15 जून की रात को पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में जो हुआ उसे देखते हुए लगता है कि मेजर करीम ने खतरे को भांप लिया था. उस दिन भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुई एक मुठभेड़ में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए. चीन के भी 43 सैनिकों के मारे जाने या गंभीर रूप से घायल होने की खबरें आईं. हालात फिलहाल तनावपूर्ण बने हुए हैं.
लेकिन यदि भारत और चीन के राजनीतिक संबंधों को देखें तो स्थिति कुछ अलग नजर आती है. अपने छह साल के कार्यकाल के दौरान अब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ 18 बार मुलाकात कर चुके हैं. इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं.
ऐसा ही कुछ 1962 में भी हुआ था. उस वक्त भी हालात कमोबेश आज जैसे ही थे. सीमा पर जो क्षेत्र तब विवादास्पद थे वे आज भी वैसे ही हैं. तब भी कुछ सैन्य विशेषज्ञ चीन से संभावित खतरों के लिए चेतावनी दे रहे थे, जिन्हें तब भी नजरअंदाज किया जा रहा था. राजनीतिक यात्राएं और वार्ताएं तब भी जारी थीं. बल्कि उस दौर में तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ जैसे नारे भी खूब गूंजा करते थे. लेकिन तभी चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया. इसीलिए 1962 का वह युद्ध आज तक एक रहस्य ही बनकर रह गया है.
बीते पचास सालों में आई कई रिपोर्टों और किताबों के जरिये 1962 के युद्ध को समझने में थोड़ी बहुत मदद जरूर मिलती है. लेकिन पक्के तौर पर आज भी नहीं कहा जा सकता कि चीनी हमले की वजह क्या थी. इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में काफी विस्तार से उन परिस्तिथियों का जिक्र किया है जिनके चलते पंडित जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती धीरे-धीरे फीकी पड़ी और अंततः दोनों देश युद्ध में उलझ गए. भारत और चीन के बीच तिब्बत का मसला कैसे आया।
इन परिस्थितियों की शुरुआत गुहा ने 1950 के दशक के तिब्बत से की है. तिब्बत में चीनी सैनिकों का हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा था. इसके विरोध में 1958 में पूर्वी तिब्बत के खम्पा लोगों ने सशत्र विद्रोह छेड़ दिया. शुरुआत में खम्पा लोगों को कुछ सफलता भी मिली लेकिन अंततः चीनी सैनिकों ने विद्रोहियों को समाप्त कर दिया. इसके बाद दलाई लामा को भी धमकियां मिलने लगीं. उन पर खतरा बढ़ गया था. ऐसे में उन्होंने भारत में शरण लेने का मन बनाया. भारत उन्हें शरण देने को तैयार हो गया. प्रधानमंत्री नेहरू से मिलकर दलाई लामा ने उन्हें खम्पा विद्रोह के बारे में जानकारी दी. नेहरू ने दलाई लामा को बताया कि भारत तिब्बत की आज़ादी के लिए चीन से युद्ध नहीं कर सकता. साथ ही नेहरू ने यह भी कहा कि ‘सारी दुनिया मिलकर भी तिब्बत को आज़ाद नहीं करवा सकती जब तक कि चीन ही पूरी तरह से नष्ट न हो जाए.’
इस वक्त तक भारत और चीन के संबंध और कारणों से भी बिगड़ने लगे थे. इसी समय भारत सरकार को सूचनाएं मिलने लगीं कि चीन सीमा के नजदीक बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण कर रहा है. जुलाई, 1958 में चीन की एक सरकारी पत्रिका ‘चाइना पिक्टोरिअल’ में कुछ विवादास्पद नक़्शे छापे गए. इन नक्शों में नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी आज का अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख के बड़े इलाके को चीन का हिस्सा दिखाया गया था. दिसंबर 1958 में जवाहरलाल नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री को इस संबंध में एक पत्र लिखा. इन नक्शों में जिस तरह से भारतीय इलाकों को चीन का हिस्सा दिखाया गया था उस पर नेहरू ने अपना विरोध दर्ज करते हुए लिखा था जब 1956 में उन दोनों की मुलाकात हुई थी तो चीनी प्रधानमंत्री ने मैकमोहन लाइन को स्वीकारते हुए मान्यता देने की बात कही थी. तब दोनों इस बात पर भी सहमत थे कि भारत और चीन के बीच कोई भी बड़ा सीमा विवाद नहीं है.
भारत के प्रधानमंत्री को एक महीने बाद ही जवाबी पत्र मिल गया. जवाब में चाऊ इन लाइ ने कहा कि मैकमोहन लाइन ब्रितानी हुकूमत की विरासत है जिसे चीन कभी भी मान्यता नहीं दे सकता. साथ ही उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच हमेशा से रहे सीमा विवाद को कभी सुलझाया नहीं गया था. 22 मार्च, 1959 को नेहरू ने एक और पत्र लिखकर इस बात के कई प्रमाण दिए कि चीनी नक्शों में दर्शाए गए इलाके दरअसल भारत के अभिन्न अंग हैं. साथ ही उन्होंने अपने इस पत्र में यह भी उम्मीद जताई कि जल्द ही दोनों देशों इन मसलों पर किसी सहमति पर पहुंच जाएंगे. नेहरू के इस पत्र का जवाब आ पाता उससे पहले ही दलाई लामा भारत आ गए.
यहां से भारत और चीन के रिश्ते और भी ज्यादा बिगड़ने लगे. चीन ने आरोप लगाया कि भारत-चीन संबंधों को बिगाड़ने की पहल भारत की ओर से की जा रही है. भारतीय जनता का चीन के खिलाफ होना और सेना का असमंजस इसी दौरान मुंबई में भी एक घटना हुई जिसके कारण चीन को भारत पर निशाना साधने के कुछ और कारण मिल गए. मुंबई स्थित चीनी महावाणिज्य दूतावास के कार्यालय की दीवार पर कुछ प्रदर्शनकारियों ने माओ त्से तुंग की तस्वीर टांगकर उस पर अंडे और टमाटर फेंके. चीन ने इस घटना पर नाराजगी जताते हुए चेतावनी दी कि यदि भारत इस घटना पर उचित कार्रवाई नहीं करता तो इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
भारत-चीन सम्बन्ध जिस तेजी से सीमा पर बिगड़ रहे थे लगभग उसी गति से भारतीय जनता में भी चीन के खिलाफ माहौल बन रहा था. विपक्षी पार्टियों के दबाव में भारत सरकार ने सितंबर, 1959 को एक श्वेत पत्र जारी किया. इसमें पिछले पांच वर्षों में चीन से हुए पत्राचार का पूरा ब्यौरा था. इस श्वेतपत्र के सार्वजनिक होने से भारतीय जनता को चीन द्वारा सीमा पर की जा रही गतिविधियों की पूरी जानकारी मिल गई. रामचंद्र गुहा अपनी किताब में लिखते हैं, ‘यदि यह श्वेतपत्र जारी नहीं हुआ होता तो भारत-चीन सीमा विवाद को राजनीतिक या कूटनीतिक स्तर पर भी सुलझाया जा सकता था. लेकिन इनके सार्वजनिक होने के बाद जनता में चीन के प्रति आक्रोश था और तब राजनीतिक हल ढूंढना चीन के सामने घुटने टेकने जैसा हो गया था.’
उस दौर में वीके कृष्णा मेनन केन्द्रीय रक्षा मंत्री थे. वे प्रधानमंत्री के काफी करीबी माने जाते थे. लेकिन तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमैया से उनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे. जनरल थिमैया का मानना था कि उनकी सेना को चीन से होने वाले हमले के लिए तैयार रहना चाहिए. लेकिन रक्षामंत्री मेनन उनकी बात को नज़रंदाज़ करते रहे. मेनन को लगता था कि भारत को असल खतरा चीन से नहीं बल्कि पकिस्तान से है इसीलिए सेना का बड़ा हिस्सा पाकिस्तानी सीमाओं पर ही तैनात था. रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष के बीच यह तनाव आगे जा कर और बढ़ गया. अगस्त, 1959 में मेनन ने बीएम कौल नाम के एक अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल नियुक्त कर दिया. कौल को इस पद पर लाने के लिए उनसे वरिष्ठ 12 अधिकारियों को नज़रंदाज़ किया गया था. जनरल थिमैया ने इसके विरोध में प्रधानमंत्री को अपना इस्तीफ़ा भेज दिया. हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू ने जनरल थिमैया को इस्तीफ़ा देने से तो रोक लिया लेकिन इस घटना से सारे देश में रक्षामंत्री के खिलाफ माहौल बन गया. उन पर पहले से भी वामपंथी समर्थक होने के कारण चीन के प्रति सहानुभूति रखने के आरोप लगते रहते थे.
1959 में भी भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं. इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था. 1960 में नेहरू ने चाऊ एन लाई को भारत आने का न्योता दिया. इससे पहले जब 1956 में चीनी प्रधानमंत्री भारत आ चुके थे. तब उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया गया था. लेकिन 1960 में हालात बिलकुल अलग थे. हिन्दू महासभा ने चाऊ एन लाई के विरोध में काले झंडे दिखाए. जहां 1956 में उनकी भारत यात्रा के दौरान ‘हिंदी-चीनी भाई भाई’ जैसे नारे दिए गए थे वहीं इस बार यह नारे बदलकर ‘हिंदी-चीनी बाय बाय’ हो चुके थे. चाऊ एन लाई की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा. दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए. युद्ध की शुरुआत और अंत 1962 के मई-जून में अचानक सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गईं. चीनी सेना की कई टुकड़ियां भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं. भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक. युद्ध के बीच में ही जनरल कौल छाती में दर्द होने के कारण सीमा से लौट कर दिल्ली आ गए. बिना किसी नेतृत्व के सेना के जवान पांच दिनों तक लड़ते रहे जिसके बाद नेफा के तवांग के इलाके पर भी चीन कब्ज़ा हो गया. रक्षामंत्री मेनन को आखिरकार मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और भारत अब अमरीकी मदद लेने की दिशा में बढ़ने लगा.
अब तक चीनी सैनिक नेफा में इतना आगे बढ़ चुके थे कि जल्द ही असम के भी उनके हाथ में जाने का खतरा पैदा हो गया. उधर दिल्ली और मुंबई के भर्ती केन्द्रों पर हजारों युवा सेना में भर्ती होने को तैयार थे. लेकिन 22 नवंबर को अचानक ही चीन ने युद्धविराम की घोषणा कर दी. इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था. नेफा में चीन ने अपने सैनिकों को मैकमोहन लाइन से पीछे कर लिया और लद्दाख क्षेत्र में भी वह उस स्थिति में वापस लौट गए जो युद्ध से पहले थी.
चीन ने अचानक ही अपने सैनिकों को वापस बुलाकर युद्धविराम की घोषणा क्यों की? इस सवाल के जवाब में भी सिर्फ कयास ही लगाए जाते रहे हैं. कुछ लोगों का मानना है कि चीन इसलिए घबरा गया था कि अब वामपंथी पार्टियों समेत भारत की सभी विपक्षी पार्टियां सरकार के साथ एकजुट होकर चीन का विरोध कर रहीं थी. अमरीका और ब्रिटेन का भारत को समर्थन करना और हथियार भेजना भी एक कारण माना जाता है जिसने चीन को युद्धविराम पर मजबूर कर दिया था. वहीं एक तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि सर्दियों में वह सारा इलाका बर्फ से ढक जाता है. ऐसे में चीन ज्यादा समय तक अपने सैनिकों को मदद नहीं पहुंचा सकता था इसलिए उसके पास लौट जाने का ही विकल्प बचा था.
रामचंद्र गुहा के अनुसार, ‘इस युद्ध के अंत को तो फिर भी कुछ हद तक समझा जा सकता है लेकिन इसकी शुरुआत को समझना बेहद जटिल है. चीन की तरफ से कभी-भी कोई श्वेतपत्र जारी नहीं किया गया. लेकिन इस युद्ध के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि इतने सुनियोजित आक्रमण के पीछे कई साल का अभ्यास रहा होगा. इस युद्ध का समय भी चीन के लिए बिलकुल सटीक था. उस वक्त विश्व की दोनों महाशक्तियां – सोवियत संघ व अमेरिका और इनके साथ ही संयुक्त राष्ट्र, क्यूबा के मिसाइल संकट में उलझे हुए थे. इस कारण चीन को बिना किसी डर के कुछ दुस्साहसिक करने की छूट मिल गई थी.’