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भारतीय संस्कृति

सुख-दुख के लक्षण और पुनर्जन्म

यम क्या है ?
यम वायु को कहते हैं।
जब यह आत्मा इस सर्वांग शरीर को त्याग कर अंतरिक्ष में जाता है तो यह अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा उसी यम नाम की वायु में रमण करता है , तब उस वायु को हम यम कहा करते हैं।
वायु को यम क्यों कहते हैं?
क्योंकि परमात्मा यम रूप धारण करके हमारे पाप पुण्य कर्मों का फल देने वाला होता है।
परमात्मा न्याय किस स्थान पर करता है ?
कोई स्थान नहीं है। क्योंकि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है , इसलिए उसका कोई स्थान विशेष नहीं है। वह तो सभी जगह है।
जब कोई जगह नहीं तो परमात्मा न्याय कैसे करता है?
मानव जो भी कर्म करता है उसके संस्कार उसके अंतः करण में सूक्ष्म रूप में नियुक्त हो जाते हैं। अंतःकरण मानव शरीर में इस प्रकार से नियुक्त है जैसे एक वायुयान में फ्लाइट डाटा रिकॉर्डर ब्लैक बॉक्स होता है। वह परमात्मा आत्मा के समक्ष रहता है।
जो कर्म अंतःकरण में विराजमान हो गए उनको हमें भोगना अवश्य है।
‘अरे ! ‘ यह अनुचित मार्ग है इस पर न जा’- ,को कौन संकेत करता है ?
अंतःकरण में बैठा हुआ परमात्मा का अंश आत्मा।
क्या तपस्या करने से तुच्छ कर्मों का फल समाप्त हो जाता है ?
नहीं। जब तक अंतःकरण में संस्कार हैं , तब तक हम तुच्छ कर्मों का फल भोगते रहेंगे, चाहे कितनी योनि हो जाएं ,चाहे कितनी बार जन्म लेना हो।
ऐसा क्यों ?
क्योंकि मानव ने जैसा कर्म किया है उनको भोग करके ही अंतःकरण शुद्ध होगा।
मनुष्य को क्या करना चाहिए ?
जब तुच्छ कर्मों का भोग भोगना अनिवार्य है और उसके लिए बार-बार संसार में आना पड़ेगा तो मनुष्य को शुभ कर्म करने चाहिए।
जीवन महत्वदायक कैसे बनेगा ?
याज्ञवल्क्य मुनि ने महाराज जनक से कहा था हे जनक ! यह मन शांत रहता ही नहीं , यह तो कार्य करता ही रहता है ।इसलिए तुम मन को शुद्ध बनाओ जिससे तुम्हारा जीवन महत्व दायक बन जाएगा। जब मन को शांत रहना ही नहीं ।इसे कर्म करना ही करना है तो इसे शुभ कर्म में लगाओ । उससे यह मन स्थिर हो जाता है। अंतःकरण शुद्ध हो जाता है। मुक्ति का मार्ग खुल जाता है ।आवागमन के चक्कर से बच जाता है।
कैसे ?
जन्म जन्मांतर के संस्कार अंतःकरण को शुद्ध कर उस प्रभु से संबंध करा सकते हैं। जो परमात्मा विभु है ,जो पाप पुण्य कर्मों का फल देने वाला होता है। जो आध्यात्मिक विद्या के उत्थान करने से संभव है।

जन्म का कारण क्या है,?
कर्म और कर्म फल से उत्पन्न वासना जन्म का कारण हुआ करती है।
इस क्रम में शुभ अशुभ दोनों प्रकार के कर्म होते हैं।
जन्म का कारण शुभ कार्यों का फल भोगने के लिए भी और अशुभ कार्यों का फल भोगने के लिए भी निश्चित है। इसी को कर्मफल कहते हैं।
कर्मों का फल किस रूप में मिला करता है ?
मूल के रहते हुए कर्मों का फल जाति अर्थात योनि आयु और भोग होते हैं।
क्लेश का मूल क्या है ?
वासनाएं होती हैं।
इसी मूल कर्म वासना समूह के अंतः करण या चित् में रहने से इन कर्मों का फल जाति ,आयु और भोग के रूप में कर्त्ता को मिला करता है।
जाति क्या है ?
मनुष्य , पशु , पक्षी आदि।
आयु से क्या अभिप्राय है ?
आयु से तात्पर्य योनि की आयु से है । जो कि वर्षों से नहीं किंतु सांसों की संख्या से दी जाती है।
क्या आयु घटाई बढ़ाई जा सकती है ?
सुकर्म से आयु बढ़ती है। दुष्कर्म (नशा , व्यभिचार आदि )से आयु का ह्रास होकर अकाल में ही मृत्यु हो जाती है। लेकिन कर्म फल से प्राप्त भोग रूप रोग चिकित्सा शास्त्र के अनुकूल विधान करने से समय से पहले कम या दूर हो जाता है।
यही जाति ,आयु और भोग पुण्य और पाप रूप कारण से हर्ष और शोक रूप वाले होते हैं। जो अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं। यही अच्छे कर्म फल सुख का कारण तथा बुरे कर्म फल दुख का कारण बनते हैं।
सुख और दुख का लक्षण क्या है ?
जो भोग करने वाली इंद्रियों की तृप्ति की शांति है , यह सुख है, और जो विषय की इच्छा से इंद्रियों की चंचलता से अशांति होती है , वही दुख है।
विवेकी पुरुष इनको क्या मानता है ?
विवेकी जन् सुख को भी दुख ही मानते हैं , क्योंकि सुख और दुख इंद्रियों के विषय हैं।
इसका कारण ?
क्योंकि सांसारिक भोग चाहे कोई सा भी हो वह परिवर्तनशील होता है। इसलिए सुख की समस्त सामग्री परिणाम दुख मिश्रित होने से दुख ही कही जा सकती है ।इसलिए विवेकी जन सुख को भी दुख मानते हैं।
जैसे मनुष्य जब पुण्य कर्म करता है तो उसे सुख मिलता है । इस सुख से संस्कार या वासना अंतःकरण में उत्पन्न होती है। उस संस्कार या वासना की स्मृति से उसमें राग ,और राग से प्रवृत्ति अर्थात उसी कर्म को करने की पुनः इच्छा प्रवृत्ति से कर्म, उससे फिर वही वासना, राग और प्रवृत्ति कर्म, इस संसार चक्र से मनुष्य का छूटना सुख की इच्छा छोड़े बिना संभव नहीं ।इसलिए इस चक्र को विवेकी जनों के द्वारा बंधन रूपी दुख ही माना जाता है।
दुख कितने प्रकार का होता है ?
पहला भूत दुख ,दूसरा वर्तमान दुख ,तीसरा अनागत अर्थात भावी दुख।
अनागत दुख कौन सा है ?
जो अभी आया ही नहीं।
वर्तमान दुख क्या है ?
वर्तमान काल में जो दुख मिल रहा है।
यह क्यों मिल रहा है ?
भूतकाल में किए गए कार्यों का फल है।
अनागत दुख को कैसे दूर किया जा सकता है ?
वर्तमान काल के कर्मों को ठीक करके भावी दुख दूर किये जा सकते हैं। मनुष्य को यही प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि दुख का जहां विच्छेद हो जाता है वही मुक्ति कही जाती है।
मुक्ति में ईश्वर हमको आनंद का भोग कराकर पृथ्वी पर पुनः माता-पिता के संबंध में जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है और मुक्ति की व्यवस्था करता है ,जो हम सबका स्वामी है।
एक अन्य सिद्धांत के अनुसार जीवात्मा के पुनर्जन्म होने में मुख्य कारण भगवान की आज्ञा से, पुण्य क्षय हो जाने पर, पुण्य का फल भोगने के लिए ,पाप का फल भोगने के लिए ,बदला लेने के लिए, बदला चुकाने अर्थात प्रत्युपकार करने के लिए। अकाल मृत्यु हो जाने पर, अपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने के लिए होता है।
परंतु यह सिद्धांत कुछ हद तक वैदिक सिद्धांत के विपरीत है । जैसे कि इसमें सिद्धांत दिया है कि पुण्य क्षय हो जाने पर।
वैदिक सिद्धांत के अनुसार मुक्ति से पुनः जीवन मरण में आना होता है तथा मुक्ति तभी तक रहती है जब तक कि उसके पूर्व पुण्य संचित रहते हैं। इसलिए पुण्य क्षय हो जाना और मुक्ति से पुनः जीवन मरण में आना में समानता है अर्थात वैदिक सिद्धांत से मिलता-जुलता है। जहां तक भगवान की आज्ञा से आने का संबंध है मुक्ति से भगवान की इच्छा के अनुसार ही अथवा आज्ञा के अनुसार ही पुनः जन्म मरण में आना होता है , इसमें भी समानता है।इसके अलावा पुण्य का फल भोगने अथवा पाप का फल भोगने के लिए , बदला चुकाने अथवा प्रति उपकार करने के लिए ,ये वासना और कर्म फल से उत्पन्न होने वाले वैदिक सिद्धांत में सन्निहित है। बदला लेने के लिए क्लेश का सिद्धांत लागू होता है और अपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने के लिए वासना का वैदिक सिद्धांत लागू होता है।
इस प्रकार वैदिक सिद्धांत के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धांत कल्पित अथवा अवैज्ञानिक नहीं है। परंतु यह एक गूढ़ विषय है जो साधारण श्रेणी के व्यक्ति की समझ से परे है। इसका प्रमाण भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि अनेक देशों में मिलता है। इससे यह भी सिद्धांत सिद्ध होता है आत्मशक्ति या जीवात्मा अविनाशी ,अचल, अजर, अमर है। यही आत्मा एक देश से दूसरे देश में रूपांतर अथवा स्थान परिवर्तन करता रहता है ।जिसे हम जन्म या मृत्यु कहते हैं वह आत्मा का शरीर परिवर्तन है और कुछ भी नहीं।
पुनर्जन्म में 2 से लेकर 8 वर्ष की आयु तक कभी-कभी पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहती है , लेकिन इसके पश्चात समाप्त हो जाती है।
पुनर्जन्म में लिंग परिवर्तन भी संभव है।पुनर्जन्म में योनि परिवर्तन भी संभव है।समाज में कभी-कभी हम ऐसे व्यक्तियों को देखते हैं जिनको जन्म से ही ऐसी विशेषताएं प्राप्त होती हैं जिन्हें देखकर हम आश्चर्यचकित रह जाते हैं , लेकिन पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानते हुए तथा आत्मा पर पूर्व जन्म के संचित संस्कारों को ध्यान में रखते हुए विवेकी जन इस गुत्थी को सहज ही सुलझा लेते हैं। क्योंकि विवेकी जन जानते हैं कि जीवन का प्रवाह अविछिन्न गति से निरंतर आगे बढ़ता रहता है ।हम जिसे मृत्यु कहते हैं उसमें नाश सिर्फ शरीर का होता है। मृत्यु से पूर्व इस शरीर के माध्यम से आत्मा जिन अनुभवों ,गुणों ,विभूतियों तथा जानकारी को संचित करती है यह सूक्ष्म तथा कारण शरीर के साथ संस्कार रूप में जोड़कर आगे के जन्म में भी काम आते हैं, तथा व्यक्ति के जीवन को प्रभावित एवम् निर्देशित करते हैं।
पुनर्जन्म के अनुसंधान के क्रम में ऐसे अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। वैदिक धर्म में आत्मा का अजर ,अमर एवं पुनर्जन्म की सुनिश्चितता को प्रारंभ से ही मान्यता मिली है। वस्तुतः सूक्ष्म शरीर (पांच ज्ञानेंद्रिय ,पांच कर्मेंद्रियों, पांच तन्मात्राएं, मन और बुद्धि) की धारणा युगों पुरानी है । जो आत्मा का परिवार कहा जाता है। इसी सूक्ष्म शरीर मे जाति ,आयु और भोग देने वाली वासनाओं के संस्कार इकठ्ठे है।
वास्तव में सूक्ष्म शरीर अभिव्यक्ति का विषय नहीं हो सकता ।वह केवल गहन साधना के धरातल पर होने वाली रहस्यात्मक अनुभूति का विषय है। अतः सैद्धांतिक रूप से साधना के बिना इस विषय पर कुछ कहने का अधिकार बनता, नहीं समझा जा सकता।
भारतवर्ष में युगों पुरानी योग विज्ञान की परंपरा है। युगों युगों से ऋषि और मुनियों ने दिव्य योग आत्माओं के अनुभव सूक्ष्म शरीर के विषय में एक जैसे ही प्रस्तुत किए । जो इसकी सत्यता के साक्षात प्रमाण है।
लेकिन विज्ञान सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व को नकारता आ रहा था और पुनर्जन्म तथा परकाया प्रवेश जैसी बातों पर भी विश्वास नहीं करता था। यह कमी विज्ञान की नहीं थी। विज्ञान पदार्थ का अध्ययन करता है। पदार्थ स्थूल है ।विज्ञान के सूक्ष्म और योग या अध्यात्म के सूक्ष्म में बड़ा अंतर है। विज्ञान पहले अणु को सूक्ष्मतम मानता था। आगे की खोजों में अणु की अपेक्षा परमाणु को सूक्ष्मतम माना गया ।उसके बाद फिर जब परमाणु टूट गया तो इलेक्ट्रॉन ,प्रोटॉन, न्यूट्रॉन सूक्ष्मतम हो गए ।
आज वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि विज्ञान की सूक्ष्म संबंधी परिकल्पनाओं का जहां अंत हो जाता है , वहां से आध्यात्मिकता का आरंभ होता है। इसके विषय में एकमात्र उदाहरण देकर के अपने बिंदु को स्पष्ट करना चाहूंगा।

जनपद गाजियाबाद मुरादनगर कस्बे के निकट खुर्रम पुर सलेमाबाद एक गांव है। जिसमें एक निर्धन और बिना पढ़ा लिखा कबीरपंथी जुलाहे का घर था।
जिनके यहां एक बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम कृष्ण दत्त रखा गया। जिसको कोई शिक्षा नहीं दी गई। जो वह कुछ बडा हुआ तो शिशु की गर्दन दोनों और हिलने लगी और होठ फड़फड़ाने लगते। इसको भूत-प्रेत का प्रभाव मानकर ओझा पंडितों के पास उस बच्चे का इलाज शुरू करा दिया गया । उसे अनेक प्रकार की यातना दी जाने लगी।जैसे – जैसे उसकी आयु बढ़ती रही , वैसे – वैसे उसकी वाणी में मंत्र पाठ और कथा वाचक इसको सुनाई देते ।आश्चर्यचकित ग्रामवासी गर्दन हिलने और कथा सुनने के विचित्र अनुभव को अपने – अपने आधार पर ग्रहण करने लगे। जब यह बालक 6 वर्ष का हुआ तो इसको चेचक निकली और इनका चेहरा भयानक रूप से खराब हो गया।
इसे पशु चुगाने का काम दिया गया ।वहां पर जब यह कभी लेट जाते तो बालक ब्रह्मर्षि की इच्छा ना होते हुए भी बल से हाथ पैर तथा सिर पकड़ कर सीधा लिटा देते । गर्दन हिलाने और कथा सुनने का मनोरंजन करते थे। जो इसको एक बीमारी के रूप में मानते थे। बालक 15 वर्ष की अवस्था में अपने घर को छोड़कर के भाग गया तथा इधर – उधर भटकते रहे। बाद में बरनावा में इन्होंने अपना एक आश्रम स्थापित किया। जिसमें बहुत सारे लोगों का सहयोग रहा। विशेषकर आर्य समाज के लोगों का।
उनके प्रवचनों से स्पष्ट हुआ कि ब्रह्म ऋषि के सूरत जी पूर्व जन्म में श्रृंगी ऋषि रहे हैं और महानंद जी इनके सूक्ष्म शरीर धारी योगसिद्ध शिष्य रहे हैं ।यह भी ज्ञात हुआ कि महाभारत की लाक्षागृह अग्नि कांड की स्थली पूर्व समय में महानंद जी की तपोभूमि रही है ।वह ब्रह्म ऋषि कृष्ण जी के यहां पदार्पण तक महानंद जी श्रद्धा रूप में तपस्या करते रहे।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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