ऐसी परिस्थितियों में गुरु को अपने कर्तव्य कर्म को समय के अनुसार पहचानना बहुत आवश्यक है । निश्चय ही देश और समाज की स्थिति और परिस्थितियों को सुधारने में आज भी शिक्षक का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। सारा देश शिक्षक की ओर बहुत ही आशा भरी दृष्टि से देख रहा है । यह ध्यान रहे कि जिस देश का शिक्षक बिगड़ जाता है ,समझ लो उसका भविष्य अपने आप अंधकारमय हो जाता है । देश में राष्ट्रीय चरित्र इसलिए नहीं बन पा रहा है कि देश के कई शिक्षक स्वार्थपूर्ण सोच से ग्रस्त हैं । जबकि उनके इस प्रकार की सोच से बाहर निकलने की आवश्यकता है । राष्ट्र तथा धर्म रक्षा की शिक्षा देने के लिए गुरु को अपने महान दायित्व का निर्वाह करना चाहिए।
ईश्वरीय व्यवस्था और गुरु
हमें ध्यान रखना चाहिए कि जीवन एक साधना का नाम है । जीवनरूपी साधना का पूर्ण कराने वाला गुरु होता है । इसी प्रकार धर्म रक्षा और राष्ट्र रक्षा भी एक बहुत बड़ी साधना का ही नाम है । यह सर्वमान्य सत्य है कि जीवन की साधना को जिस प्रकार गुरु पूर्ण कराता है उसी प्रकार धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा को भी गुरु का उचित मार्गदर्शन ही पूर्ण करा सकता है । प्राचीन काल में अपने इस कर्तव्य कर्म को करने वाले अनेकों ऐसे योगी , संन्यासी , ऋषि और महर्षि हुए हैं जिन्होंने समय आने पर धर्मरक्षा और राष्ट्र रक्षा का महान कार्य संपादित किया है। अपने इस गुरुतर दायित्व का निर्वाह करने वाले आचार्य चाणक्य आज तक भारतवासियों के लिए आदर्श और प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं । उन्होंने तत्कालीन विषम परिस्थितियों में राष्ट्र रक्षा व राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए महान कार्य किया । जो कि इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखे जाने योग्य है।
जब जब संसार में धर्म की हानि होती है तो संसार की बिगड़ी हुई दशा को धर्मानुकूल बनाने में शिक्षक , गुरु अथवा आचार्य ही संसार के लोगों का मार्गदर्शन करते हैं ।असुरमर्दन का उपाय भी गुरु ही बताते हैं।
सज्जनों का कल्याण और दुर्जनों का विनाश करना ईश्वरीय व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाए रखने के लिए आवश्यक है । इसका गुर भी गुरु ही बताते हैं कि कैसे ईश्वरीय व्यवस्था को संसार में सुचारू रूप से चलाया जा सकता है ? ईश्वर की व्यवस्था को धर्मानुसार चलाने में गुरुओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है । बात स्पष्ट है कि ईश्वर हमें वेदों के माध्यम से एक व्यवस्था प्रदान करते हैं और उस व्यवस्था को चलाए रखने का मार्ग हमें गुरु प्रदान करते हैं । इस प्रकार ईश्वरीय व्यवस्था को व्यवस्थित बनाए रखने में गुरु का मार्गदर्शन हमारे लिए बहुत उपयोगी होता है।
गुरु ही शिष्य को यह बताता है कि संसार को बनाने के पीछे ईश्वर का प्रयोजन क्या है ? गुरु ,ही उसे यह भी बताता है कि ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार संसार को कैसे न्यायपरक शासन देना है ? कैसे अत्याचारियों का दमन करना है और कैसे समाज को ऐसे सभी अवसर उपलब्ध कराने हैं जिनसे व्यक्ति का शारीरिक , मानसिक और बौद्धिक विकास हो सके ?
शिक्षा सिखा रही है अधिकारों के लिए लड़ना
आज के समय में व्यवस्था के अव्यवस्थित होने का एक कारण यह है कि सारी शिक्षा व्यवस्था ही रोजगारप्रद बना दी गई है । जबकि शिक्षा का संस्कारप्रद होना आवश्यक है । आज के अध्यापक वर्ग को इस क्षेत्र में पहल करनी चाहिए । उनका कर्तव्य है कि शिक्षा को संस्कारप्रद बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाएं । जिससे व्यक्ति निर्माण से समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण का उनका शिव संकल्प पूर्ण हो सके।
आज की शिक्षा अधिकारों के लिए लड़ना सिखा रही है । जिससे सारे संसार में और समाज में अधिकारों के लिए लड़ने की बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति जागृत हो गई है । मनुष्य मनुष्य न रहकर पशुता का आचरण कर रहा है । पशुता के इस आचरण को शुद्ध कर मानवीय आचरण बनाने में शिक्षकों का महान योगदान हो सकता है । इसके लिए यह भी आवश्यक है कि शिक्षक स्वयं भी अधिकार प्रेमी न होकर कर्तव्यप्रेमी हों , कर्तव्य परायण हों और धर्म व न्याय के सूक्ष्म सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले हों। वे स्वयं यह समझने वाले हैं कि यदि वह समाज और राष्ट्र से वेतन प्राप्त कर रहे हैं तो वेतन से अधिक नहीं तो कम से कम वेतन की बराबर का ऋण समाज का चुकता कर दें अर्थात इस बात का ध्यान रखें कि जितना वेतन मैं ले रहा हूँ उतना ही समाज को सही बनाने में अपना योगदान भी दे दूँ । शिक्षक का धर्म उसे यही कर्तव्य सिखाता है और न्याय का नैसर्गिक सिद्धांत भी यही बताता है कि जितना किसी से लेते हो उसका सवाया करके उसे लौटा दो।
धर्म व न्याय के सूक्ष्म सिद्धांतों में विश्वास रखने वाले शिक्षकों से ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे अधिकारों से पहले कर्तव्य पर ध्यान देने वाले समाज और राष्ट्र का निर्माण करने में अपनी महती भूमिका का सत्य निष्ठा से निर्वाह कर सकते हैं।
धर्म प्रत्येक व्यक्ति के अंतःकरण की पवित्र अवस्था को प्रकट करता है , अर्थात जो धर्म में आस्था रखता है और धर्मानुकूल आचरण और व्यवहार करता है , उसका अंतःकरण बहुत पवित्र होता है , जो उसे बार-बार कर्तव्य पथ पर टिके रहने के लिए प्रेरित करता रहता है। उसके अंतःकरण में किसी भी प्रकार की कोई मलीन वासना निवास नहीं कर पाती । यही कारण है कि एक धर्म प्रेमी व्यक्ति मानवता प्रेमी होता है । हमारे पूर्वजों ने इसीलिए धर्म और मानवता को एक समान घोषित किया । मानवता के प्रचार प्रसार के लिए संपूर्ण मानव समाज जिस संस्था के अंतर्गत रहकर अपने कार्यों को मूर्त्तरूप देता है , उसे राष्ट्र कहा जाता है । इस प्रकार राष्ट्र , धर्म और मानवता ये सभी जिस समीकरण को बनाते हैं उस समीकरण का योग प्राणीमात्र का कल्याण आता है ।
शिक्षा और शिक्षक ऐसे हों जो इस समीकरण के अनुकूल चलने वाले हों । यदि शिक्षा और शिक्षक दोनों की दिशा राष्ट्र ,धर्म और मानवता के विपरीत है तो समझना चाहिए कि उस देश का समाज बिगड़ रहा है और उसके भविष्य पर बड़े बड़े भारी प्रश्नचिन्ह लगते जा रहे हैं ।
राष्ट्र , धर्म और मानवता से मिलकर संस्कृति का निर्माण होता है । इस संस्कृति के निर्माण के लिए प्राचीन काल में आर्यजन बड़े बड़े विश्वविद्यालयों की स्थापना किया करते थे । जिनमें राष्ट्र ,धर्म व मानवता के समीकरण को साधने का प्रयास किया जाता था। इस महान कार्य का निष्पादन आचार्य लोग किया करते थे । इस प्रकार आचार्य के कंधों पर धर्म की स्थापना , राष्ट्र का निर्माण और मानवता का कल्याण कर संस्कृति का प्रचार – प्रसार करना होता था। इस महान कार्य के संपादन के लिए आर्य चाणक्य ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में ‘आचार्य’ के पद पर नियुक्त होने पर मात्र विद्यादान कर स्वयं को धन्य नहीं समझा, अपितु चंद्रगुप्त जैसे अनेक शिष्यों को क्षात्र-उपासना महामन्त्र देकर उनके द्वारा विदेशी ग्रीकों के भारतवर्ष पर हुए आक्रमण को विफल किया एवं भारतवर्ष को एकता के सूत्र में पिरोया । वास्तव में शिक्षक ऐसा ही होना चाहिए जिसकी शिक्षा से उसके विद्यार्थियों के भीतर राष्ट्रवाद मचलने लगे , कर्तव्य पथ पर बढ़ने के लिए उसके पैर ऊंची छलांग मरने को तैयार हो जाएं और मन में राष्ट्रभक्ति , प्रभुभक्ति और मानव भक्ति की त्रिवेणी बहने लगे।
आज के शिक्षक वर्ग को भी अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए आगे आना चाहिए । उसे देखना चाहिए कि वह धर्म की स्थापना में कितना योगदान दे रहा है ? राष्ट्र निर्माण में उसकी कैसी भूमिका है ? मानवता के कल्याण के लिए उसके कार्य कितने प्रेरक हैं ? साथ ही उसे यह भी देखना चाहिए कि क्या वह संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपनी भूमिका का समुचित निर्वाह कर रहा है या नहीं ?
जो मुक्ति का मार्ग बताए वही शिक्षा है
रोजगार दिलाने वाली शिक्षा शिक्षा नहीं होती , बल्कि हमारे यहां पर कहा गया है कि – सा विद्या या विमुक्तये- अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति दिलाए। वर्तमान परिस्थितियों में शिक्षकों का कर्तव्य है कि वह अपने विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान देकर उससे अलग उन्हें मुक्ति के साधनों के विषय में भी बताने का प्रयास करें ।जिससे वे सुसंस्कृत व्यक्ति के रूप में अपने आपको समाज के सामने प्रस्तुत कर सकें ।
अर्थोपार्जन कराने में सहायता करने वाली शिक्षा को ही आज के विद्यार्थी ने शिक्षा मान लिया है । इस सोच को बदलने में शिक्षक वर्ग ही अच्छी भूमिका निभा सकता है। इसके स्थान पर शिक्षा के बारे में विद्यार्थियों का यह दृष्टिकोण स्थापित करना भी गुरुओं का कर्तव्य है कि विद्या हमें मुक्ति का साधन बताती है और हमें सुसंस्कृत मानव बनाकर संसार की हमारी यात्रा को सरल से सरल करने का एक साधन है। इसके लिए शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे अपने विद्यार्थियों को कर्तव्य परायण बनाएं। उन्हें राष्ट्र के प्रति निष्ठावान बनाएं और समाज के प्रति बहुत ही सजग और जागरूक व्यक्ति के रूप में उनका निर्माण करें।
भावशून्य शिक्षा बच्चों के भीतर जिस प्रकार की भावशून्यता को जन्म दे रही है उससे समाज में बाल अपराध बढ़ रहे हैं। विद्यार्थी अपने सहपाठियों के साथ या अध्यापकों या स्कूल प्रबंधन के साथ हिंसक व्यवहार करने से भी नहीं चूक रहे हैं । इन्हीं कुसंस्कारों को लेकर विद्यार्थी विद्यालय से शिक्षा पूर्ण कर समाज में आ रहे हैं । समाज में रहकर भी चाहे नौकरी करें या फिर कुछ अपना निजी व्यवसाय करें , उन सबमें भी उनकी यही हिंसक प्रवृत्ति ही देखी जा रही है , जिससे समाज में अस्त व्यस्तता और बेचैनी बढ़ती जा रही है। इस प्रकार की हिंसक मनोवृति से शिक्षक ही समाज को मुक्ति दिला सकते हैं। इसके लिए भी अध्यापकों को अपना कर्तव्य पहचानना होगा। उसे समझना होगा कि यदि शिक्षा हिंसा और दुराचार को बढ़ावा दे रही है तो वह अपने व्यक्ति से समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के कार्य का सही ढंग से निर्वहन नहीं कर पा रहा है।
आज भ्रष्टाचार भी देश और समाज को बुरी तरह अपनी गिरफ्त में ले चुका है। आप किसी भी सरकारी या गैर सरकारी कार्यालय में जाएं , वहीं पर आपको भ्रष्टाचार से दो चार होना पड़ता है । शिक्षा का व्यवसायीकरण होने के कारण यह स्थिति पैदा हुई है। शिक्षा को नि:शुल्क प्रदान करना जहां सरकार की जिम्मेदारी है , वहीं शिक्षा का व्यवसायीकरण न हो और विद्यार्थियों को महंगी शिक्षा न मिलकर नि;शुल्क शिक्षा मिले , इसके लिए भी अध्यापकों का विशेष दायित्व बनता है। उन्हें ट्यूशन की प्रवृत्ति से बाहर निकल कर बच्चों के भीतर सुसंस्कार प्रदान करने की अपनी प्राचीन पद्धति को अपनाना होगा।
बच्चों के साथ अभद्र मजाक करने , अशोभनीय हंसी हंसने , बीड़ी , सिगरेट, शराब आदि पीने की प्रवृत्ति से भी अध्यापकों को बचना चाहिए । उन्हें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि वह समाज और राष्ट्र का निर्माण करने वाले हैं। समाज को वह अपने विद्यार्थी के रूप में जिस नागरिक को दे रहे हैं वह जिम्मेदार बने और साथ ही समाज व राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य को समझने वाला भी बने , इसके लिए आवश्यक है कि वह स्वयं किसी भी प्रकार की दुष्प्रवृत्ति या दुर्व्यसन से सदा दूर रहें।
अपने विद्यार्थियों के मध्य बिना किसी पूर्वाग्रह के सदा न्यायपूर्ण व्यवहार करने वाला दृष्टिकोण अध्यापकों को अपनाना चाहिए । जातीय आधार पर सवर्ण , ओबीसी या एससी आदि के मध्य अध्यापक वर्ग भी भेदभाव करता देखा जाता है । जाति विशेष का होने से वह सजातीय विद्यार्थियों के प्रति कुछ अधिक उदार दृष्टिकोण अपनाते हैं , जबकि किसी अन्य वर्ग या संप्रदाय के विद्यार्थियों के प्रति उनका दृष्टिकोण कुछ दूसरा होता है । इस प्रकार का जातिभेदक या संप्रदायभेदक दृष्टिकोण विद्यालयों में अपनाना देश और समाज के लिए बहुत ही खतरनाक है । अध्यापकों का कर्त्तव्य है कि समतामूलक समाज की संरचना का संस्कार वह अपने विद्यार्थियों को विद्याध्ययन के काल में दें। जिससे समाज में वर्गभेद , जातिभेद या संप्रदायभेद का विष न घुलने पाए।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि विद्यालयों में विद्यार्थियों को यौन शिक्षा तो दी जा रही है , परंतु वीर्य संरक्षण के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है। जबकि प्रकृति का नियम है कि यौन शिक्षा देने की किसी भी प्राणी को आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह नैसर्गिक ज्ञान प्रत्येक प्राणी को स्वाभाविक रूप से मिला हुआ है। शिक्षा देनी है तो इस बात की दी जाए कि वीर्य संरक्षण किस प्रकार हो और उसके क्या-क्या लाभ हो सकते हैं ? क्योंकि इस जीवनी शक्ति का संचय करने के अनेकों लाभ हैं । सबसे बड़ा लाभ तो यह है कि विद्यार्थी अपनी सहपाठिन लड़की को यदि बहन समझेगा और लड़की सहपाठी विद्यार्थी को अपना भाई समझेगी तो इससे देश और समाज का चरित्र ऊंचा होगा । जिससे एक बहुत ही सकारात्मक परिवेश निर्मित होगा। इसके लिए आवश्यक है कि वीर्य संरक्षण की शिक्षा विद्यालयों में देनी आरम्भ की जानी चाहिए । जिसकी पहल अध्यापकों को ही करनी चाहिए।
अपने कर्तव्यों की ओर यदि अध्यापकगण ध्यान देंगे तो निश्चय ही देश और समाज का आशातीत भला होगा। अध्यापकों को इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए कि उन्हें तो वेतन चाहिए, इसके अतिरिक्त विद्यार्थी क्या कर रहे हैं और किधर जा रहे हैं ? इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है । इस प्रकार की स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति से अधिकारों की तो रक्षा हो सकती है परंतु कर्तव्यपरायण समाज की संरचना का सपना कभी साकार नहीं हो सकता।
शिक्षा जगत् में कार्य करने वाले अध्यापक वर्ग का चरित्र , आचरण और व्यवहार सब कुछ समाज पर सकारात्मक और सार्थक प्रभाव डालता है । कई बार अध्यापकगण अपने ही साथियों के विषय में अपने ही विद्यार्थियों के सामने उनकी बुराई करते हैं , उनके लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हैं या उनकी निंदा करते हैं। इन सब अशोभनीय बातों को जब विद्यार्थी अपने अध्यापकों के द्वारा किए जाते हुए देखते हैं तो उसका बहुत ही बुरा प्रभाव विद्यार्थियों की सोच पर पड़ता है। उनका यह व्यवहार छात्रों को दुर्व्यवहार ही सिखाता है। वे भी परस्पर ऐसा व्यवहार करने लग जाते हैं। अध्यापकों के पारस्परिक मन-मुटाव का प्रभाव छात्रों की शिक्षा पर भी पड़ता है। निश्चित रूप से छात्रों का परीक्षा परिणाम तो प्रभावित होता ही है साथ ही उनकी मानसिकता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। अतः अध्यापकों का यह भी कर्तव्य है कि वह अपनी गरिमा का सदैव ध्यान रखें और ऐसा कोई भी आचरण या व्यवहार अपनी कार्यशैली से या कार्य व्यवहार से प्रकट न करें , जिसका बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता हो। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि अध्यापकों को अपने वस्त्रों का भी ध्यान रखना चाहिए । उनकी वेशभूषा में सादगी दिखाई देनी चाहिए। भड़कीले वस्त्र पहनकर यदि अध्यापक विद्यालयों में जाएंगे या साज श्रृंगार करके विद्यालय में प्रवेश करेंगे तो उसका प्रभाव भी विद्यार्थियों पर अच्छा नहीं पड़ता। उन्हें सादगी का प्रदर्शन करना चाहिए । साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह सादगी भी उनके आचरण का एक अभिन्न अंग हो अर्थात दिखावे के लिए न होकर वास्तविकता में हो ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अध्यापकों अर्थात गुरुजनों का गुरुतर दायित्व आज भी समाज निर्माण में उतना ही है , जितना प्राचीन काल में था । अतः उनकी कर्तव्यपरायणता का भी समाज पर बहुत ही सार्थक प्रभाव पड़ता है। निश्चय ही एक कर्तव्यपरायण अध्यापक ही कर्तव्यपरायण समाज और राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत