ओ३म्
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संसार में अनश्वर एवं नश्वर अनेक पदार्थ हैं जिनकी सिद्धि उनके निज-गुणों से होती है। वह गुण सदा उन पदार्थों में रहते हैं, उनसे कभी पृथक नहीं होते। अग्नि में जलाने का गुण है। वायु में स्पर्श का गुण है, जल में रस है जिसे हमारी रसना व जिह्वा अनुभव करती है। इसी प्रकार से पृथिवी में गन्ध का गुण हैं जिसका ग्रहण नासिका से होता है। इसी प्रकार आत्मा भी एक अनादि, नित्य, चेतन, अल्पज्ञ, सूक्ष्म, स्वल्प व अणु परिमाण, अवर्ण, अदृश्य, जन्म-मरण धर्मा, एकदेशी, ससीम, अजर, अग्नि से जलता नहीं और वायु से सूखता नहीं है, ऐसे अनेक गुणों से युक्त है। इसके लक्षण व गुण आत्मा में इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख, ज्ञान, प्राण, अपान, निमेष, उन्मेष, जीवन, मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार से युक्त, गति करना, इन्द्रियों से युक्त होना तथा उनका उपयोग करना, अन्तर्विकारों से युक्त सहित भूख, प्यास, हर्ष, शोक आदि से युक्त रहने वाला है। यह जीवात्मा के गुण हैं जिनसे जीवात्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है। जीवात्मा का स्वभाव पवित्र होता है। यह धर्म के मूल तत्वों सत्य, अहिंसा, परहित, ईश्वर को जानना व उसकी उपासना करना, दूसरे जीवों व प्राणियों को दुःख व कष्ट न देना आदि से युक्त है। जीव जन्म धारण कर सन्तानोत्पत्ति करता है, सन्तानों का पालन करता है तथा ज्ञानयुक्त विद्या के अनेक प्रकार के कार्यों यथा शिल्प विद्या आदि को करता है। जब तक आत्मा देह में रहता है तब तक ही आत्मा के गुण देह में प्रकाशित होते हैं। यह गुण जड़ देह में चेतन आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। जब जीवात्मा देह छोड़ कर चला जाता है, अर्थात् मनुष्य की मृत्यु हो जाती है, तब आत्मा के वह गुणों जो जीवित मनुष्य या पशु-पक्षियों में प्रकाशित हैं, दृष्टिगोचर नहीं होते। जिस पदार्थ व सत्ता में जो गुण प्रकाशित हों, दृष्टिगोचर हों व जिनकी प्रतीती हो तथा जिसके न होने पर वह प्रकाशित न हों, वह गुण उसी पदार्थ के होते हैं। इसको उदाहरण से भी समझा जा सकता है। जिस प्रकार सूर्य व दीपक के न होने से प्रकाश नहीं होता और होने से होता है, इस प्रकार से प्रकाश का होना सूर्य एवं दीपक के अस्तित्व पर निर्भर होता है। सूर्य व दीपक के अतिरिक्त विद्युत से भी विद्युत बल्बों व अन्य उपकरणों से प्रकाश उत्पन्न होता है। इस प्रकार से जो भी प्रकाश हमें प्राप्त होता है वह उन-उन पदार्थों, साधनों व उपकरणों से प्राप्त होता है जिससे उन उन पदार्थों व उपकरणों का अस्तित्व सिद्ध होता है। हमें यह भी जानना है सूर्य ईश्वर से प्रकाश लेता है तथा दीपक व अन्य उपकरणों में प्रकाश ईश्वर की व्यवस्था तेल व बाती आदि से आता है।
मनुष्य व पशु-पक्षी आदि प्राणियों को परमात्मा की व्यवस्था से जन्म प्राप्त होता है। हमारा यह जन्म परमात्मा की व्यवस्था से हुआ है। हम आत्मा हैं और हमें व अन्य आत्माओं को जन्म देने के लिये ही ईश्वर ने त्रिगुणात्मक सूक्ष्म अनादि प्रकृति से सृष्टि को बनाया और उसके बाद वनस्पति जगत एवं सभी प्राणियों को उत्पन्न किया। यह वनस्पति तथा जैविक सृष्टि ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ से निरन्तर होती आ रही है। मनुष्य को जन्म परमात्मा से मिलता है जिसका आधार जीवात्म के पूर्वजन्म के वह कर्म होते हैं जिसका भोग जीवात्मा को प्राप्त नहीं हुआ होता है। अभुक्त कर्मों के भोग प्राप्त करने के लिए ही जीवात्मा का जन्म होता है। हमारा जन्म भी हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ व मिला है। अन्य सभी जीवात्माओं के साथ भी ईश्वर ने इसी न्याय प्रक्रिया का पालन व क्रियान्वयन किया है। परमात्मा ने जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र बनाया है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। इसी कारण उसके अधर्म व पाप करने पर परमात्मा उसे अनेक प्रकार से उसके कर्मों के अनुरूप दण्ड और धर्म एवं पुण्य कर्म करने पर उसे पुरस्कारस्वरूप सुख देता है। परमात्मा अपनी इच्छा से किसी आत्मा को बिना पाप-पुण्य किये कोई सुख व दुख नहीं देता। बहुत से लोग ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि ईश्वर अपनी इच्छा से जिसको जैसा चाहता है वैसा जन्म व सुख दुःख देता है। यह कथन व मान्यता वैदिक शास्त्र सम्मत नहीं है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी तथा सृष्टिकर्ता है। वह सब जीवों के साथ न्याय करता है। न्याय के विपरीत वह कदापि कोई कार्य नहीं करता। जीव के कर्मों के आधार पर ही उसके सुख व दुःख निर्धारित होते हैं।
बहुत से लोग ईश्वर को त्रिकालदर्शी बताते हैं। यह सिद्धान्त वेदों से पोषित नहीं है। अनेक लोग व मत-मतान्तर ऐसा मानते हैं कि परमेश्वर त्रिकालदर्शी है। इससे वह भविष्यत् की बातें जानता है। वह जैसा निश्चय करेगा जीव वैसा ही करेगा। इससे जीव स्वतन्त्र नहीं और जीव को ईश्वर दण्ड भी नहीं दे सकता क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया है वैसा ही जीव करता है। इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में कहते हैं ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है। क्योंकि जो होकर न रहे वह भूतकाल और न होके होवे वह भविष्यत्काल कहाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान होके नहीं रहता तथा न होके होता है? इसलिये परमेश्वर का ज्ञान सदा एकरस, अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये हैं। हां जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। जैसा स्वतन्त्रता से जीव कर्म करता है वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है और जैसा ईश्वर जानता है वैसा जीव करता है (अर्थात् जीव ने किया होता है)। अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान के ज्ञान में और फल देने में ईश्वर स्वतन्त्र है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। (ईश्वर को ज्ञात है कि मनुष्य व जीव क्या क्या व कैसे कैसे कर्म कर सकते हैं और उसे उन सब कर्मों का यथोचित दण्ड देने का भी अनादि काल से ज्ञान है।) ईश्वर के कर्म एवं दण्ड दोनों के ज्ञान सत्य हैं। क्या कर्मज्ञान सच्चा और दण्डज्ञान मिथ्या कभी हो सकता है? ऐसा नहीं हो सकता इसलिये ईश्वर में कोई भी दोष नहीं आता।
ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि शरीर में जीव विभु नहीं अपितु परिछिन्न है। यदि विभु होता तो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। परमेश्वर अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है। इसलिये जीव और परमेश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है।
हमने इस लेख में यह बताया है कि जीव व आत्मा का संसार में ईश्वर व प्रकृति से पृथक स्वतन्त्र अस्तित्व है जो अनादि, अमर, नित्य, अविनाशी है। जीव अपने ज्ञान व सत्कर्मों से मोक्षगामी होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि जीव को परमात्मा ने बनाया नहीं है। अनादि व नित्य पदार्थों का स्वतःसिद्ध अस्तित्व अनादि काल से है। ऋषि दयानन्द के सभी सिद्धान्त वेद, सत्य, तर्क, युक्ति, ज्ञान व वैज्ञानिक चिन्तन पर आधारित हैं। हमें सोचना है कि हम अनादिकाल से हैं, आज भी हैं और हमेशा रहेंगें। हम दुःख से द्वेष करते हैं और हर स्थिति में सुख चाहते हैं। यह सुख प्राप्ति और दुःख निवृत्ति हमें कैसे प्राप्त हो सकती है? इसका एक ही उपाय है कि हम सब वेदों का स्वाध्याय एवं वेद निर्देशित कर्तव्यों व आचरणों को करें। वेदाध्ययन से हमें ईश्वर, जीवात्मा सहित संसार का सत्यस्वरूप विदित होता है। अपने कर्तव्य कर्मों का ज्ञान भी होता है। हमें ईश्वर की उपासना, यज्ञादि कर्म तथा शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करनी है। योगाभ्यास व ईश्वरोपासना करके हम ईश्वर साक्षात्कार कर सकते हैं जिसका परिणाम ही मोक्ष की प्राप्ति होती है जहां जीवों को किसी प्रकार का लेशमात्र भी दुःख नहीं होता। यही मनुष्य के लिए प्राप्तव्य एवं आत्मा का अन्तिम लक्ष्य है। इसी लिये परमात्मा ने हमे ंमनुष्य जन्म दिया है। हमें अपने इस मनुष्य जन्म का उपयोग करके ज्ञान, कर्म एवं उपासना का साधन कर साध्य ईश्वर को प्राप्त करना है जिससे हमारे सभी दुःखों की सर्वथा निवृत्ति हो सके। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य