पाप कर्मों का त्याग तथा वेद धर्म आचरण ही जन्म जन्मांतर में सुख व समृद्धि का आधार है
ओ३म्
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मनुष्य को यह जन्म उसके पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यरूपी कर्मों के आधार पर मिला है। वह इस जन्म में जो पाप व पुण्य कर्म करेगा, उससे उसका भावी जन्म निर्धारित होगा। जिस प्रकार फल पकने के बाद वृक्ष से अलग होता है, इसी प्रकार हम भी ज्ञान प्राप्ति और शुभ कर्मों को करके ही जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त हो सकते हैं। मनुष्य जो सकाम कर्म करता है उसके फल तो उसे अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं। अतः हमें पाप कर्मों का सर्वथा त्याग कर निष्काम भाव से पुण्य कर्मों को करना चाहिये। ऐसा करके ही हम अपने परजन्म वा भावी जीवन को सुखमय, कल्याणमय व मोक्षगामी बना सकते हैं। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक हमारे देश के मनीषी प्रेय मार्ग को छोड़कर श्रेय मार्ग का चयन करते थे और पापों से मुक्त जीवन व्यतीत करते हुए ईश्वरोपासना एवं परोपकार के शुभ कर्मों को करते थे। ऐसा करने से ही मनुष्य अपनी आत्मा की उन्नति सहित अपने इस मनुष्य जन्म को सफल कर सकता है।
मनुष्य पाप क्यों करता है? इसका एक सरल उत्तर है कि अज्ञान में पड़कर तथा इच्छा, द्वेष, काम, क्रोध, राग, एषणाओं आदि में फंसकर मनुष्य पाप कर्मों को करता है। पापों से मुक्ति अज्ञान दूर कर व विद्या की प्राप्ति सहित अपनी इच्छाओं व कामनाओं का दमन व नियंत्रण करने से होती है। वेदों के अतुलनीय विद्वान, महान ऋषि एवं आदर्श ईश्वर भक्त ऋषि दयानन्द ने लोगों के कल्याण के लिये वैदिक सन्ध्या विधि की रचना की है। यह सन्ध्या विधि ईश्वर की उपासना व ध्यान की सर्वोत्तम विधि है। इस उपासना विधि में उन्होंने आचमन, इन्द्रियस्पर्श, मार्जन एवं प्राणायाम मन्त्र के बाद अघमर्षण के तीन वेदमन्त्रों का विधान किया है। अघमर्षण पाप से दूर रहने व पाप कर्मों का त्याग करने को कहते हैं। सन्ध्या करते हुए इन मन्त्रों का पाठ करने सहित इन मन्त्रों के अर्थों पर विचार किया जाता है और संकल्प पूर्वक ईश्वर को यह वचन दिया जाता है कि साधक व उपासक सुखों की प्राप्ति तथा दुःखों से दूर रहने के लिए कभी कोई पाप कर्म नहीं करेगा। अघमर्षण के तीन मन्त्र निम्न हैं:-
1- ओ३म् ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।।
2- समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।
3- सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।
साधक को प्रतिदिन उपासना करते हुए इन मन्त्रों के अर्थों पर विचार करना व इन्हें धारण करना होता है। इन पर विचार करने से उसे ईश्वर का सत्यस्वरूप विदित हो जाता है। उसे ईश्वर का न्यायकारी होने तथा मनुष्य को उसके प्रत्येक कर्म का फल देने का विधान भी विदित हो जाता है। वह जान जाता है कि यदि वह कोई भी अशुभ कर्म या पाप करेगा तो उसे उसका फल दुःख के रूप में अवश्य ही भोगना पड़ेगा। इससे उपासक के जीवन से पापाचरण व दुष्टकर्म छूट जाते हैं। उपर्युक्त तीन मन्त्रों के अर्थ यह हैं: सब जगत् का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करने वाला परमेश्वर, जैसा उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना की थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे ईश्वर ने पूर्वकल्प वा सृष्टि में सूर्य-चन्द्र लोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं। जैसा पूर्व सृष्टि में ईश्वर ने सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी भूमि या पृथिवी आंखों से प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक लोकान्तर हैं, उन सबको ईश्वर ने ही रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु ईश्वर के पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस व सर्वज्ञता से युक्त रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से ‘यथापूर्वम-कल्पयत्’ इन वेद मन्त्र के पदों का ग्रहण किया है।
ईश्वर ने ही अपने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्वकल्प में थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने अपने अनन्त ज्ञान व बल की सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित होता है और सब जगत् के बनाने की सामग्री अनादि प्रकृति ईश्वर के अधीन है। ईश्वर ने अपनी उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया, जैसा कि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित किया था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्य रज और तमो गुण से युक्त है, जिसके नाम अव्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान और प्रकृति हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी ईश्वर द्वारा कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुई है। उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे हजार चतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि ‘‘जब जब सृष्टि विद्यमान होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है और उसी अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ और सब जीव ढके हुए रहते हैं, उसी का नाम महारात्रि है।” तदन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघ मण्डल में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।
अन्तरिक्षस्थ समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़ के सत्यन्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है। ऋषि दयानन्द जी कहते हैं कि ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, वचन और कर्म से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है, अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें।
मनुष्य जब इन मन्त्रों पर विचार करता है तो उसे अपना अस्तित्व ईश्वर को समर्पित करने में ही अपना हित निश्चित होता है। वह जान जाता है कि पाप का सर्वथा त्याग तथा वेद की शिक्षाओं का पालन ही उसे इस सांसारिक भवसागर से मुक्त कराकर मोक्षानन्द की प्राप्ति करा सकते हैं। इससे उसका कल्याण होता है तथा ईश्वर की संगति से समाज व देश का भी कल्याण होता है। परमात्मा ने इस सृष्टि व मनुष्यों का जन्म कर्म-फल के बन्धनों से मुक्त होने के लिये ही दिया है। इसी सिद्धान्त व विचारधारा का प्रचार ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज को स्थापित कर देश देशान्तर में किया। आर्यसमाज ही संसार में एकमात्र ऐसा मार्ग है कि जिस पर चलकर सारा संसार कल्याण वा सुख एवं शान्ति को प्राप्त हो सकता है। इस दृष्टि से संसार के लोगों के लिये आर्यसमाज और इसकी विचारधारा से बढ़कर और कुछ नहीं हो सकता।
पाप कर्मों को छोड़ कर मनुष्य को शुभ, पुण्य कर्म ही करने योग्य होते हैं। इनका परिणाम ही आत्मा की उन्नति सहित जीवन का कल्याण होता है। शुभकर्मों में शीर्ष स्थान पर ईश्वर की सद्ज्ञानपूर्वक उपासना एवं वायु-जल-पर्यावरण शुद्धि के लिये किया जाने वाला अग्निहोत्र देवयज्ञ होता है। इसको करने से मनुष्य ईश्वर से जुड़कर नई-नई प्रेरणायें प्राप्त करता है। उसका आत्मबल बढ़ता जाता है और वह देश एवं समाज हित सहित मानवता की रक्षा के कार्यों में अग्रसर रहता है। यही मनुष्य जीवन की सफलता है। संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं जो मनुष्य को जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त न कराकर उसे सन्मार्ग से विचलित कर उसके अभ्युदय एवं निःश्रेयस प्राप्ति के मार्ग में बाधक हैं। इसका ज्ञान ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर होता है। अतः सभी मनुष्यों को अपने जीवन के सत्य लक्ष्य वेदाध्ययन व वेदाचरण को निर्धारित करना चाहिये। मिथ्या ज्ञान व मान्यताओं तथा संस्थावाद वा मत-पंथ-सम्प्रदाय से बचकर वेदाध्ययन कर सीधा ईश्वर से संयुक्त होना चाहिये। इसी से आत्मा की सर्वाधिक उन्नति एवं कल्याण होता है। मनुष्य पापों से बचकर दुःखों से मुक्त हो सकता है और परजन्म में श्रेष्ठ मनुष्य योनि में देव व विद्वान बनकर मोक्ष मार्ग का अनुसरण जारी रखकर जीवन मुक्त हो सकता है। इससे श्रेष्ठ व ज्येष्ठ अन्य कोई मार्ग नहीं है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर, वेद, वैदिक साहित्य, आर्यसमाज, ऋषि दयानन्द, सत्यार्थप्रकाश की शरण में आना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य