डॉo सत्यवान सौरभ,
पिछले कुछ समय से जिस तरह चीन भारतीय सीमा पर अपने सैनिकों व शस्त्रों की संख्या बढ़ा रहा था। उसको लेकर भारत की जो आशंका थी चीनी सैनिकों के साथ हुई झड़प से स्पष्ट हो गई है। लद्दाख की गलवान घाटी में भारत-चीन सीमा पर धक्कामुक्की के दौरान भारतीय सेना के एक कर्नल, एक जूनियर कमिशंड ऑफिसर और एक जवान की मृत्यु ने देश को झकझोर कर रख दिया है। भारत-चीन सीमा पर सैनिकों का शहीद होना जितना दुखद है, उतना ही चिंताजनक है। जिसकी आशंका पिछले दिनों से लगातार बन रही थी, वही हुआ।
सन 1975 के बाद पहली बार भारत-चीन सीमा पर झड़प की वजह से सैनिक शहीद हुए हैं।वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति जरूरी है, लेकिन इन शहादतों के बाद दोनों देशों के बीच शांति और सौहार्द के लिए कई दशकों से चले आ रहे विश्वास निर्माण के उपाय शायद काफी न हों। मामले को बहुत संवेदनशीलता से संभाला न गया तो कोई बड़ा टकराव भले ही जैसे-तैसे टल जाए लेकिन एशिया की इन दोनों बड़ी ताकतों के रिश्ते फिर भी कटुतापूर्ण ही रहेंगे। जिस तरह हालात अचानक बदले हैं, उससे सकारात्मक विकास की संभावना बहुत कम हो गई है। पिछले साढ़े चार दशकों में यह पहला मौका है जब भारत-चीन सीमा पर लाशें गिरने की नौबत आई है। चीनी पक्ष की यह आक्रामकता समझ से परे है। कुछ अपुष्ट खबरों में कहा गया है कि इस झड़प में चीनी सैनिक भी हताहत हुए हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर चीन ने न तो इसकी पुष्टि की है,
बीजिंग ने भारत पर आरोप लगाते हुए कहा है कि भारतीय सैनिकों ने सीमा पार करके चीनी सैनिकों पर हमला किया। चीन पर भरोसा करना ही गलती है। चीन ने एक तरफ बातचीत करने का ढोंग किया और दूसरी तरफ जो भारतीय अधिकारी बातचीत के बीच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था, उसे ही मार दिया। चीन की इस दादागिरी और विस्तारवादी वृत्ति को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में चीन की विस्तारवादी वृत्ति को लेकर जो कहा था वह आज भी सार्थक है। वाजपेयी जी ने 16 नवम्बर 1959 को संसद में बोलते हुए कहा था ‘चीन की आकांक्षा विस्तारवादी है।
पिछले वर्षों में चीन ने अपनी सीमा हर तरफ बढ़ाई है, मंचूरिया 1911 तक चीन पर राज्य करता था, आज कहीं उसका नामोनिशान तक बाकी नहीं है। वह चीन का उत्तर-पूर्वी भाग भर रह गया है, तुर्किस्तान सिकियांग बन गया, मंगोलिया अपना अस्तित्व खो बैठा है। तिब्बत भी चीन का शिकार हो चुका है। देखें तो चीन का अपना भूभाग केवल 14 लाख वर्गमील है,बाकी 22 लाख वर्गमील भूमि पर चीन लूट- खसोट कर अधिकार जमा लिया है। अब उसकी गिद्ध दृष्टि भारत की 48000 वर्गमील भूमि पर लगी हुई है। आज चीनी यह प्रचार कर रहे हैं कि तिब्बत चीन के हाथ की हथेली है और लद्दाख, भूटान, सिक्किम, नेपाल और आसाम उसकी पांच उंगलियां हैं। स्पष्ट है कि यदि लद्दाख और लौंग्जू में चीन की आक्रमणात्मक कार्रवाइयों का शीघ्र प्रति-उत्तर नहीं दिया गया तो फिर चीन को बढ़ावा मिलेगा और हमारी सुरक्षा संकट में पड़ जाएगी।
लेकिन भारत बार-बार यही कहता आ रहा है कि वह किसी अन्य देश की इंच भर भी जमीन नहीं चाहता, न ही किसी से युद्ध की इच्छा रखता है। 1962 के चीनी आक्रमण को भूलकर भारत ने चीन से संबंध सुधारने की पहल करते हुए 1966 में आपसी व्यापार शुरू किया और आज स्थिति यह है कि भारतीय बाजार चीनी उत्पादों से भरे पड़े हैं। आज के समय में कोई भी देश अपनी धरती पर युद्ध नहीं चाहता लेकिन जब अपने स्वाभिमान पर ही चोट हो तो युद्ध से भागा भी नहीं जा सकता। चीन के साथ युद्ध आज नहीं तो कल लडऩा ही पड़ेगा। अतीत में भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस ने चेतावनी देते हुए कहा था कि भारत का कोई दुश्मन है तो वह चीन ही है। चीन भारत को विकसित होते नहीं देख सकता। हाल के दिनों में चीन की तरफ से सीमा पर बार-बार यथास्थिति तोड़ने की कोशिश हुई है। मौजूदा विवाद को ही लें तो चीन की शिकायत यह है कि भारत नियंत्रण रेखा के बहुत पास तक सड़क बना रहा है। इसे आपत्ति का जायज आधार माना जाए तो चीन सीमावर्ती इलाकों में काफी पहले से सड़कें बनवाता रहा है। भारत भी इस पर आपत्ति कर सकता था, लेकिन यह सोचकर नहीं की कि कोई भी संप्रभु देश अपनी सीमा के अंदर किसी भी तरह का निर्माण कार्य करने का अधिकार कैसे छोड़ सकता है?
पिछले दो-तीन माह में चीन ने पाकिस्तान व नेपाल के माध्यम से भारत पर दबाव डालने की कोशिश की लेकिन जब उसे लगा कि दोनों देश भारत पर दबाव डालने में असफल हो रहे हैं तो फिर उसने स्वयं आगे आकर सीमा पर दबाव बनाना शुरू किया। लद्दाख में हुई सैनिक झड़प उसी का एक उदाहरण है। सड़क निर्माण की शिकायत के आधार पर चीनी सैनिकों का वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करके नए इलाकों पर कब्जा करना किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। भारत पूरी समझदारी, संयम और शांति के साथ इस असंगति को दूर करने की कोशिश कर रहा था कि तभी हमारे तीन सैनिकों को शहीद कर दिया गया। इस घटना से सीमा पर पिछले 45 वर्षों से चली आ रही यथास्थिति बदल चुकी है। ऐसे में दूरगामी लक्ष्य को एक तरफ रखना हमारी मजबूरी है।
भारत-चीन में युद्ध कब शुरू होगा इसका निर्णय तो सरकार व सेना ही लेगी लेकिन हम भारतीय तो इसी पल से चीनी उत्पाद न खरीदने का संकल्प लेकर तथा चीनी उत्पादों का बहिष्कार कर अपने स्तर पर आज से ही चीन विरुद्ध जंग शुरू कर सकते हैं। देश की आन, शान और मान के लिए हर भारतीयों को चीन विरुद्ध जंग में भाग लेना होगा। तभी चीन की दादागिरी पर नकेल डाली जा सकेगी। भारत सरकार को देश व दुनिया को चीनी बदनीति बारे बताना होगा। भारतीय को विश्वास में लेते हुए चीन विरुद्ध एक ठोस नीति अपनाकर चलना होगा। चीन पर राजनीतिक, आर्थिक व सैनिकतीनों स्तर पर दबाव बनाकर चलने की आवश्यकता है। चीन के आंतरिक हालात खराब है। आर्थिक विकास गति धीमी हो रही है और कोरोना महामारी के कारण उस की विश्व में साख व छवि कमजोर हो गई है। अपने ही घर में चीन आज विरोध का सामना कर रहा है, अपने नागरिकों का ध्यान हटाने के लिए चीन कुछ भी कर सकता है। इसलिए भारत को अति सतर्क रहने की आवश्यकता है। भारत एक उदार देश है। अपनी मर्जी थोपने की बीजिंग की कोशिश 1962 में भले चल गई थी, लेकिन अब नहीं चलेगी। भारत की ताकत को लगभग पूरी दुनिया मान रही है, तो चीन को भी विचार करना चाहिए। भारत का अपना विशाल आर्थिक वजूद है, जिससे चीन विशेष रूप से लाभान्वित होता रहा है। साथ ही, चीनियों को भारत में अपनी बिगड़ती छवि की भी चिंता करनी चाहिए। गलवान घाटी की झड़प से सबक लेते हुए हमें संवाद के रास्ते के साथ चीन को अहसास करते रहना होगा। भारत को सैन्य नहीं तो राजनीतिक व आर्थिक स्तर पर तो अभी से चीन विरुद्ध युद्ध छेडऩा होगा, तभी चीन पर नकेल कसी जा सकेगी। चीन का रवैया सुधरने के स्पष्ट संकेत जल्दी नहीं आते तो हमें उसको सबक सिखाने का इंतजाम करना होगा।
— डॉo सत्यवान सौरभ,
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