प्रभात कुमार रॉय
कोरोना कहर काल में क्या विश्व की महाशक्तियां एक विनाशकारी युद्ध के कगार पर आ खड़ी हुई हैं? यक्षप्रश्न उत्पन्न हुआ है? जबकि इंडो-पैसिफिक महासागर में अमेरिका द्वारा अपनी नेवल शक्ति के तीन जंगी जहाजों को गश्त करने के लिए उतार दिया है. अमेरिकन नेवी के तीन जंगी जहाजों द्वारा इंडो-पैसिफिक महासागर में अमेरिकन नेवल शक्ति का ऐसा जबरदस्त प्रदर्शन किया जो रहा है, जोकि निकट इतिहास में कदापि नहीं देखा गया. अमेरिकन सैन्य शक्ति के इस विकट प्रदर्शन को वस्तुतः कोरोना कहर काल में अमेरिका और चीन के मध्य उभर कर आए शत्रुतापूर्ण तनाव के पसमंजर में देखा जा रहा है.
अमेरिकन राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा कोरोना के विश्वव्यापी कहर के लिए चीन की हुकूमत को पूर्णतः उत्तरदायी करार दिया जा रहा है. दुर्भाग्यवश कोरोना कहर की सबसे प्रबल गाज़ अमेरिका पर ही जा पड़ी है. अमेरिका में अभी तक 20 लाख से अधिक अमेरीकन नागरिक कोरोना वॉयरस का शिकार बन चुके हैं और तकरीबन एक लाख से अधिक नागरिकों की मौत हो चुकी है. निकट भविष्य में कोरोना का कहर अत्याधिक विस्तारित हो जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है. कोरोना कहर काल के दौरान ही अमेरिकन अफ्रिकन नागरिक जॉर्ज फलॉय्ड का एक पुलिस अधिकारी द्वारा बेरहम कत्ल कर दिए जाने के तत्पश्चात समस्त अमेरिका सत्ता विरोधी भयानक दंगों की चपेट में आ गया. तमाम परिस्थितियों के तहत डोनॉल्ड ट्रंप का पुनः अमेरिकन राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हो जाना बहुत कठिन समझा जा रहा है. अपने देश के विकट हालात के भंवर में फंसे राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा चीन को शत्रुतापूर्ण तौर पर निशाना बनाने के लिए कोरोना कहर के साथ चीनी हुकूमत द्वारा हांगकांग के लिए पारित एक अधिनियम भी एक कारण बन गया है. इस अधिनियम के तहत हांगकांग के किसी अपराध में आरोपित नागरिक को चीन में लाकर दंडात्मक मुकदमा चलाया जा सकेगा. अमेरिका सहित विश्व के अनेक प्रमुख देशों द्वारा भी इस अधिनियम को चीन द्वारा वर्ष 2047 तक हांगकांग को प्रदान की गई सार्वभौमिक स्वायतता का पूर्ण निषेध करार दिया गया है. उल्खेनीय है कि जब वर्ष 1997 में ब्रिटेन द्वारा हांगकांग को चीन को बाकायदा सौंप दिया गया था, तब उस वक्त चीन द्वारा वर्ष 2047 तक हांगकांग की पूर्ण स्वायतता कायम बनाए रखने के दस्तावेज पर दस्तख़त किए गए थे. अमेरिका द्वारा एक अधिनियम द्वारा हांगकांग को वैश्विक ट्रेडिंग हब घोषित करके विशेष दर्जा प्रदान किया गया था. अमेरिका के स्टेट सैक्रेटरी माईक पोम्पियो द्वारा फरमाया गया है कि हांगकांग को प्रदान किया गया ट्रेडिंग हब का विशिष्ट दर्जा समाप्त कर दिया जाएगा. अमेरिका के इस कदम के बाद विशाल पूंजी निवेश से चीन वंचित हो जाएगा, जोकि हांगकांग के जरिए चीन को हासिल होता रहा है.
सर्वविदित है कि दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा अपना संपूर्ण वर्चस्व स्थापित करने का प्रबल प्रयास किया जा रहा है. चीन के इस विस्तारवादी अभियान के विरुद्ध अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिलीपाइन आदि देश एकजुट हो चुके हैं. दक्षिण चीन सागर में चीनी हुकूमत द्वारा अनेक द्वीपों पर आधिपत्य स्थापित किया जा चुका है वरन् अनेक कृत्रिम द्वीपों का निर्माण भी कर लिया गया है. इंडो-पैसेफिक महासागर में अमेरिकन नेवी द्वारा किया जा रहा शक्ति प्रदर्शन वस्तुतः चीन को सीधे सैन्य चुनौती प्रदान कर रहा है. अब तो देखना यह है कि चीन इस सैन्य चुनौती का प्रतिउत्तर किस तरह से देता है. लद्दाख के भारतीय इलाके में चीन सैन्य द्वारा सैन्य घुसपैठ भी भारत को परखने के लिए अंजाम दी गई है कि भारत किस हद तक अमेरिका के पक्ष में झुका है. इस समस्त परिस्थिति के मध्य रशिया का चीन के पक्ष में खुलकर खड़ा हो जाना विकरालता और अधिक बढ़ा देता है. क्रिमिया पर आधिपत्य स्थापित करके और सीरिया के गृहयुद्ध में आक्रामक सैन्य दखंलदाजी अंजाम देकर रशिया द्वारा अमेरिका और पश्चिम को सीधे चुनौती दी जा चुकी है. अब जबकि चीन और रशिया एकजुट होकर अमेरिका के सामने खड़े हो गए हैं तो क्या समझा जाए कि विश्व पुनः शीतयुद्ध के दौर में आ गया है, जबकि कोई एक विस्फोटक चिंगारी जंगल की भयानक आग बन सकती है. आगे देखना यह है कि राष्ट्रपति ट्रंप चीन के विरुद्ध सैन्य तौर पर किस हद तक जा सकते हैं. यदि चीन के खिलाफ इंडो-पैसिफिक में नेवल सैन्य प्रर्दशन केवल राष्ट्रपति का चुनाव फतह करने की एक चाल मात्र है अथवा वस्तुतः विस्तारवादी चीन को गंभीर सबक सिखाना चाहते हैं. दुनिया शनैः शनैः दो बड़े ताकतवर खेमों के मध्य तक़सीम होती जा रही है. एक खेमे की क़यादत अमेरिका के सनकी राष्ट्रपति ट्रंप के हाथों में है, जबकि दूसरे खेमे का नेतृत्व चीन का निरंकुश लीडर राष्ट्रपति शी जिन पिंग कर रहे है, एक तरफ नव साम्राज्यवादी फितरत का राष्ट्र अमेरिका है और दूसरी तरफ विस्तारवादी चरित्र का चीन है. कोराना काल में अमेरिका द्वारा बेसहारा छोड़ दिए जाने बावजूद यूरोप के राष्ट्रों की विवशता है कि वे नॉटो सैन्य एलांयस के कारण अमेरिका के साथ खड़े होगें. रशिया, ईरान और उत्तरी कोरिया सरीखे राष्ट्र अमेरिका के विरुद्ध अपनी प्रबल शत्रुता के कारणवश चीन के पक्ष में खड़े हुए है. रशिया पुनः महाशक्ति बन जाने की गहन लालसा से ग्रस्त है और विगत समय में राष्ट्रपति ब्लादिर पुतिन रशिया को विश्वपटल पर महाशक्ति के तौर पर स्थापित करने के लिए अत्याधिक उतावले रहे हैं, अतः बार बार अमेरिका और नॉटो शक्तियों को ललकारते रहते हैं. परम्परागत तौर पर भारत एक गुटनिरपेक्ष राष्ट्र रहा है और ऐतिहासिक तौर किसी भी शक्तिशाली खेमे के साथ कदापि खड़ा नहीं हुआ. पूर्व सोवियत संघ के साथ गहन कूटनीतिक रिश्ते निभाते हुए भी भारत द्वारा महाशक्ति अमेरिका के साथ व्यवहार संतुलित बनाए रखा गया.
वर्तमान हुकूमत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने दक्षिणपंथी चरित्र के बावजूद रशिया के साथ पराम्परागत मित्रता के पैरोकार बन रहे हैं. गंभीर सीमा विवाद के बावजूद चीन के साथ भारत अपना व्यवहार मित्रतापूर्ण बनाए रखना चाहता है. अमेरिका के साथ विगत वक्त में निकटता स्थापित हो जाने के बाद भी खुलकर अमेरिका के साथ खड़ा नहीं हुआ है. अतः महाशक्तियोंके मध्य उत्पन्न हुए सैन्य तनाव को शिथिल करने में भारत एक बड़ा किरदार निभा सकता है, जैसा कि 1960 में क्यूबा संकट और वर्ष 1967 में फिलस्तीन संकट के दौर में भारत द्वारा निभाया गया था, जबकि शीतयुद्ध वस्तुतः विश्वयुद्ध बन सकता था।