अधिकार से पहले कर्तव्य , अध्याय– 7, वर्णों के अनिवार्य कर्तव्य
भारत में ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों की व्यवस्था की गई है । चारों ही वर्ण अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हैं । प्राचीन काल में भारत वर्ष में गुण – कर्म – स्वभाव के अनुसार व्यक्ति को उसका वर्ण प्राप्त होता था । इनमें से पहले वर्ण ब्राह्मण को कुछ लोगों ने अलग करके देखने का प्रयास किया है और कहीं-कहीं स्वयं ब्राह्मण ने भी अपने आपको अन्य वर्णों की अपेक्षा श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास किया है । यदि वेद की दृष्टि से देखा जाए तो ब्राह्मण श्रेष्ठ होकर भी अन्य सभी वर्ण के लोगों का प्रथम सेवक उपदेशक होने के नाते है । उसकी श्रेष्ठता दूसरों का उपकार करने के लिए है। ब्राह्मण श्रेष्ठ इसलिए है कि उसका हर क्षण , हर पल परोपकार के लिए होता है। जिस ब्राह्मण का ऐसा जीवन व्यवहार नहीं होता , वह ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता । ब्राह्मण का जीवन दूसरों के उद्धार के लिए है और उसके गुण दूसरों की भलाई के लिए हैं । ऐसा नहीं है कि उसकी श्रेष्ठता , उसका जीवन और उसके गुण केवल और केवल उसी के लिए हों और अन्य लोगों का मानसिक ,आर्थिक , सामाजिक या शारीरिक उत्पीड़न करने के लिए हों।
प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण के भले के लिए या कल्याण के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है और कैसे अपने जीवन को दूसरों के कल्याण में समर्पित कर सकता है ? – इसी को वर्ण धर्म कहते हैं । जिसे हमारे वेदों के माध्यम से मनु महाराज व अन्य वैदिक विद्वानों ने बहुत सुंदर ढंग से स्पष्ट किया है । उनकी इस व्यवस्था को देखकर लगता है कि सब सबके कल्याण में लगे हुए हैं और सब सबके कल्याण में लगे रहें – इसी के लिए वर्ण व्यवस्था की पवित्र व्यवस्था समाज में की गई है।
महर्षि मनु और जातिवादी व्यवस्था
इस सम्बन्ध में वेदवर्णित मन्त्रों को हमें समझना चाहिए । जिन्होंने वर्ण व्यवस्था केवल इसलिए की है कि लोग एक-दूसरे के सहयोगी बनें और सद्भाव रखते हुए जीवन यात्रा में एक दूसरे का हाथ पकड़कर चलते रहें । वेदों की ऐसी ही भावना से प्रेरित होकर पहले ब्रह्मा ने और फिर मनु ने चार वर्णों के कर्तव्य -कर्म निर्धारित किये। जिन लोगों ने महर्षि मनु पर जातिवादी व्यवस्था का जनक होने का आरोप लगाया है , वास्तव में वह अज्ञानी ही कहे जाएंगे , क्योंकि महर्षि मनु ने कहीं पर भी जन्म के आधार पर जाति की व्यवस्था को अपनी सहमति प्रदान नहीं किया है ।
वास्तव में हमारे ऋषियों के द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई कि जो कोई व्यक्ति अपनी जीविकोपार्जन के लिए जिस वर्ण को ग्रहण करेगा , या जीविकोपार्जन के लिए जिसके अंदर जिस वर्ण की योग्यता होगी वह उसी वर्ण का कहलाएगा। इसके लिए प्रत्येक वर्ण के लिए उसके कर्तव्य कर्म भी निश्चित किए गए हैं । प्रत्येक वर्णस्थ व्यक्ति से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपने वर्ण के लिए निर्धारित किए गए कर्तव्य कर्म का पालन आजीवन पूर्ण निष्ठा के साथ करता रहेगा। निर्धारित कर्मों का पालन न करने वाला व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जायेगा।
जिन लोगों ने जन्म के आधार पर जाति की व्यवस्था का समर्थन किया है और मनु महाराज पर यह दोष लगाया है कि उन्होंने जन्म के आधार पर जाति की व्यवस्था की है , उन्होंने महर्षि मनु को न तो समझा है और न ही उनके साथ न्याय किया है। महर्षि मनु इस व्यवस्था के विरुद्ध थे कि किसी वर्ण-विशेष के कुल में जन्म लेने मात्र से ही कोई व्यक्ति उस वर्ण का माना जा सकता है। महर्षि मनु का मानना था कि कोई भी व्यक्ति तब तक अध्यापक नहीं हो सकता , जब तक कि वह अध्यापन कार्य न करता हो , इसी प्रकार कोई चिकित्सक बिना चिकित्सा के चिकित्सक नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार सेना बिना सैनिक, व्यापार बिना व्यापारी, श्रम कार्य बिना श्रमिक नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्य कर्मों को करने से ही कोई व्यक्ति अपने गुण – कर्म -स्वभाव के अनुसार किसी वर्ग विशेष का कहा जा सकता है।
वास्तव में भारत की सामाजिक परम्पराओं में हर कदम पर कर्तव्य कर्म निश्चित किए गए हैं । हमारे देश में अधिकारों को प्राथमिकता न देकर कर्तव्य निर्वाह में रुचि ली गई है और उन्हीं को प्राथमिकता दी गई है। वर्ण व्यवस्था की यदि हम गहनता से समीक्षा करें तो इस सारी व्यवस्था में भी हर कदम पर हमें हर वर्ण के लोगों के लिए निर्धारित किए गए कर्तव्य कर्म ही हमारा मार्गदर्शन करते हुए दिखाई देते हैं । इन निर्धारित कर्मों के किये बिना कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं माना जा सकता।
ब्राह्मण वर्ण के कर्तव्य कर्म
ब्राह्मण वर्ग के लोग अपने कर्तव्य कर्म के कारण ही सम्मानित स्थान प्राप्त करते थे । वह अपने शुद्ध चैतन्य ज्ञान से समाज का मार्गदर्शन करते थे । बदले में समाज उन्हें उनके इस शुद्ध चैतन्य ज्ञान से मिले मार्गदर्शन के कारण कृतज्ञतावश सम्मान प्रदान करता था । ब्राह्मण वर्ण का चयन करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म निम्न प्रकार हैं :–
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।
दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥ (1.88)
भावार्थ- चारों वर्णों में ब्राह्मण वर्ण को प्रथम स्थान पर रखा गया । प्रथम स्थान का अभिप्राय यह नहीं है कि वह सर्वप्रमुख है या सर्वोच्च है और उसकी ही प्रधानता या सर्वोपरिता मानी गई है । इसका अभिप्राय केवल इतना है कि वह समकक्षों में प्रथम है अर्थात मनुष्य मात्र में वह प्रथम स्थान रखता है । समकक्षों में प्रथम ब्राह्मण वर्ण के बारे में महर्षि मनु कहते हैं कि इसका प्रमुख कर्तव्य कर्म-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना है।’ जो कोई व्यक्ति या स्त्री ब्राह्मण वर्ण में होकर अपने इन कर्तव्य कर्मों के विपरीत आचरण करता है या इनमें रुचि नहीं लेता है तो वह ब्राह्मण या ब्राह्मणी नहीं कहा जा सकता ।
ब्राह्मण के उपरोक्त कर्तव्य कर्म में शत – प्रतिशत लोक कल्याण का भाव निहित है । उसका कर्तव्य है कि वह पढ़े और पढ़ाये । पढ़ाने का कोई शुल्क लेने का विधान भी उसके लिए नहीं किया गया है। वह अपने ज्ञान को बांटता रहे और ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की भावना के वशीभूत होकर लोगों का कल्याण करता रहे । वह यज्ञोमयी जीवन जीने वाला हो । मोमबत्ती की भांति वह सबके अंतर्मन के दीप जलाने में सहायक हो । इसलिए लोगों के यहां यज्ञ करता हो और बड़े-बड़े यज्ञों का स्वयं की आयोजन करता हो , जिससे उसके माध्यम से चौबीसों घंटे संसार में ऐसी ऊर्जा प्रवाहित होती रहे जो दूसरों का भला करती हो। प्रत्येक प्रकार के वायरस को , प्रत्येक प्रकार के प्रदूषण को समाप्त करने कराने में ब्राह्मण वर्ण के लोग ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। सबसे प्रमुख कार्य वैचारिक प्रदूषण को समाप्त करना है , जिसे ब्राह्मण अपने उपदेशों से समाज के लोगों के भीतर से समाप्त करता था।
ब्राह्मण के लिए यह भी नहीं कहा गया है कि वह केवल दान ग्रहण करेगा और दान लेना ही उसका अधिकार होगा । इसके विपरीत उसके लिए यह व्यवस्था की गई है कि वह दान लेगा भी और समय आने पर सुपात्र को दान देगा भी । वैसे भी जिस व्यक्ति का कर्म यज्ञ करना और कराना है तो यज्ञ करने और कराने दोनों में दान देने और दान लेने का भाव अपने आप अंतर्निहित है । इसलिए जिन लोगों ने ब्राह्मण होकर अपने लिए यह व्यवस्था की है कि वे केवल पढ़ेंगे – पढ़ाएंगे नहीं ,यज्ञ कराएँगे – करेंगे नहीं और दान लेंगे – दान देंगे नहीं , उन्होंने सिक्के के एक पक्ष को लोगों को दिखाया है । इन लोगों की ऐसी स्वार्थपूर्ण मनोवृति के कारण ही वास्तविक ब्राह्मणों से भी समाज के कुछ लोगों ने घृणा करनी आरम्भ कर दी । अच्छा होता कि ब्राह्मण लोग अपने लिए निर्धारित किए गए कर्तव्य कर्मो के दोनों पक्षों को ही लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते रहते । जिनमें उनके लिए पढ़ाना , यज्ञ करना और दान देना भी अनिवार्य कर्त्तव्य के रूप में स्थापित किया गया है। वास्तव में ब्राह्मण का कार्य मनुष्य के सबसे प्रमुख अज्ञान नाम के शत्रु से लड़ना और उसे समाप्त करना है।
क्षत्रिय वर्ण के कर्त्तव्य
क्षत्रिय वर्ण का भी हमारी सामाजिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है । ब्राह्मण वर्ण के लोग यदि संसार में आकर अज्ञान नाम के शत्रु से लड़ते रहे तो अन्याय नाम के दूसरे शत्रु से लड़ने का काम क्षत्रियों को दिया गया । किसी भी सभ्य समाज का निर्माण तभी किया जाना संभव है जब लोग ज्ञानी हों और ज्ञानी के साथ-साथ ऐसी सामाजिक व्यवस्था में रहने के अभ्यासी भी हों जिसमें अन्याय करने वाला कोई भी ना हो । क्षत्रिय वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्रियों-पुरुषों के लिए महर्षि मनु द्वारा निर्धारित कर्तव्य कर्म इस प्रकार हैं : –
प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥ (1.89)
भावार्थ- यदि हम क्षत्रिय वर्ण के लोगों के लिए महर्षि मनु द्वारा निर्धारित किए गए कर्तव्य कर्मों पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि उनकी भी समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण उपयोगिता है । महर्षि मनु ने उनके लिए कहा है कि उनके लिए विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना, अनिवार्य होगा। महर्षि मनु की इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि क्षत्रिय वर्ण के लोगों के लिए भी पढ़ना और यज्ञ आदि करना अनिवार्य है । यहाँ पर हमने मनु के द्वारा लिखे गए एक श्लोक को ही उध्दृत किया है । इसी से हमें क्षत्रिय वर्ण के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
‘विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना ‘ — ऐसी व्यवस्था करके महर्षि मनु ने यह स्पष्ट किया है कि क्षत्रिय वर्ण का कार्य केवल सीमाओं की रक्षा करना नहीं है , अपितु वह विद्याध्ययन के माध्यम से वेदवेत्ता भी बनेंगे और वेदवेत्ता , धर्मवेत्ता बनकर न्याय करते हुए प्रजापालन में अपना उत्कृष्टतम सहयोग समाज को प्रदान करेंगे । उनका सारा ज्ञान – विज्ञान संसार के उपकार के लिए होगा। जीवन की यह बहुत बड़ी साधना है कि कोई व्यक्ति राजसिक परिवेश में रहे और उसके उपरांत भी समाज और समाज के लोग उससे यह अपेक्षा रखें कि वह जितेंद्रिय होगा। धन ऐश्वर्यों में लिप्त नहीं होगा । इन सबके उपरांत भी संसार या प्रजाओं की रक्षा में अपना जीवन खपाएगा।
वास्तव में किसी क्षत्रिय का वेदवेत्ता , धर्मवेत्ता होना और वेद में दी गई व्यवस्था के अनुसार अपना जीवन यापन करना उसके लिए बहुत बड़ी चुनौती है। व्यवहारिक जीवन में रहकर उससे कई गलतियां हो सकती हैं , परंतु उसके उपरांत भी वह अपना जीवन वेद में की गई व्यवस्था के अनुसार जिए और पापपंक से अपने आप को सदा बचा कर रखे यह उसका परम कर्तव्य है।
पश्चिमी जगत के लोगों ने राजसिक वर्ग के लोगों को कानून से ऊपर रखने का प्रावधान किया है । अंग्रेजों के समय में भारतवर्ष में जितने भी कानून लागू किए गए उनका अवलोकन करने से यह बात भली प्रकार सिद्ध हो जाती है । परंतु हमारे यहाँ पर कठोर विधि का पालन करना राजसिक वर्ग के लोगों के लिए अर्थात क्षत्रिय वर्ण के लोगों के लिए अनिवार्य किया गया है कि वह क्षत्रिय कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए जितेंद्रियता का भी ध्यान रखेंगे । जितेंद्रिय होने का अभिप्राय है कि न्याय करते समय किसी भी प्रकार के आवेश का प्रदर्शन नहीं करेंगे , उनकी बुद्धि स्थिर और सम होगी और ईश्वरीय न्याय व्यवस्था के अंतर्गत रहते हुए दंड के पात्र व्यक्ति को उसके किए गए अपराध के अनुपात में ही दंड देंगे। अपनी पांचों ज्ञानेंद्रियों और मन व बुद्धि को ऋषि बनाने की साधना करते रहेंगे । इस प्रकार सप्तर्षि के साधक क्षत्रिय वर्ग के लोग समाज और देश को न्यायपूर्वक सही दिशा देने के अपने कर्तव्य कर्म का निष्पादन करते रहें ।
जैसे ईश्वर न्याय करते समय अपराध या कुकर्म के अनुपात में ही दंड प्रदान करता है , वैसे ही क्षत्रिय भी न्याय करते समय अपने बौद्धिक संतुलन का प्रदर्शन करेगा । इसीलिए राजा को हमारे यहाँ पर ईश्वर का प्रतिनिधि कहा जाता है। ईश्वर का प्रतिनिधि हो जाने का अभिप्राय किसी भी दृष्टिकोण से राजा का निरंकुश और तानाशाह हो जाना नहीं है । ईश्वर का प्रतिनिधि वही कहा जा सकता है जो धर्मवेत्ता , वेदवेत्ता , न्यायप्रिय और जितेंद्रिय होगा।
महर्षि दयानन्द ने क्षत्रिय के कर्त्तव्यों के अन्तर्गत ‘इज्या’ शब्द के अर्थ ‘यज्ञ करना और कराना’ दोनों किये हैं (समु0 4)। वर्णव्यवस्था की मूल भावना के अनुसार यह अर्थ सही है।
महर्षि मनु की व्यवस्था पर यदि चिंतन किया जाए तो पता चलता है कि यज्ञानुष्ठान क्षत्रिय और वैश्य भी करा सकते हैं। क्योंकि वे प्रशिक्षित और वेदवित् होते हैं । यद्यपि उनके लिए यह भी प्रावधान किया गया है कि वे इसको नियमित आजीविका नहीं बना सकते, क्योंकि यज्ञ को आजीविका बनाने का प्रावधान केवल ब्राह्मण के लिए ही निर्धारित है। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि ब्राह्मण पूर्णतया धार्मिक यज्ञ – अनुष्ठानों के लिए समर्पित होता है, जबकि क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के लोगों के कुछ अन्य कार्य भी होते हैं। जिनमें व्यस्त रहते हुए उनसे धार्मिक यज्ञानुष्ठानों को पूर्ण पवित्रता से न कर पाने की अपेक्षा की जा सकती है। उनके द्वारा बरता गया कोई भी प्रमाद समाज के लिए अच्छा संदेश नहीं देगा। आज भी हम देखते हैं कि जो व्यक्ति ब्राह्मण होकर भी अन्य कार्यों में लगे होते हैं वे यज्ञानुष्ठानों को शीघ्रताशीघ्र पूर्ण करने का प्रयास करते हैं , या जो लोग ब्राह्मण न होकर यज्ञानुष्ठान कराने के लिए बैठा दिए जाते हैं , वह भी अन्य कार्यों की जल्दी होने के कारण यज्ञानुष्ठानों को शीघ्रता से पूर्ण करने का प्रयास करते हैं।
क्षत्रिय और वैश्य अपने तथा अपने से निन वर्ण का उपनयन संस्कार भी करा सकते हैं- ‘‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’ (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान, अ0 2) अर्थात्-‘ब्राह्मण अपने सहित तीन वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित अन्य दो का, वैश्य अपने सहित एक वर्ण का उपनयन करा सकता है।’
यह संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।
वैश्य वर्ण के कर्त्तव्य कर्म
ब्राह्मण का मुख्य कार्य अज्ञान से लड़ना और क्षत्रिय का मुख्य कार्य अन्याय से लड़ना है तो वैश्य का मुख्य कार्य अभाव नाम के शत्रु से लड़ना है। वैश्य वर्ण के स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य –
पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।
वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥ (1.90)
भावार्थ – महर्षि मनु के द्वारा वैश्य वर्ण के लोगों के लिए उनके कर्तव्य कर्म निर्धारित करते हुए कहा गया है कि पशुओं का पालन-पोषण एवं संवर्धन करना, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत् अध्ययन करना, व्यापार करना, याज से धन कमाना, खेती करना, ये वैश्य वर्ण को ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म हैं।
वास्तव में समाज की सारी व्यवस्था का संचालन वैश्य वर्ण के ऊपर ही निर्भर करता है । वैश्य वर्ण के लोग जितने संपन्न होंगे समाज में उतनी ही संपन्नता देखी जा सकेगी । इसके अतिरिक्त समाज के संन्यासी लोग ,अध्यापक आचार्य लोग और अन्य ऐसे लोग जो किसी भी कारण से स्वयं कमा नहीं सकते हैं उन सबका भरण – पोषण करने का दायित्व भी वैश्य वर्ग के लोगों के ऊपर ही रहता है । इसलिए वैश्य वर्ण अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है । यदि इस वर्ण में लगे लोग ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करेंगे तो समाज में संपन्नता देखी जाएगी और यदि यह लोग बेईमानी से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करेंगे तो समाज में भ्रष्टाचार तो बढ़ेगा ही साथ ही शर्मायेदारी और जमाखोरी की समाजविरोधी , राष्ट्रविरोधी और मानवता विरोधी प्रवृत्ति में भी वृद्धि होगी।
पात्रों को दान देना , यज्ञ करना , विधिवत अध्ययन करना – यह कुछ ऐसी व्यवस्थाएं हैं जिन्हें वैश्य वर्ण के लोगों पर लागू करके उन्हें धर्म के अनुसार कार्य करने के लिए और धर्म पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया गया है । उनसे अपेक्षा की गई है कि वह अपने कार्य व्यापार में किसी भी प्रकार का आलस्य , प्रमाद या बेईमानी का भाव नहीं आने देंगे । लोकोपकार के लिए उनका जीवन होगा और उनके व्यापार से सर्व समाज का कल्याण होगा।
शूद्र वर्ण के कर्त्तव्य कर्म
शूद्र वर्ण धारक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥ (1.91)
अर्थ-परमात्मा ने वेदों में शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है, वह यह है कि ‘इन्हीं चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहां सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना।’ क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है । अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है, अतः उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है।
जो पढ़ने पढ़ाने के भरसक प्रयास करने के उपरांत भी ज्ञानार्जन करने में असफल रहे , वह किसी भी वर्ण का व्यक्ति शूद्र ही कहा जाएगा। अशिक्षित होना भी उसके लिए पाप नहीं है । इसके उपरांत भी समाज ने उसके लिए व्यवस्था की कि वह अन्य वर्ण के लोगों की सेवा भावना करके अपना जीवन यापन कर सकता है । इसके बदले में शेष समाज से अपेक्षा की गई कि वह ऐसे शूद्र लोगों के कल्याण के लिए और उसके बच्चों की उचित देखभाल व शिक्षा आदि की व्यवस्था के लिए उन्हें आर्थिक व सामाजिक सहायता प्रदान करते रहेंगे । पूर्ण व्यवस्था पर चिंतन करने से यह भी तथ्य स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य तीनों मिलकर ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि शूद्र के बच्चे शूद्र न रहने पाएं और वे समाज की मुख्यधारा में आकर अपने आप को द्विज बना लें। ऐसे अनेकों उदाहरण भारतीय इतिहास में मिलते हैं कि जब कोई व्यक्ति शूद्रकुल में उत्पन्न होकर भी ब्राह्मण कहलाया है।
शूद्र को शूद्र ही बनाए रखना और शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति को सदा हेय दृष्टि से देखना मानवता के विरुद्ध एक अपराध है । इसके विपरीत भारत की परम्परा यह कहती है कि शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति को भी ज्ञानार्जन करके आगे बढ़ने का अवसर दिया जाना सभ्य समाज का पुनीत कर्त्तव्य है । इसके लिए किसी आरक्षण की आवश्यकता नहीं है अपितु मानवमात्र के भीतर संरक्षण का भाव पैदा करने की आवश्यकता है। जब अन्य वर्णस्थ लोग इस संरक्षण भाव से प्रेरित हो जाएंगे कि हम किसी को भी शूद्र नहीं रहने देंगे या किसी भी प्रकार से उसे पिछड़ा , दलित , शोषित और उपेक्षित नहीं बनने देंगे तो समाज इस कलंक से मुक्त हो सकता है । यही भावना हमारी वर्ण व्यवस्था में पाई जाती है। बाद में जिन लोगों ने इस वर्ण व्यवस्था की पवित्रता को भंग किया उन्होंने राष्ट्र और मानवता दोनों के साथ घात किया।
इस प्रकार सारी वर्ण व्यवस्था एक दूसरे के कल्याण में लगे हुए लोगों से मिलकर बनती है । इसमें स्वार्थ भाव कहीं भी नहीं है। बात वही है कि सब सबके कल्याण के लिए कार्य करते हैं । मिलजुलकर ‘ एक समाज श्रेष्ठ समाज’ – बनाने के संकल्प और सपने को लेकर आगे बढ़ते हैं । कर्तव्य कर्म के इसी भाव से समाज उन्नत , समृद्ध और समरसता पूर्ण बन सकता है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत