सृष्टि के प्रारंभ में अमैथुनी सृष्टि थी।इसमें भी
मानव युवावस्था में उत्पन्न हुआ । क्योंकि यदि वह बाल्यावस्था में पैदा होता तो उसका पालन-पोषण कौन करता ? मनुष्य के अंदर बुद्धि का मंडल है, मन का मंडल है, प्रकृति का मंडल है, अंतरिक्ष का मंडल है ,आत्मा का मंडल है, अंतः करण का मंडल है। यह सब मंडल होने के कारण मनुष्य में जो आत्मा है, उसमें ज्ञान और प्रयत्न है। जिनके कारण वह कार्य करना अनिवार्य समझती है।
सृष्टि को चलाने की जानकारी कराने वाला कौन है ?
जो महान आत्माएं मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते परंतु उनके इतने उच्च कर्म होते हैं जो मोक्ष के निकट पहुंच जाते हैं। फिर वे पूर्व जन्म के पुण्य से उस प्रभु की सृष्टि में जन्म धारण करते हैं और जन्म धारण करके ईश्वर के विधान को , ज्ञान को मनुष्य को देते हैं। जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराएं और उस ब्रह्मा ने अग्नि ,वायु ,आदित्य और अंगिरा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद को ग्रहण किया अर्थात सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा से अंगिरा, आदित्य आदि ऋषियों ने यह ज्ञान प्राप्त किया और संसार को दिया। जिसके आधार पर संसार अभी तक चला आ रहा है।
ऋषियों की अनुपम कृपा हुई जो प्रभु की महान सृष्टि में आ करके अपना कर्तव्य पूर्ण करने के लिए इस संसार को पूर्व की भांति ज्ञान कराया। सृष्टि में ऐसी अनेक आत्माएं होती हैं जिन्हें पूर्व सृष्टि का ज्ञान रहता है। उनकी स्मृति में रहता है। हम यहां यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि यह स्मृति हर किसी आत्मा को प्राप्त नहीं होती । बल्कि दूसरे जन्म में स्वाभाविक रूप से विस्मृति हो जाती है। उसी पूर्व सृष्टि के नियम से परमात्मा की नवीन सृष्टि को ऐसे ऋषि नियम बद्ध कर देते हैं।
ऋषियों का कितना बड़ा परोपकार है ? आज हम ऋषियों के गौरव को शांत करते चले जा रहे हैं। इस संसार में ही नहीं लोक लोकान्तरों में भी ऋषियों का गौरव है ।जिन आत्माओं ने अपने ज्ञान का विकास किया ।आत्मा में ज्ञान और प्रयत्न स्वाभाविक होता है। पूर्व की भांति ज्ञान होने के कारण उन्होंने सृष्टि को क्रमबद्ध कर दिया। वास्तव में तो प्रभु ने इसको रचा और उसी ने क्रम बद्ध किया। क्योंकि इन ऋषियों को पूर्व की भांति वेदों का ज्ञान था। ज्ञान होने के कारण प्रभु की महत्वता पा करके उस प्रभु की सृष्टि में आ कर के पूर्व की भांति वेदों का प्रसार एवं प्रचार किया।
प्रारंभ में कोई राजा प्रजा नहीं होती थी ,बल्कि करोड़ों वर्षों तक यह संसार ऋषि मंडल के द्वारा चलाया जाता रहा । ऋषि पति और पत्नी सभी की संज्ञा इसी प्रकार चलती रही ।संतान उत्पत्ति महान वेद के अनुसार होती रही। उसी के आधार से यह सृष्टि का निर्माण होता चला गया। यह विशाल संसार ईश्वर ने उच्च कर्म करने के लिए रच दिया।
इसलिए मानव को यथार्थ कर्म करना चाहिए । जिससे हम उच्च बन सके। क्योंकि इस शरीर को त्याग करके जब प्रभु के आंगन में जाएंगे तो प्रभु हमें कौन से कारागार में भेजेगा ? – यह स्मरण में रहना चाहिए। इसलिए हमें उन कर्मों को विचारना चाहिए जिससे हम परमात्मा के कारागार में भी न जा सकें।हमें अपना जीवन हर प्रकार से उच्च बनाना है। मानव को इस आदेश पर अवश्य चलना चाहिए जिसे वैदिक संपत्ति कह रही है।
स्वायंभुव मनु ने वेद के आधार पर राष्ट्र का निर्माण किया। स्वायंभुव मनु उसी को कहते हैं जो राष्ट्र को ऊंचा निर्माण कर दे। सबसे पहले राज्य कर्म करने के लिए अयोध्या नगरी का निर्माण किया। यह हम जानते कि एक मन्वंतर में 71चतुर्युगी होती है और कुल 14 मन्वंतर होते हैं। वर्तमान में सातवां मन्वंतर है और 28 वां कलिकाल चल रहा है।प्रत्येक मन्वंतर में एक मनु होता है जो राष्ट्र का निर्माण किया करता है। एक एक मन्वंतर में उसी मनु के नियम चलते हैं। मनु एक उपाधि है।जो राष्ट्रों के निर्माण और विधान बनाते हैं। स्वायंभुव मनु महाराज ने राष्ट्र का निर्माण इसी दृष्टिकोण से किया।
यह संसार प्रभु ने रचा है ।1000 चतुर्युगियों का होता है जो इसकी अवधि है।इस प्रकार
यह सृष्टि अवधी से बंधी है। जैसे माता का गर्भ अवधी से बंधा है। ऐसे ही परमात्मा दुर्गा के गर्भ की भी अवधि है ।परमात्मा के नियमों के अनुसार यह संसार बनता है तथा सृष्टि की उत्पत्ति होती है। उसी के नियमों के अनुसार यह महान प्रकृति और यह सारे जीव उस परमात्मा की शक्ति रूप माता दुर्गा के विशाल गर्भ में समा जाते हैं।
माता के गर्भ में क्या करता है आत्मा और मन ?
परमात्मा के नियमों के अनुसार जब यह संसार बनता और बिगड़ता रहता है और जीव अपने कर्मानुसार फल पाता रहता है तो यह जीवात्मा परमात्मा से अनुरोध के रूप में उसकी स्तुति ,प्रार्थना उपासना करता है।
माता के गर्भ में यह जीवात्मा मन के साथ निवास करता है।उस समय यह आत्मा न तो व्याकुल होता है न स्वास लेता है , ना यह अपने मुख से परमपिता परमात्मा की स्तुति आदि का उच्चारण कर पाता है और ना ही कोई कार्य कर पाता है, लेकिन इसके बावजूद भी यह आत्मा मन सहित परमात्मा से संबंध करता है। उस समय यह आत्मा अंधकार में रहने के कारण इसको कार्य करने का कोई अवसर प्राप्त नहीं होता। जब यह गर्भ में उल्टा लटका रहता है। मल मूत्र में नर्क में पड़ा होता है तथा उस समय शून्य प्रकृति में रहता है। तब परमात्मा की सेवा में कहता है कि हे प्रभु अबकी बार इस अंधकार से मुझे मुक्त कर दो। मैं अंधकार से अर्थात अज्ञान से मुक्त होकर आपसे मिलना चाहता हूं।हे ईश्वर ! मुझे यहां कार्य करने का अवसर नहीं मिल रहा है , मुझे कर्म करने का अवसर दो । हे ईश्वर ! मुझे ज्ञान रूपी प्रकाश दो। जिससे इस संसार क्षेत्र में आकर के मैं कर्म करने के लिए उद्यत हो जाऊं। ऐसे महान कार्य करने के लिए मुझे उत्पन्न करो, जो मैं संसार क्षेत्र में आकर उस कार्य को करने के लिए तत्पर हो जाऊं।
जिस प्रकार यह गर्भ में स्थित आत्माएं अंधकार को पृथक करने के लिए परम पिता से प्रार्थना करती
हैं वैसे ही प्रलयकाल के अंधकार में मुक्त मगन आत्माएं परमपिता परमात्मा से पुनः याचना करती हैं संसार में जाने की।उस समय परमात्मा नियम के अनुसार ही संसार को उत्पन्न कर देते हैं । जब वे आत्माएं मोक्ष से संसार में जाना चाहती हैं तथा कर्म करना चाहती हैं । संसार को उर्ध्व गति की तरफ ले जाने के लिए प्रयास करने का परमात्मा को वचन देती हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आत्मा के अनुरोध को परमात्मा स्वीकार करके संसार में श्रेष्ठ एवं महान कर्म करने के लिए उत्पन्न करता है ,अथवा पुनः भेजता है।
आत्मा का संसार में आकर के क्या कर्म है ?
आत्मा परमात्मा से अनुरोध करता है कि मेरे जो सही सुकर्म हैं उनको करके मैं महान बनने का प्रयत्न करूंगा। आपके आंगन में( मोक्ष में )रमण करने के लिए आऊंगा। इसका तात्पर्य है कि मुक्ति को प्राप्त करके परमानंद का लाभ प्राप्त करने के लिए आपके पास पुनः आऊंगा।
इससे सृष्टि निर्माण का उद्देश्य स्पष्ट हुआ कि कर्म करने के लिए सृष्टि ईश्वर ने बनाई हैं। हमें इसमें कर्म करना चाहिए । लेकिन कर्म सुकर्म हो और वेद के अनुसार हो। अपने जीवन को व्यर्थ नहीं खोना चाहिए।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत