मनुष्य का जन्म प्राप्त करने के पश्चात जो गर्भ में रहते हुए शुभ कर्म करने की प्रतिज्ञा की थी , मनुष्य उसको प्राय: भूल जाता है और प्रकृति व जगत में रमण करता है । ईश्वर में रमण नहीं कर पाता । जो प्रकृति में और जगत में रमण करता है वह बंधन में पड़ जाता है और जो अपनी प्रतिज्ञा को याद रखता है , शुभ कर्म करता है , ऊर्ध्वगति को प्राप्त करता है , वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
जीव कर्म करने में स्वतंत्र है , लेकिन फल पाने में परतंत्र है ,क्योंकि फल ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है। ईश्वर पक्षपात रहित न्यायकारी है , इसीलिए उसको धर्मराज भी कहते हैं अर्थात जिसका धर्म का राज है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसने जैसा किया है वह वैसा ही भोगेगा। ईश्वर कभी पाप क्षमा नहीं करता, क्योंकि यदि वह पाप क्षमा करने लगे तो उसकी न्याय की व्यवस्था बिगड़ जाएगी और उसको न्यायकारी नहीं कह पाएंगे।
ईश्वर ने कर्म करने में जीव को इसलिए स्वतंत्र किया है जिससे उसे अपने पाप और पुण्य का फल प्राप्त होता रहे।
परमात्मा के विशेष गुण क्या हैं ?
परमात्मा के निम्न चार विशेष गुण हैं – पहला सृष्टि को उत्पन्न करना, दूसरा प्रलय करना ,तीसरा पाप और पुण्य कर्मों का फल देना ,चौथा संसार को पालन करना। अर्थात परमेश्वर सृष्टि की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय सबको नियम में रखता है जीवों को पाप और पुण्य के फल देता है। ईश्वर के नित्य ज्ञान, आनंद ,अनंत बल आदि गुण हैं।
जीव के मुख्य गुण क्या हैं ?
मोटे तौर पर 24 गुण होते हैं :-
जैसे इच्छा ,द्वेष,प्रयत्न, सुख, दुख ,ज्ञान, प्राण, अपान , निमेष (आंख को मीचना) उन्मेष ,(आंख को खोलना) मन (निश्चय स्मरण और अहंकार),गति ,(चलना)इंद्रियों को चलाना, अंतर विकार, क्षुधा, तृषा ,हर्ष ,शोक , संतानोत्पत्ति करना, उनका पालन करना, शिल्प विद्या,आदि होते हैं । लेकिन ऋषियों ने दो ही गुण जीव के मुख्य माने जो निम्न प्रकार हैं :– क्योंकि यह दो ही गुण जीवात्मा में रह जाते हैं।
पहला ज्ञान ,दूसरा प्रयत्न।
ऐसा क्यों ?
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह दो गुण जीवात्मा में नित्य रहते हैं । यह किसी भी काल में समाप्त नहीं होते। यह जीव ज्ञान के द्वारा प्रभु को जान लेता है और प्रयत्न के द्वारा उसमें रमण करता रहता है। आनंद ही आनंद भोगता रहता है। परंतु प्रयत्न से आनंद भोगा जाता है। जीवन में यह दोनों गुण कभी समाप्त नहीं होते। चाहे जीव परमात्मा को पा करके ब्रह्म ही बन जाए। यह दो गुण तो आत्मा के स्वाभाविक हैं ।यह गुण कदापि नहीं जाते।
जीव और परमात्मा में समानता क्या है ?
पहली समानता है कि दोनों चेतन रूप हैं। दूसरी समानता है कि दोनों का स्वभाव पवित्र होता है। तीसरी समानता है कि दोनों अविनाशी हैं। चौथी समानता है कि दोनों में धार्मिकता है।
परंतु यहां यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक एवं अनिवार्य हो जाता है कि ईश्वर जीव और प्रकृति तीनों ही अनादि हैं। प्रकृति जीव और परमात्मा इनका कभी जन्म नहीं होता ।ये अजन्मा हैं। ये अज हैं।
परंतु ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है।
जीवों के कर्म की अपेक्षा से ईश्वर त्रिकालज्ञ है अर्थात ईश्वर वर्तमान ,भूत और भविष्य की सब बातों को प्रत्येक जीव के प्रति जानता है। ईश्वर जानता है कि इस योनि से पहले यह कौन सी योनि में था , जीव उस योनि में इसमें क्या – क्या कर्म किए थे ? अब इस योनि में रहते हुए यह क्या – क्या कर्म कर रहा है ? इन कर्मों के आधार पर इसको भविष्य में क्या सजा देनी है या कौन सी योनि देनी है ? या इसको मोक्ष देना इस प्रकार इस पर तीनों को जानता है। लेकिन ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना उचित नहीं है।
प्रकृति के गुण या लक्षण क्या हैं ?
प्रकृति में सत्व ,रज और तम तीन वस्तु मिली हुई हैं ।इन तीनों से मिलकर जो संघ बना है उसको हम प्रकृति कहते हैं। और यह तीनों ही जड़ हैं। इसलिए इन तीनों का संघ प्रकृति जड़ है।
मनुष्य के अंदर बुद्धि, अहंकार ,5 तन्मात्राएं सूक्ष्म भूत (शब्द, स्पर्श, रूप ,रस, गंध), पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, नाक ,कान, रचना, त्वचा), 5 कर्मेंद्रियों (हाथ, पैर, मलद्वार , जननेंद्रिय आदि), इन्हीं के साथ 11वां मन, पंचभूत (पृथ्वी ,जल, आकाश, वायु ,अग्नि) यह 24 पदार्थ होते हैं लेकिन इन पदार्थों का मूल प्रकृति है अर्थात यह प्रकृति से उत्पन्न है। यही 24 पदार्थ जब आत्मा से अलग हो जाते हैं तो केवल आत्मा के स्वाभाविक गुण, ज्ञान और प्रयत्न उसके पास रह जाते हैं। इनसे अलग 25 वां जीव है और 26 वां परमेश्वर है।
प्रकृति के जो 3 गुण ऊपर बताए गए हैं सत,रज और तम ,यह तीनों भी परस्पर विरोधी होते हैं। सत्य की प्रबलता यदि शरीर में या जीव में है, तो रज ,तम सदैव उसका विरोध करते रहते हैं अर्थात जब तक इन तीन गुणों की प्रवृत्ति मनुष्य के हृदय में बाकी रहती है। तब तक देवासुर संग्राम मनुष्य के भीतर जारी ही रहता है ।लेकिन योगी ही केवल प्रकृति के तीनों गुणों से अलग होकर अर्थात सत ,रज और तम तीनों गुणों से बच सकता है, अर्थात प्रकृति के चक्कर में नहीं आ सकता।
यह स्पष्ट होता है कि जो विवेकी पुरुष होते हैं , उनके लिए सतोगुण के कारण सांसारिक सुख भी यदि मिल रहा है तो वह भी उनके लिए दुख ही है। क्योंकि वह प्रकृति जन्य है।
यहां यह भी स्पष्ट होता है कि हमारा शरीर केवल आत्मा को छोड़कर सारा प्रकृति से बना हुआ है।
आत्मा के परिवार में कौन-कौन आता है ?
आत्मा जो मानव शरीर के अंदर रहता है , इसके साथ में इसके परिवार में मन, बुद्धि पांच ज्ञानेंद्रिय ,पांच कर्मेन्द्रियां और पांच प्राण हैं। इस प्रकार कुल 17 तत्व का समूह आत्मा के परिवार में शामिल है।
मन स्मरण और विचार की शक्ति से ओतप्रोत है। कर्मेंद्रीयां कर्म करने और ज्ञानेंद्रियां ज्ञान पाने की सत्ता रखती है ।इसी प्रकार बुद्धि इन सब का स्वामी माना जाता है। क्योंकि बुद्धि द्वारा इन सब को ग्रहण किया जाता है। बुद्धि ही सत्य , असत्य, पाप , पुण्य ,उचित अनुचित, धर्म -अधर्म ,कर्तव्य – अकर्तव्य का निर्णय करती है। क्योंकि जो वाक्य बुद्धि में आया उसको वह अंतःकरण को देती है।अंतःकरण के विषय में हम जानते हैं कि यह वह स्थान है जहां मानव के जन्म जन्मांतर के संस्कार विद्यमान रहते हैं।
उसके बाद आत्मा है और आत्मा इस परिवार के कारण ही बार-बार शरीरों को विभिन्न योनियों में धारण करता है। क्योंकि वह परिवार से बंधा होता है। आत्मा जो हृदय स्थल में विराजमान हैं उसे अपने इस परिवार के कारण ही शरीर में आना अनिवार्य हो जाता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।