मिशन लोकल पर वोकल को सफल बनाने में भारतीय नागरिकों का कैसा हो योगदान
कोरोना वायरस महामारी ने पूरी दुनिया में सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को जब ध्वस्त कर दिया है तब ऐसे समय में, भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी इस समय को भारत के लिए एक मौके की तरह देख रहे हैं। इसी कड़ी में माननीय प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में पहली बार ‘लोकल पर वोकल’ होने का नारा दिया है एवं साथ ही उन्होंने केंद्र सरकार की ओर से अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के लिये 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा करते हुये कहा था कि यह पैकेज 2020 में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक बहुत ही महत्वपूर्ण क़दम साबित होगा। माननीय प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि ‘मेक इन इंडिया’ को सशक्त बनाना अब आवश्यक हो गया है एवं यह सब आत्मनिर्भरता, आत्मबल से ही संभव होगा. पूर्व में जब देश ने स्थानीय उत्पाद को बढ़ावा देने के मामले में यह तय कर लिया था कि खादी और हथकरघा का उपयोग अपने दैनिक जीवन में बढ़ाएँगे तब इन उत्पादों की बिक्री रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई थी. इसी प्रकार यदि हम ठान लेंगे की भारत को आर्थिक दृष्टि से आत्म निर्भर बनाना है तो यह सब सम्भव कर दिखा सकने की क्षमता हमारे देश के नागरिकों में है।
दरअसल जब कोरोना महामारी फैली तब देश का ध्यान इस बात की ओर गया कि हम चीन पर आवश्यकता से अधिक निर्भर होते जा रहे हैं। दवाईयों के लिए कच्चा माल, इलेक्ट्रॉनिक्स मदों के कई उत्पाद एवं ऐसा सामान जिसका निर्माण भारत में आसानी से किया जा सकता है उसे भी हम चीन से आयात करने लगे हैं जैसे, भगवान की मूर्तियाँ, दीपावली के पावन पर्व पर उपयोग होने वाले दीये, बिजली का सामान, खिलौने, आदि। यह सूची बहुत लम्बी बन सकती है।
वर्ष 1991 में जब भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू किया गया था उस समय भारत एवं चीन में प्रति व्यक्ति आय लगभग बराबर थी। तकनीक के कुछ मामलों में भारत आगे था और कुछ अन्य मामलों में चीन आगे था। कुल मिलाकर चीन, भारत से कोई बहुत आगे नहीं था। आज 30 साल बाद भारत और चीन के बीच व्यापार तो बहुत बढ़ा है परंतु यह चीन के पक्ष में अधिक हो गया है। भारत मुख्यतः चीन को कच्चे माल का निर्यात करता है परंतु चीन भारत को मुख्यतः निर्मित सामान का निर्यात करता है। जिसके कारण रोज़गार के अवसर चीन में उत्पन्न होते हैं। वित्तीय वर्ष 2001-02 में भारत और चीन के बीच 200 करोड़ अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ था जो आज बढ़कर 8000 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का हो गया है। आज भारतीय बाज़ार चीनी सामान से भरे पड़े हैं। हो यहाँ तक रहा है कि कई भारतीय कम्पनियाँ चीन में ही वस्तुओं का निर्माण करती हैं एवं अपने ब्राण्ड की मुहर लगाकर और इसे अपना ब्राण्ड बताकर इन वस्तुओं को भारतीय बाज़ारों में बेचती हैं। यदि बहुत ही ईमानदारी से इसका विश्लेषण किया जाए तो यह समझ में आने लगता है कि जैसे जैसे चीन से भारत का व्यापारिक रिश्ता बढ़ा है वैसे वैसे भारत में औद्योगिकीकरण का ख़ात्मा होता चला गया है। साथ ही, भारत के लिए व्यापार घाटा भी बढ़ता गया है। यदि भारत में उद्योगों के विकास पर शुरू से ही बल दिया गया होता तो आज हम उपभोक्ता वस्तुओं तक का आयात चीन से नहीं कर रहे होते। यह देश के लिए एक चिंता जनक स्थिति बन गई है। इस सबका ख़ामियाज़ा मुख्यतः सूक्ष्म, लघु एवं मझौले उद्योगों को भुगतना पड़ा है।
अब यदि भारत को आत्मनिर्भर बनाने की स्थिति बनानी है तो हमें अपने मौलिक चिंतन में ही परिवर्तन करना होगा। आज यदि हम वैश्विक बाज़ारीकरण की मान्यताओं पर विश्वास करते हैं तो इस पर देश को पुनर्विचार करने की सख़्त ज़रूरत है। चीन सहित अन्य देशों से हमें कम से कम शुरुआती दौर में उन वस्तुओं के आयात को बलपूर्वक रोकना होगा जिनका निर्माण भारत में आसानी से किया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम अपने मिशन में कामयाब नहीं हो सकेंगे। इस बात पर आज मौलिक चिंतन की आवश्यकता है कि चीन से हम किस हद्द तक के रिश्ते क़ायम रखें। क्योंकि यदि रिश्तों को एकदम से प्रभावित होने दिया जाता है तो हो सकता है कि जिन वस्तुओं के लिए भारत चीन पर निर्भर है उन वस्तुओं के या तो चीन दाम बढ़ा दे अथवा इन वस्तुओं को वह भारत को निर्यात करने से ही मना कर दे। दोनों ही परिस्थितियों में भारत को नुक़सान होगा। भारतीय नागरिकों को भी अपने सोच में गुणात्मक परिवर्तन लाना होगा एवं चीन के निम्न गुणवत्ता वाले सामान को केवल इसलिए ख़रीदना क्योंकि वह सस्ता है, इस प्रकार की सोच में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। भारत में निर्मित सामान, चाहे वह थोड़ा महँगा ही क्यों न हों परंतु हमें उसे उपयोग करना ही होगा ताकि भारत की अर्थव्यवस्था को आत्म निर्भरता की ओर तेज़ी से आगे बढ़ाया जा सके एवं रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर भारत में ही उत्पन्न होने लगें।
चीन अपनी कम्पनियों को, देश से निर्यात बढ़ाने के उद्देश्य से, 8 से 12 प्रतिशत तक निर्यात प्रोत्साहन की राशि उपलब्ध कराता है। साथ ही, चीन में उत्पादों का बड़े पैमाने पर निर्माण करने के चलते उत्पादन लागत बहुत कम आती है और ये उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तुलनात्मक रूप से बहुत सस्ते में बेचे जाते हैं।
भारत का फ़ार्मा उद्योग कच्चे माल के लिए एक तरह से पूर्णतः चीन पर ही निर्भर है क्योंकि एक तो यह चीन में सस्ता मिलता है और दूसरे भारत में इसका निर्माण नहीं के बराबर हो रहा है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में 56 तरीक़े के उत्पाद हम चीन से आयात करते हैं। इसी प्रकार फ़ार्मा क्षेत्र में देश में कुल कच्चे माल की खपत का 80 प्रतिशत हिस्सा चीन से आयात होता है। यदि हमें देश की अर्थव्यवस्था को आत्म निर्भर बनाना है तो इन बातों पर पुनर्विचार करने की सख़्त ज़रूरत है। हमारी पूर्व की आर्थिक नीतियों में हमने हमारे अपने देश के निजी क्षेत्र को बढ़ावा नहीं दिया है और हम सोचते रहे कि बाज़ार की शक्तियाँ ही इस बात का ध्यान रखेंगी।
विदेशी मुद्रा की वास्तविक अदला बदली की दरें भी विदेशी व्यापार के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि किसी देश में विदेशी मुद्रा की वास्तविक अदला बदली की दर 5 प्रतिशत से बढ़ती है तो समझें कि उस देश के आयात करों में 5 प्रतिशत की कमी हो गई है। इस प्रकार तो, उदाहरण के लिए, भारत में यदि वर्ष 2008 से वर्ष 2014 के बीच विदेशी मुद्रा की अदला बदली की दर 40 प्रतिशत से बढ़ी है तो इसका आश्य यह हुआ कि भारत में आयात करों में 40 प्रतिशत की कमी हो गई है एवं इसका मतलब भारत में आयात कर कई क्षेत्रों में ऋणात्मक हो गया है। अतः विदेशी मुद्रा की वास्तविक अदला बदली की दरों को भी स्थिर रखना बहुत ज़रूरी हो गया है।
इस प्रकार, यदि हम चाहते हैं कि देश में वस्तुओं का उत्पादन बढ़े, लोगों के लिए रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर निर्मित हों तो हमें अपनी उत्पादन लागतों में कमी करनी ही होगी। बिजली के दरें, ज़मीन की क़ीमतें, लजिस्टिक से सम्बंधित क़ीमतें, वित्त पर ब्याज की दरें एवं इसी प्रकार की अन्य उत्पादन लागतों को भी कम करना होगा ताकि भारत में उत्पादित वस्तुएँ भी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धी बन सकें। साथ ही, भारतीय नागरिकों को भी देश में ही निर्मित उत्पादों को ख़रीदने के लिए आगे आना होगा चाहे वह तुलनात्मक रूप से थोड़ा महँगा ही क्यों न हो।