही चिंतन है :–

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्‍चिद् दुःखभाग् भवेत्॥

भावार्थ : सब सुखी हों सब निरोगी हो और सब एक दूसरे को भद्र भाव से देखने वाले हों , किसी में किसी को अभद्रता दिखाई ना दे , बुराई दिखाई ना दे और सब को कहीं पर भी दु:ख व क्लेश मात्र भी दिखाई ना दे । चिंतन या दृष्टि की ऐसी पवित्रता तभी आती है जब भीतर से सब सब के कल्याण के लिए समर्पित हो जाते हैं । प्रार्थना में इतनी ऊंचाई तभी आती है जब लोग एक दूसरे के कल्याण की बातें सोचने लगते हैं और उसी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगते हैं।
वास्तव में संगठन से सामाजिक बल की वृद्धि होती है और सामाजिक बल से राष्ट्र बलशाली बनता है । सामाजिक बल का अभिप्राय है कि सब के चिंतन में शुभता हो , शुचिता हो , शुद्धता हो और सार्थकता हो। वास्तव में समाज भक्ति या समाज के प्रति समर्पण ही हमारी राष्ट्रभक्ति का आधार बनता है।

ब्रह्म तेजधारी ब्राह्मण और अरिदल विनाशकारी क्षत्रिय हों

वेद ने सामाजिक उन्नति से राष्ट्रोन्नति का मार्ग प्रशस्त करने वाली प्रार्थना को भी हमारे लिए संजोया है । वह कहता है कि राष्ट्र में द्विज ब्रह्मतेजधारी ब्राह्मण हों, अरिदल का विनाश करने वाले क्षत्रिय हों, दुधारु गौवें हों, पशु हों, पृथ्वी फल-फूल से लदी हो, अमोघ औषधियां हों, इच्छानुसार वर्षा हो, वह ताप धोने वाली हो, सुभगा नारी हों, पुत्र यजमान हों, इन सभी से युक्त हमारे राष्ट्र का सुराज्य हो (यजु. 22.22)।
वास्तव में सशक्त समाज की संरचना तभी संभव है जब देश के नेता वैदिक सनातन धर्म की इसी प्रकार की उच्च प्रार्थना से युक्त होते हैं । उनका चिंतन लोगों को एकता के सूत्र में बांधने वाला हो , उनके विचार और उनके भाषण लोगों में एकता का भाव संचार करने वाले हों । जातीय या सांप्रदायिक भावनाओं को प्रोत्साहित करने वाले नेता नेता नहीं होते । स्वार्थी लोग लोगों की भावनाओं से खेलकर नेता बन सकते हैं , परंतु वेद की शैली में उन्हें किसी भी अर्थ में नेता नहीं कहा जा सकता। नेता वही होता है जो समाज की सामूहिक प्रार्थना में विश्वास रखता है और एकात्म मानववाद के विचारों से ओतप्रोत होकर सबको अपना मानता है।
ऋग्वेद कहता है- ध्युमिः जायसे (ते)। नेता तेजों से उत्पन्न हो, ‘अदाभ्य‘ न दबने वाला, कोई शत्रु उसे भयभीत कर नहीं पाता, ‘पोत्रं तव‘ राष्ट्र में पवित्रता रखने वाला हो। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को चाहे देश की सरकारों ने ‘भारत रत्न’ दिया या नहीं दिया , परंतु देश के लोगों ने उन्हें ‘नेताजी ‘ कहकर सबसे पहला ‘भारत रत्न’ प्रदान किया । इसका कारण केवल एक ही था कि नेताजी प्रबल से प्रबल शत्रु के समक्ष भी दबने या झुकने वाले नहीं थे । वह तेजस्वी राष्ट्रवाद के समर्थक थे और स्वयं भी तेजस्विता का दैदीप्यमान सूर्य थे। वे जितनी देर भी संसार में रहे , उन्होंने राष्ट्र और समाज को ऊर्जान्वित किये रखा । इतना ही नहीं उनके नाम और काम को याद कर लोग आज भी ऊर्जान्वित होते हैं। महापुरुष इसीलिए महापुरुष होते हैं कि उनके नाम और काम को स्मरण कर लोग उनके जाने के बाद भी अपने आप को ऊर्जान्वित अनुभव करते हैं। उनके इस दिव्य गुण के कारण ही उन्हें अमरता प्रदान होती है।
महापुरुष अपने दिव्य गुणों से ऐसे समाज का निर्माण करते हैं जिसमें व्यक्ति अपने आपको अकेला अनुभव नहीं करता । हमारे देश में गांव देहात में आज भी किसी असामाजिक व्यक्ति के गांव में किसी व्यक्ति के साथ उसके द्वारा उत्पीड़न किए जाने पर गांव के सारे लोग उस उत्पीड़ित व्यक्ति के साथ आ खड़े होते हैं। इस प्रकार उस व्यक्ति का यह सामाजिक बल उसके लिए ‘पुलिस बल’ बन जाता है । हमारे समाज की ऐसी दिव्य संरचना होने के कारण ही हमारे गांव देहात को अभी भी किसी पुलिस बल की आवश्यकता नहीं है । हर व्यक्ति अपने सामाजिक बल के आधार पर अपनी सुरक्षा अपने आप कर लेता है । उसे समाज का सहारा होता है और समाज के सहारे को ही वह अपने लिए ‘ब्रह्मास्त्र’ मानता है । पुलिसबल कहीं भ्रष्ट हो सकता है और भ्रष्टाचार के कारण निकृष्ट भी हो सकता है, परंतु सामाजिक बल के लिए काम करने वाले समाजसेवी लोग भ्रष्ट नहीं होते । यद्यपि आज लोगों में ऐसा प्रचलन भी देखा जा रहा है कि अपने आप को समाजसेवी कहकर कुछ लोग लोगों को मूर्ख बनाते हैं , परंतु हम ऐसे लोगों की बातें नहीं कर रहे हैं।
यहां उन लोगों की बातें हो रही हैं जिनके बारे में वेद कहता है कि वे ‘सतां वृषभः इन्द्र‘ वह सज्जनों की कामनाओं का पूरक होते हैं तथा स्वयं भी ऐश्‍वर्यवान् हो, ‘पुरन्ध्या सचते‘ उत्तम बुद्धि वाला हो, ‘धृतव्रतः वरुण‘ व्रतों, नियमों को धारण करने वाला होते हैं , ‘बाहुभिः वाजी अरुषा रोचते‘ अपनी भुजाओं से बलवान् , तेजस्वी और राष्ट्र के संचालक होते हैं ।
इस प्रकार हमारे देश में मनुष्य के सामाजिक कर्तव्य यही हैं कि वह समाज में दिव्यता के भावों का संचार करने वाला हो । दिव्यता के कारण ही हमारा देश भारत है। हम आलोक के , सूर्य के , तेज के , ऊर्जा के , उपासक हैं । इसलिए हमारा समाज भी आलोकित हो , ऊर्जान्वित हो , तेजस्वी हो , दिव्य हो और हम उस आलोकित , ऊर्जान्वित , तेजस्वी और दिव्य समाज के एक महत्वपूर्ण अंग हैं । इस सारे चिंतन को अक्षरश: क्रियान्वित करना हमारे जीवन का परम कर्तव्य होना चाहिए , तभी हम भारत को भारत बना सकते हैं।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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