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धर्म-अध्यात्म

शास्त्रार्थ के मनोरंजक क्षण : ईश्वर ने वेदज्ञान बिना बोले कैसे दिया ?

ओ३म्

[ सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार ]
बहुत पुरानी बात लिखने बैठा हूँ। होगी ७५ (वर्तमान में लगभग १००) साल पहले की बात।तब शास्त्रार्थों का युग था। मैं गुरुकुल में पढ़ता था। परिवार के किसी संकट में घर बुलाया गया था। घर लुधियाना के एक गाँव में था। दशहरे के दिन थे। मैं गाँव से लुधियाना शहर आया हुआ था। जैसे दिल्ली में रामलीला ग्राउंड है, जहां लम्बे चौड़े आयोजन होते हैं, वैसे लुधियाना में दरेसी नामक मैदान था, जहां उत्सवों में लोग इकट्ठे हुआ करते थे। अब वहां क्या है – यह मुझे मालूम नहीं।

कौतूहलवश मैं भी दरेसी चला गया। वहां देखा – जमघट लगा हुआ था। एक मौलाना आर्यसमाज के विरुद्ध टीका टिप्पणी तथा लेक्चरबाजी कर रहे थे। मैं भी उस जमघट में शामिल हो गया। मौलाना साहब कह रहे थे – “ये आर्यसमाजी कहते हैं कि ‘वेद ईश्वरीय ज्ञान है।’अगर वेद ईश्वरीय ज्ञान है तो इनसे पूछो कि जब ईश्वर शरीर धारण नहीं करता, जैसा कि ये मानते हैं, तो बिना बोले उसने ज्ञान कैसे दिया ? उस मजमे में सब तरह के लोग थे – मुसलमान भी थे, हिन्दू आर्यसमाजी भी थे, परन्तु मौलाना की आवाज अपनी युक्ति को बेमिसाल समझने के कारण क्षण-क्षण ऊंची होती जाती थी। उनका मुद्दा सिर्फ एक था – जब खुदा जिस्म अख्तियार नहीं करता जैसा आर्यसमाजी कहते हैं कि नहीं करता, तब बिना बोले वह वेद का ज्ञान कैसे दे सकता था ?
कुछ देर तो मैं खड़ा-खड़ा सुनता रहा, परन्तु मुझसे देर तक चुप नहीं रहा गया। मैं भीड़ को चीरता हुआ कुछ आगे बढ़ गया। मौलाना को ललकारते हुए मैंने कहा – “मौलाना साहब ! मैं आपके सवाल का जवाब दूंगा।”
मौलाना बोले – “तुम कल के छोकरे, परे हट जाओ ! तुम्हारे आर्यसमाजी आका यहाँ बहुत खड़े हैं, उनको मेरे सवाल का जवाब देने दो।”
वहां जो आर्यसमाजी खड़े थे वे मुझे जानते न थे।एक ने मेरे पास आकर कान में कहा, “बच्चा, तुम कौन हो ? आर्यसमाज की फजीहत न करा देना ! इतना – भर कह दो कि आर्यसमाज मंदिर में आकर शास्त्रार्थ कर लें।”
मैंने आर्य भाई की बात को अनसुना कर दिया और मौलाना को सावधान करते हुए कहा – “मैं गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार का एक छात्र हूँ। मगर तुम्हारे हर सवाल का जवाब दूंगा।”
गुरुकुल कांगड़ी का नाम सुनते ही उपस्थित आर्यसमाजियों का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने ताली बजानी शुरू कर दी।
मैंने मौलाना को सम्बोधित करते हुए पूछा – “मैं पहले आपसे कितनी दूर खड़ा था ?”
बोले – कोई १०० गज दूर।
फिर पूछा – “अब मैं कहाँ खड़ा हूँ ?”
बोले – कोइ ५० गज दूर।”
इसके बाद २५-३० गज मैं आगे बढ़ता गया, और पूछा – “अब मैं कहाँ आ गया ?”
बोले – मेरे नजदीक।”
उसके बाद मैं एकदम उसके पास गया और पूछा – “अब मैं कहाँ हूँ ?”
बोले क्या बेहूदगी का सवाल करते हो ? तुम्हारा मेरे इतने नजदीक आने का और मेरे सवाल का कया यह हल है ?”
मैंने कहा – “यही तो हल है ! मैं जब बहुत दूर खड़ा था, तब आप चिल्ला-चिल्लाकर बोलते थे।जितना मैं नजदीक आता गया, आपकी आवाज धीमी होती गयी। अगर मैं आपके भीतर पहुँच जाऊं तो आवाज की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी। ईश्वर हर जगह मौजूद है। बाहर भी है, भीतर भी है। वह मेरे अन्दर भी है, आपके अन्दर भी। वह हमारे इतना भीतर है कि उसे बोलने की आवश्यकता नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि जितनी दूरी कम होती जाएगी, ‘मैटर’ तो उतना ही रहेगा, किन्तु आवाज की जरूरत उतनी ही कम हो जाएगी। यहाँ तक कि दूरी जब जीरो हो जाएगी, तब आवाज भी जीरो हो जाएगी। यही तुम्हारे सवाल का जवाब है। यही वेदों के अवतरण का तरीका है।”
मौलाना चुप हो गए तथा दरेसी मैदान में जुटी भीड़ ने तालियों की गड़गड़ाहट करदी, जो कि मेरे तर्क की मजबूती की प्रतीक थी।
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स्रोत – बिखरे मोती। सम्पादक – डॉ भवानी लाल भारतीय।

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