हाल ही में लद्दाख में हुई झड़पों में कम से कम बीस भारतीय जवानों की मौत हो गई, जिससे चीन के प्रति हमारी सरकार की नीति की ओर ध्यान गया है। इस रिश्ते के सैन्य, रणनीतिक और आर्थिक पहलुओं को मैं इन क्षेत्रों के कहीं अधिक योग्य लोगों पर छोड़ता हूं। एक इतिहासकार के रूप में मैं हमारे प्रथम प्रधानमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री की चीन नीति की अनूठी समानताओं की ओर ध्यान खींचना चाहता हूं।
यह सब जानते हैं कि राजनीतिक विचारधारा के मामले में जवाहरलाल नेहरू और नरेंद्र मोदी दो भिन्न ध्रुवों पर खड़े हैं। मोदी हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के प्रति नेहरू की प्रतिबद्धता या वैज्ञानिक शोध और तकनीकी शिक्षा में उनकी दिलचस्पी से इत्तफाक नहीं रखते। अपने आलोचकों के प्रति मोदी का रवैया नेहरू की तुलना में कहीं अधिक अक्खड़ है। इन सारी असमानताओं के बावजूद हमारे सबसे बड़े और सबसे ताकतर पड़ोसी के प्रति नेहरू और मोदी ने उल्लेखनीय रूप से एक जैसे रुख का प्रदर्शन किया है।
हमारे पहले प्रधानमंत्री की ही तरह हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री ने भी इस विश्वास के साथ काम किया कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं के साथ निजी दोस्ती विकसित करने से दोनों देशों के लोग भी एकजुटता के गहरे बंधन से बंध जाएंगे।
जवाहरलाल नेहरू 1954 में माओ त्से तुंग और झाऊ एनलाई से वार्ता करने के लिए चीन गए थे। उनके मेजबानों ने उन्हें लुभाने के लिए उनके स्वागत में बीजिंग की सड़कों पर करीब दस लाख लोग जुटाए। बाद में नेहरू ने अपने एक मित्र को लिखा, ‘चीनी लोगों की ऐसी जबर्दस्त भावनात्मक प्रतिक्रिया मिली कि मैं अभिभूत हो गया।’
भारत लौटने पर नेहरू ने कोलकाता मैदान में एक विशाल आमसभा को संबोधित किया। वहां उन्होंने लोगों से कहा, ‘चीन के लोग जंग नहीं चाहते; वे लोग अपने देश को एकजुट करने और गरीबी से छुटकारा पाने में व्यस्त हैं।’ चीन में हुए भव्य स्वागत के बारे में उन्होंने टिप्पणी की, ‘यह इसलिए नहीं हुआ कि मैं जवाहरलाल हूं और मुझमें कुछ खासियत है, बल्कि इसलिए क्योंकि मैं भारत का प्रधानमंत्री हूं और चीनी लोगों ने अपने दिलों में जिसके प्रति प्यार संजो रखा है, और जिसके साथ वह दोस्ताना संबंध बनाए रखना चाहते हैं।’
ऐसा लगता नहीं कि हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री ने इस भाषण के बारे में पढ़ा या सुना है। फिर भी, इसकी भावनाएं अप्रैल, 2018 में वुहान में शी जिनपिंग से मुलाकात के बाद दिए गए नरेंद्र मोदी के भाषण में प्रमुखता से प्रतिध्वनित हुई थीं। मोदी ने अति भावुक होकर अपने चीनी समकक्ष से कहा था, ‘अनौपचारिक शिखर बैठक से अत्यंत सकारात्मक माहौल बना है और व्यक्तिगत रूप से आपने इसमें बड़ा योगदान किया है।
यह भारत के प्रति आपके प्रेम का ही संकेत है कि आपने बीजिंग से बाहर चीन में मेरी दो बार मेजबानी की। भारत के लोग सचमुच गर्व कर रहे हैं कि मैं भारत का पहला प्रधानमंत्री हूं, जिसका स्वागत करने के लिए आप दो बार राजधानी से बाहर आए।’ मोदी ने कहा कि कैसे ‘भारत और चीन की संस्कृतियां नदियों के किनारों पर आधारित हैं’, कैसे ‘पिछले दो हजार वर्षों में से 1,600 वर्षों तक भारत और चीन ने वैश्विक आर्थिक विकास के लिए इंजिन का काम किया।’
वुहान की बैठक से पहले सितंबर, 2014 में अहमदाबाद में भी एक बैठक हुई थी, जिसमें दोनों नेताओं ने साबरमती नदी के तट पर विशेष रूप से लगाए गए झूले में बैठकर बातचीत की थी। इसके बाद मई में मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में चीन की पहली यात्रा की थी। यहां शंघाई में दिए भाषण में उन्होंने शी जिनपिंग के साथ अपनी दोस्ती को लेकर कहा कि दो राष्ट्र प्रमुख जितनी आत्मीयता, निकटता और साहचर्य के साथ मिल रहे हैं, यह ‘प्लस वन’ है, और यह वैश्विक रिश्तों की पारंपरिक बातचीत से अलग है, और इस ‘प्लस वन’ दोस्ती को समझने और इसकी सराहना करने में कई लोगों को वक्त लगेगा।
मोदी और शी के बीच पिछली शिखर बैठक अक्तूबर, 2019 में महाबलीपुरम में हुई थी। इसके बाद भारत सरकार की वेबसाइट ने दोनों नेताओं की मुलाकात पर एक फोटो गैलरी लगाई। इसके साथ दिया गया ब्योरा कुछ इस तरह था, सातवीं सदी में चट्टान को काटकर बनाए गए स्मारकों और मूर्तियों की पृष्ठभूमि में… भारत और चीन के नेताओं ने नारियल पानी पिया और भारत-चीन संबंधों के नए युग को लेकर उम्मीदें जताईं, जो कि दोनों देशों के बीच परस्पर सहयोग, विश्वास और एक दूसरे के महत्वपूर्ण हितों और आकांक्षाओं पर आधारित है।
पिछले छह वर्षों में जबसे नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं, उनकी और शी जिनपिंग की 18 बार मुलाकात हो चुकी है। वुहान स्पिरिट(वुहान भावना) और चेन्नई कनेक्ट (चेन्नई संपर्क) की यह अभिव्यक्ति नेहरू के हिंदी-चीनी भाई भाई का अद्यतन संस्करण है। यदि भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के चेयरमैन मित्र हो सकते हैं, तो दोनों देशों के लोगों को भी मित्र होना चाहिए। यह तर्क इसी तरह आगे बढ़ा। नरेंद्र मोदी को अब पता चला हो, जैसा कि जवाहरलाल नेहरू उनसे पहले समझ चुके थे कि चीनी सौहार्द और उसके इरादों पर भोले-भाले तरीके से भरोसा करना गलत था।
सितंबर, 1959 में जब चीनी और भारतीय बलों के बीच सीमा पर संघर्ष छिड़ गया था, तब आरएसएस के प्रमुख विचारक दीनदयाल उपाध्याय ने नेहरू की नाकाम चीन नीति पर आलेखों की एक शृंखला लिखी थी। उपाध्याय ने व्यंग्य करते हुए लिखा था, ‘केवल वही (नेहरू) जानते हैं कि किसी संकट को कब संकट न कहा जाए। बिना आग के कैसे धुआं निकाला जाए।’ उपाध्याय ने पूछा कि आखिर नेहरू की चीन नीति नाकाम कैसे हो गईः क्या यह सिर्फ लापरवाही है? क्या यह कायरता है? या फिर यह सैन्य कमजोरी, वैचारिक अस्पष्टता और कमजोर राष्ट्रवाद से प्रेरित राष्ट्रीय नीति का नतीजा है? ( उनके ये उद्धरण ऑर्गनाइजर में, सितंबर 1959 में प्रकाशित उनके लेखों से लिए गए हैं।)
दीनदयाल उपाध्याय के प्रति नरेंद्र मोदी का अनुराग किसी से छिपा नहीं है। किसी को हैरत हो सकती है कि यदि उपाध्याय आज जीवित होते, तो क्या वह भारतीय क्षेत्र में चीनी घुसैपठ और भारतीय जवानों की मौत के बारे में लिखते। क्या वह इसके लिए प्रधानमंत्री की लापरवाही, आत्मसंतुष्टि या कायरता, या सैन्य कमजोरी या वैचारिक स्पष्टता को जिम्मेदार ठहराते?
सीमा में 1959 में हुई झड़पों ने तीन साल बाद हुए युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की थी। अभी ऐसा नहीं लगता। हमारे शक्तिशाली और अप्रत्याशित पड़ोसी के साथ यह तनाव गणतंत्र के इतिहास के विशेष रूप से बुरे दौर में बढ़ रहा है। आर्थिक विकास कई वर्षों से अवरुद्ध है और महामारी इसकी राह में रोड़े अटकाएगी। दुर्भावनापूर्ण नागरिकता संशोधन अधिनियम ने हमारे सामाजिक ताने-बाने को और अधिक नाजुक बना दिया है, जबकि लंबे समय से सहयोगी देश बांग्लादेश को बेवजह आहत कर दिया है। एक अन्य पड़ोसी नेपाल से हमारे रिश्ते सबसे बुरे दौर में हैं। हमारा चिर विरोधी पाकिस्तान लगातार नियंत्रण रेखा पर गड़बड़ी कर रहा है।
सत्तारूढ़ दल मौजूदा प्रधानमंत्री को ऐसे प्रस्तुत कर रहा है, मानो उनसे गलती नहीं हो सकती और उनकी नीतियां आलोचनाओं से परे हैं। नेहरू ने खुद कभी दीनदयाल उपाध्याय को राष्ट्र विरोधी बताकर उनका मजाक बनाने के बारे में नहीं सोचा होगा। मगर सेना के अनेक पूर्व अधिकारियों को, जिन्होंने गलवां घाटी में हुई झड़पों से कई हफ्ते पहले लद्दाख में चीनी घुसपैठ को लेकर आगाह किया, दक्षिणपंथी ट्रोल और गोदी मीडिया निशाना बना रहा है।
हमारी आर्थिक नीति, हमारी सामाजिक नीति, हमारी विदेश नीति, इन सब पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। इन्हें प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत आकांक्षाओं से नहीं, बल्कि कठोर जमीनी हकीकत से लैस होने की जरूरत है।
( ‘अमर उजाला’ से साभार)