कोई भी समाज बहुत अधिक समय तक किन्ही पुराने कानूनों के आधार पर नहीं चल सकता । देश , काल , परिस्थिति के अनुसार समाज की परम्पराएं परिवर्तित हो जाती हैं । उनमें नवीनता बनाए रखने के लिए ऐसी विधि समाज के पास होनी चाहिए जो समाज को प्रगतिशील बनाए रखे। परम्पराओं को पकड़कर रखने का अभिप्राय है – समाज को शिथिल कर देना । यदि समाज शिथिल हो गया तो उसकी प्रगतिशीलता और विचारों की सतत प्रवाहमानता पर प्रभाव पड़ता है । ऐसा समाज रूढ़िवाद की जकड़न में चला जाता है , जो कभी भी अपनी अज्ञानता जनित स्थापित मान्यताओं से बाहर निकल नहीं पाता ।
यही कारण है कि समाज के बुद्धिशील और विवेकशील लोग समाज सुधारक की भूमिका में जब आते हैं तो उनका हरसंभव प्रयास यह होता है कि जड़वाद और किसी भी प्रकार की संकीर्णता को पुष्पित व पल्लवित होने का अवसर ही उपलब्ध ना हो । भारत के सनातन धर्म के भीतर यह विशेषता है कि वह संसार को वेद के नाम पर ऐसी विधि प्रदान करता है जो समाज में रूढ़िवाद और जड़वाद को कभी पनपने नहीं देता । वेद ने समाज सुधारकों के लिए एक विस्तृत मैदान छोड़ा है । किसी भी प्रकार की संकीर्णता और रूढ़िवाद को समाप्त करने में यदि कोई भी समाज सुधारक किसी भी प्रकार का योगदान देता है तो वैदिक संस्कृति प्राचीन काल से ही उसका स्वागत करती आई है । अतः यदि किन्हीं कारणों से समाज में जड़वाद या रूढ़िवाद पनप भी जाता है तो वेद नाम की साबुन से उसे साफ किया जा सकता है ।
इस्लाम ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की , जिससे उसके बारे में यह स्पष्ट हो सके कि वह जड़वाद और रूढ़िवाद का विरोधी है । वास्तविकता तो यह है कि मुस्लिम समाज का निर्माण ही जड़वाद और रूढ़िवाद के आधार पर हुआ। यही कारण है कि इस्लाम में नवीनता और आधुनिकता का समावेश उतने अनुपात में आज तक भी नहीं हो पाया है जितना हो जाना चाहिए था या जितने की अपेक्षा की जा सकती थी। मुस्लिमों ने समाज सुधार के लिए कभी कोई बड़े आंदोलन भी नहीं चलाए । यदि उनकी रूढ़िवादिता को कभी सरकारी स्तर पर समाप्त करने का प्रयास किया गया तो उसका बड़े व्यापक स्तर पर विरोध और किया गया । इसका अभिप्राय है कि इस्लाम को मानने वाले लोग रूढ़िवादिता को बनाए रखना चाहते हैं अथवा कहिए कि यह लोग परम्परावादी हैं । अभी हाल ही में भारत की मोदी सरकार के द्वारा जब तीन तलाक जैसी अमानवीय परम्परा को समाप्त करने की दिशा में सरकार की ओर से कुछ कदम उठाए गए तो उसका विरोध करने के लिए मुस्लिम समाज की महिलाएं तक सड़कों पर आ गईं । यद्यपि प्रगतिशील मुस्लिमों ने सरकार के इस कदम का समर्थन भी किया।
मुस्लिम समाज की इस दुर्बलता को बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने बड़ी गम्भीरता से समझा था । यही कारण है कि उन्होंने मुस्लिम समाज को सावधान करते हुए लिखा :– ”मुसलमानों में इन बुराइयों का होना दुखद हैं। किन्तु उससे भी अधिक दुखद तथ्य यह है कि भारत के मुसलमानों में समाज सुधार का ऐसा कोई संगठित आन्दोलन नहीं उभरा जो इन बुराईयों का सफलतापूर्वक उन्मूलन कर सके। हिन्दुओं में भी अनेक सामाजिक बुराईयां हैं। परन्तु सन्तोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इनकी विद्यमानता के प्रति सजग हैं और उनमें से कुछ उन बुराईयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आन्दोलन भी चला रहे हैं। दूसरी ओर, मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये बुराईयां हैं। परिणामतः वे उनके निवारण हेतु सक्रियता भी नहीं दर्शाते। इसके विपरीत, वे अपनी मौजूदा प्रथाओं में किसी भी परिवर्तन का विरोध करते हैं। यह उल्लेखनीय है कि मुसलमानों ने केन्द्रीय असेंबली में 1930 में पेश किए गए बाल विवाह विरोधी विधेयक का भी विरोध किया था, जिसमें लड़की की विवाह-योग्य आयु 14 वर्ष् और लड़के की 18 वर्ष करने का प्रावधान था। मुसलमानों ने इस विधेयक का विरोध इस आधार पर किया कि ऐसा किया जाना मुस्लिम धर्मग्रन्थ द्वारा निर्धारित कानून के विरुद्ध होगा। उन्होंने इस विधेयक का हर चरण पर विरोध ही नहीं किया, बल्कि जब यह कानून बन गया तो उसके खिलाफ सविनय अवज्ञा अभियान भी छेड़ा। सौभाग्य से उक्त अधिनियम के विरुद्ध मुसलमानों द्वारा छोड़ा गया वह अभियान फेल नहीं हो पाया, और उन्हीं दिनों कांग्रेस द्वारा चलाए गए सविनय अवज्ञा आन्दोलन में समा गया। परन्तु उस अभियान से यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि मुसलमान समाज सुधार के कितने प्रबल विरोधी हैं।” (पृ. 226 )
इस प्रकार के चिंतन से बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर और महर्षि दयानंद किसी एक ही दिशा में काम करते हुए दिखाई देते हैं । दोनों का उद्देश्य एक ही है कि हिंदू हो या मुसलमान दोनों की कमियों को और दुर्बलताओं को बिना किसी पक्षपात के बताया जाए । दोनों की इच्छा है कि हिंदू और मुसलमान अपने गिरेबान में झांकें और अपनी गलतियों को ठीक कर समाज को सही दिशा देने का काम करें ।
मुसलमान समाज सुधार के प्रबल विरोधी होने के कारण ही अपना उतना विकास नहीं कर पाए जितना उन्हें अब तक कर लेना चाहिए था । परम्परा की डोर से बंधे रहकर यह तेली के बैल की भांति एक निश्चित दायरे में घूमते रहने में ही जीवन की सफलता समझते हैं । यही कारण है कि अनन्त आकाश को भेदकर ज्ञान के उस पार पहुंचने की ललक या अंतर्मन की पीड़ा मुस्लिमों के भीतर कभी पैदा नहीं हो पाई । परिणामस्वरूप शोध और बोध का उतना खेल मुस्लिमों में नहीं हो पाया , जितना आधुनिक विज्ञान के युग में होना चाहिए था । इसका कारण यही रहा कि मुस्लिम समाज के छात्रों को कुरान की परम्परागत शिक्षा देना सुनिश्चित किया गया । इससे मौलवियों का लाभ तो हुआ , प्रण मुसलमानों का लाभ नहीं हो पाया। आधुनिक शिक्षा को प्राप्त कर मुसलमानों को जितना आगे बढ़ जाना चाहिए था अपनी परम्परागत और रूढ़िवादी शिक्षा ग्रहण करने के कारण वे अपेक्षित रुप से सही दिशा में आगे नहीं बढ़ पाए।
मुस्लिम राजनीतिज्ञों के द्वारा देश में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को भी कभी ह्रदय से स्वीकार नहीं किया गया । धर्मनिरपेक्षता जैसे सरल सिद्धांत को अपनाने में भी इनको ऐसा लगता है कि जैसे तुम्हारी धार्मिक मान्यताएं आहत होंगी । फलस्वरूप धर्मनिरपेक्षता को निभाने की एक तरफा चेष्टा केवल हिन्दू समाज से ही की जाती है । हिन्दू अपनी अज्ञानता व मूर्खता का परिचय देते हुए धर्मनिरपेक्षता को अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार – मारकर भी अपनाए रखने का मूर्खतापूर्ण कृत्य करता जा रहा है । जबकि मुस्लिम लोग धर्मनिरपेक्षता को इस रूप में अपनाते हैं जिससे उनकी निजी मजहबी मान्यताएं धर्मनिरपेक्षता को अपने लिए एक सुरक्षा कवच बना लेती हैं ।
इस सम्बन्ध में बाबासाहेब अम्बेडकर अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में ही लिखते हैं : -”मुस्लिम राजनीतिज्ञ जीवन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को अपनी राजनीति का आधार नहीं मानते, क्योंकि उने लिए इसका अर्थ हिन्दुओं के विरुद्ध अपने संघर्ष में अपने समुदाय को कमजोर करना ही है। गरीब मुसलमान धनियों से इंसा पाने के लिए गरीब हिन्दुओं के साथ नहीं मिलेंगे। मुस्लिम जोतदार जमींदारों के अन्याय को रोकने के लिए अपनी ही श्रेणी के हिन्दुओं के साथ एकजुट नहीं होंगे। पूंजीवाद के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में मुस्लिम श्रमिक हिन्दू श्रमिकों के साथ शामिल नहीं होंगे। क्यों ? उत्तर बड़ा सरल है। गरीब मुसलमान यह सोचता है कि यदि वह धनी के खिलाफ गरीबों के संघर्ष में शामिल होता है तो उसे एक धनी मुसलमान से भी टकराना पड़ेगा। मुस्लिम जोतदार यह महसूस करते हैं कि यदि वे जमींदारों के खिलाफ अभियान में योगदान करते हैं तो उन्हें एक मुस्लिम जमींदार के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ सकता है। मुसलमान मजदूर यह सोचता है कि यदि वह पूंजीपति के खिलाफ श्रमिक के संघर्ष में सहभागी बना तो वह मुस्लिम मिल-मालिक की भावाओं को आघात पहुंचाएगा। वह इस बारे में सजग हैं कि किसी धनी मुस्लिम, मुस्लिम ज़मींदार अथवा मुस्लिम मिल-मालिक को आघात पहुंचाना मुस्लिम समुदाय को हानि पहुंचाना है और ऐसा करने का तात्पर्य हिन्दू समुदाय के विरुद्ध मुसलमानों के संघर्ष को कमजोर करना ही होगा।” (पृ. 229 – 230 )
इस संबंध में हम कुरान की व्यवस्था पर भी विचार करें। कुरान के बारे में मौलाना मौदूदी, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कितने ही मुस्लिम विद्वानों का मानना है कि कुरान दुनिया को अल्लाह की पार्टी (यानि मुसलमान) और शैतान की पार्टी (यानि मुसलमान) इन दो भागों में बांटकर देखती है। यानि हर मुसलमान पाक व साफ है और खुदा की संतान है, बाकी सब शैतान हैं। इस भाव के रहते भला कैसे मुसलमान अपने पड़ोसी किसी गैर मुसलमान से प्यार करेगा ? कुरान की ऐसी बहुत सी आयतें हैं जो गैर मुसलमानों को यानि शैतान की संतानों को या शैतान की पार्टी के लोगों को खत्म करने की आज्ञा देती हैं। उन्हें जब 1924 में लाला लाजपतराय ने पढ़ा तो सी.आर. दास के लिए उन्होंने लिखा था-‘मैंने गत छह माह मुस्लिम इतिहास और कानून (शरीय:) का अध्ययन करने में लगाये। मैं ईमानदारी से हिंदू मुस्लिम एकता की आवश्यकता और वांछनीयता में भी विश्वास करता हूं। मैं मुस्लिम नेताओं पर पूरी तरह विश्वास करने को भी तैयार हूं। परंतु कुरान और हदीस के उन आदेशों का क्या होगा? (जो मानवता को खुदा की पार्टी और शैतान की पार्टी में विभाजित करते हैं।) उनका उल्लंघन तो मुस्लिम नेता भी नही कर सकते।’
इसीलिए भारत में समस्या के मूल पर प्रहार करने से बचकर झूठी ऊपरी एकता की बातें करने वालों को तथा हिंदू मुस्लिम के मध्य सांस्कृतिक रूप से स्थापित गंभीर मतभेदों को उपेक्षित करते हुए कई लोग जिस प्रकार अगंभीर और अतार्किक प्रयास करते हैं, उन्हें टोकते हुए ए.ए.ए. फैजी लिखते हैं-‘इस दिखावटी एकता के धोखे से हमें बचना चाहिए। परस्पर विरोधों के प्रति आंखें नही मूँद लेनी चाहिए। पुराने धर्मग्रंथों के उद्वरण दे देकर प्रतिदिन भारत वासियों की सांस्कृतिक एकता और सहिष्णुता का बखान नही करना चाहिए। यह तो अपने आपको नितांत धोखा देना है। इसका राष्ट्रीय स्तर पर त्याग किया जाना चाहिए।’
बात साफ है कि फैजी साहब हर उस मुसलमान को जो दुनिया को दो पार्टियों में बांटता है और शरीय: में विश्वास करता है, किसी भारत जैसे देश के लिए देशद्रोही मानते हैं, और शासन को उनके प्रति किसी प्रकार के धोखे में न आने की शिक्षा देते हैं। जो मुसलमान शरीय: में विश्वास नही करते उनकी देश भक्ति असंदिग्ध हो सकती है। पर उनकी संख्या कितनी है? चाहे जितनी हो वो अभिनंदनीय हैं। उनके दिल को चोट पहुंचाना इस लेख का उद्देश्य नही है।
परंतु एम.आर.ए. बेग क्या लिखते हैं? तनिक उस पर भी विचार कर लेना चाहिए। वह लिखते हैं-‘न तो कुरान और न मुहम्मद ने ही मानवतावाद (भारत के वास्तविक धर्म का) का अथवा मुसलमान गैर मुसलमान के बीच सह अस्तित्व का उपदेश दिया है। वास्तव में इस्लाम का…धर्म के रूप में गठन ही दूसरे सभी धर्मों को समाप्त करने के लिए किया गया है। इससे यह भी समझा जा सकता है कि किसी भी देश का संविधान जिसमें मुसलमान बहुसंख्यक हों, धर्मनिरपेक्ष क्यों नही हो सकता? और धर्मनिष्ठ मुसलमान मानवतावादी क्यों नही हो सकता?’
इसका अर्थ है कि एक मुसलमान को उसकी कट्टर धर्मनिष्ठा ही देशद्रोही और मानवता विरोधी बनाती है। इसीलिए बेग साहब अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम डिलेमा इन इंडिया’ में आगे पृष्ठ 112 पर कहते हैं-‘वास्तव में कभी कभी ऐसा लगता है कि मुस्लिम आशा करते हैं, कि सभी हिंदू तो मानवतावादी हों पर वह स्वयं साम्प्रदायिक बने रहें।’
यह कितना सुखद तथ्य है कि बाबासाहेब आंबेडकर इन विद्वानों की इस प्रकार की सभी मान्यताओं और विचारों से पूर्णतया परिचित रहे । यही कारण रहा कि वह जीवन भर मुस्लिम समाज के भीतर छाई हुई बुराइयों को समझ कर उससे एक अपेक्षित दूरी बनाए रहे । जबकि आज उनके अनुयायी इन सारी बुराइयों की उपेक्षा कर कुछ दूसरा बवंडर खड़ा करने की योजनाओं पर काम कर रहे हैं । निश्चय ही यदि वे अपने इस योजना में सफल होते हैं तो यह देश के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा। समय रहते हमें बाबासाहेब के साथ न्याय करते हुए उनके विचारों को समझना और समझाना होगा।
जो लोग यह मानते हैं कि भारतवर्ष में मुस्लिम सांप्रदायिकता नाम की कोई चीज नहीं है और मुस्लिम समाज के लोग किसी प्रकार की सांप्रदायिकता में विश्वास नहीं रखते , उन्हें डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी के इन शब्दों पर भी ध्यान देना चाहिए :- “हिंदू – मुस्लिम एकता सर्वथा नामुमकिन है । मुस्लिमों की केवल इस्लाम में निष्ठा है। आजादी के बाद भी यदि मुस्लिम यहाँ रहे तो सांप्रदायिकता बनी रहेगी ।”
(स्रोत : डॉ अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय , खंड – 151)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत