गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास, अध्याय — 12 , अरबों के आक्रमण के समय भारत की स्थिति
स्वामी विवेकानंद और योगी अरविंद का मत रहा है कि – “भारत की शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य अपने देश की विरासत की आध्यात्मिक महानता पर बल देना और उसे बनाए रखने के लिए हमारे दायित्व के निर्वाह पर बल देना होना चाहिए । जिससे हम विश्व को प्रकाश का मार्ग दिखा सकें। यदि आध्यात्मिकता भारत से लुप्त हो गई तो वह विश्व से भी लुप्त हो जाएगी । अतः यह एक राष्ट्रीय दायित्व ही नहीं है , मानव सभ्यता की सुरक्षा का कर्तव्य भी है।”
जब 712 ई0 में मुहम्मद बिन कासिम भारत में एक अरब आक्रमणकारी के रूप में आया तो उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां बहुत अधिक आशावादी नहीं थीं। उस समय की राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियों पर यदि हम विचार करें तो यह सत्य निकल कर सामने आता है कि भारत अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति से विमुख हो चला था ।
सम्पूर्ण देश को अपने शासन के अधीन कर एकच्छत्र राज्य स्थापित करने वाली कोई शक्ति उस समय देश में नहीं थी । जिससे उपजी राजनीतिक शून्यता को भरने के लिए कई शक्तियां आपस में लड़ रही थीं । यद्यपि हम इस प्रकार के संघर्ष को उस सीमा तक उचित मानते हैं जहाँ तक एक चक्रवर्ती सम्राट को मान्यता देकर लोग उसके स्वाभाविक अनुचर बन जाएं और देश की एकता और अखण्डता के लिए काम करना स्वीकार कर लें । दुर्भाग्य यही था कि सम्पूर्ण देश किसी एक राजनीतिक सत्ता के आधीन नहीं था।
हमें क्यों काट दिया गया इतिहास से
यद्यपि इन सब निराशाजनक परिस्थितियों के उपरान्त भी बहुत कुछ ऐसा था जो आशा का संचार करता था और जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि -” कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी- – – ” । कहीं ना कहीं चेतना के ऐसे स्रोत अभी भी फूट रहे थे जिनके कारण भारत भारत था और अपने पराक्रम और पौरुष से विदेशी शक्तियों से संघर्ष के लिए भी तैयार था। इतिहास का यह भी एक सत्य है कि उस समय की निराशाजनक परिस्थितियों में भी आशा और उत्साह का संचार करने में गुर्जर समाज के योद्धाओं का विशेष योगदान था।
इन परिस्थितियों पर विचार करते हुए लेखक ने अपनी पुस्तक “भारत के 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास”- भाग 1 , के पृष्ठ संख्या 26 पर लिखा है कि – “दक्षिण भारत और उत्तर भारत सहित पूरब और पश्चिम के सभी शासकों को संस्कृतिनाशक इतिहासकारों ने नितान्त उपेक्षित करने का प्रयास किया है – हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। हम यह भी विचार करें कि एक विदेशी आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम हमारे समकालीन इतिहास के लिए इतना कौतूहल और जिज्ञासा का विषय क्यों बन गया ? जिसने भारत पर केवल आक्रमण किया , यहाँ पर कोई लम्बा शासन नहीं किया , ना ही यहाँ की जनता के लिए कोई विशेष सुधारात्मक कार्य किए । जबकि पूरे देश के तत्कालीन राजाओं ने और (बाद में) सम्राट सम्राट मिहिर भोज ने देश के लिए और देश की जनता के लिए जो कुछ किया , वह अंततः किस षड़यंत्र के छल प्रपंच की भेंट चढ गया ? चिन्तन करना पड़ेगा । छल प्रपंच को समझना पड़ेगा और उनकी एक – एक परत को उधेड़कर देखना पड़ेगा कि अन्ततः हमें हमारे ही अतीत से और गौरवमयी इतिहास से क्यों और किस लिए इतनी निर्ममता से काट दिया गया ?”
सतत प्रवाह मान इतिहास ।
करता हमको पूर्ण निराश ।।
धारा का हुआ विकृतिकरण ।
नहीं , हुआ है विलोपीकरण ।।
इतिहास से मांगो यही वरदान ।
दे दो हमारा हमें सही स्थान ।।
जिनकी सोच रही है विकृत ।
उन्हीं का रहा है यह दुष्कृत्य ।।
हमें यह तो बताया जाता है कि जब मुहम्मद बिन कासिम भारत आया था तो उसका भारत की ओर आकर्षित होने का एक महत्वपूर्ण कारण था कि भारत में उस समय कोई एक ऐसी राजनीतिक सत्ता नहीं थी , जो सम्पूर्ण भारतवर्ष पर शासन करती हो ।
इसके साथ-साथ हमें यह क्यों नहीं बताया जाता कि मोहम्मद बिन कासिम भारत पर इस्लाम को थोपने और यहाँ की संस्कृति को उजाड़ने के लिए भेजा गया था ? उस समय भी संसार में इस्लाम को फैलाने का बड़े स्तर पर कार्य हो रहा था और संसार इस्लामिक आतंकवाद से ग्रसित था , उसी से प्रेरित होकर मोहम्मद बिन कासिम भारत आया था।
किसी सीमा तक यह माना जा सकता है कि मुहम्मद बिन कासिम को यह भ्रांति हुई कि भारत इस समय अनेकों शक्तियों में बंटा पड़ा है , जिसका उसे राजनीतिक लाभ मिल सकता है। 648 ई0 में सम्राट हर्षवर्धन जैसे शक्तिशाली राजा का अन्त होते ही भारत में राजनीतिक शून्य उत्पन्न हुआ। इसके उपरान्त भी यह भी तो सत्य है कि गुर्जर शासकों ने उस शून्य को सम्राट हर्षवर्धन के काल से भी बेहतरीन ढंग से भरने का अद्भुत , अनुपम , अतुलनीय और अभिनन्दनीय प्रयास किया। इसके उपरान्त भी विदेशी शक्तियां भारत की ओर शत्रुता के भाव से देख रही थीं । इन विदेशी शक्तियों में अरब के लोग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जो भारत में इस्लामिक क्रान्ति करना अपना सर्वोपरि कर्तव्य मान रहे थे। वे लोग संसार के अन्य कई क्षेत्रों में अपने इस ‘महान और पवित्र कार्य’ को कर भी चुके थे । जब वह भारत की ओर देखते थे तो भारत के ‘राजा दाहिर’ जैसे शासक उन्हें भारत के भीतर प्रवेश करने से रोक देते थे । अतः उनके भीतर भारत को लेकर एक बौखलाहट भी थी और झुंझलाहट भी थी कि भारत में प्रवेश कैसे किया जाए ?
‘गुर्जर कालखंड’ के नाम से इतिहास में स्थान मिलना चाहिए
इतिहास के इस सत्य को तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में बहुत गहराई से समझने की आवश्यकता है और फिर यह देखने की भी आवश्यकता है कि भारत अरब की इस बौखलाहट और झुंझलाहट का सामना करने की किस प्रकार तैयारी कर रहा था ? उसकी कोई तैयारी थी भी या नहीं और यदि थी तो फिर वह कौन लोग थे जो अरब आक्रमणकारियों की बौखलाहट व झुंझलाहट का सटीक प्रत्युत्तर देने के लिए भारत में ‘संस्कृति रक्षक’ के रूप में तैयार खड़े थे ?
इस प्रश्न का कोई भी गम्भीर इतिहासकार या लेखक उत्तर देगा तो निश्चित रूप से उन ‘संस्कृति रक्षकों’ के रूप में केवल और केवल गुर्जर समाज के योद्धाओं का नाम ही अग्रगण्य होगा। ऐसे में इतिहास को बहुत सावधानी से लिखने , समझने व पढ़ने की आवश्यकता है । तत्कालीन परिस्थितियों के संदर्भ में यह देखने की आवश्यकता है कि आक्रमण क्यों हुआ ? और आक्रमण का प्रतिकार क्यों किया जा रहा था ? यदि इस पर गम्भीर लेखन होगा तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि भारत की संस्कृति , भारत के धर्म और भारत के इतिहास को बचाने के लिए यह सब कुछ हो रहा था , क्योंकि आक्रामक शक्तियों का उद्देश्य भारत के धर्म , संस्कृति और इतिहास को उजाड़ना था । अतः स्वाभाविक है कि जो लोग प्रत्युत्तर दे रहे थे वह भारत के धर्म , संस्कृति और इतिहास की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने की तैयारी कर रहे थे ।
गुर्जर कालखंड से दो इतिहास को मान ।
रक्षक थे वे देश के सर्वस्व किया बलिदान ।।
जो देश रखे बलिदान को अंतर्मन में ध्यान ।
वही देश आगे बढ़े और जग में पाता मान ।।
हमारा मानना है कि मोहम्मद बिन कासिम से लेकर आगे जब तक देश आजाद हुआ तब तक के इतिहास को इसी दृष्टिकोण से पढ़ने व समझने का प्रयास करना चाहिए और अपने इन स्वतन्त्रता प्रेमी योद्धाओं का इसी रूप में इतिहास में स्थान सुरक्षित करना चाहिए। जिस काल का हम वर्णन कर रहे हैं उस समय माना कि कुछ परिस्थितियां निराशाजनक थीं, पर इस सबके उपरान्त भी तैयारियां बहुत ही उत्साहजनक थीं । कहीं से भी कोई ऐसा संकेत नहीं था कि देश , धर्म और संस्कृति की रक्षा करने से लोग पीछे हट रहे थे। यह तो और भी अधिक गौरवपूर्ण तथ्य है कि मोहम्मद बिन कासिम या उसके बाद के जो भी अरब आक्रमणकारी रहे , उन सबका सामना करने के लिए और उन्हें देश की सीमाओं से बाहर खदेड़ने के लिए यदि कोई समाज नेतृत्व देने के लिए आगे आ रहा था तो वह गुर्जर समाज ही था। यही कारण है कि तत्कालीन इतिहास के कालखण्ड को गुर्जर कालखण्ड के रूप में स्थापित करके देखने की आवश्यकता है । यदि भारत के इतिहास में तुर्कों के लिए एक ‘सल्तनत काल’ के नाम से कालखण्ड निर्धारित किया जा सकता है , मुगलों के नाम से ‘मुगल काल’ के नाम से कालखण्ड निर्धारित किया जा सकता है और ब्रिटिश सत्ताधीशों के लिए ‘भारत में ब्रिटिश काल’ निर्धारित जा सकता है तो 700 ई0 से लेकर और 1100 ई0 तक के कालखंड को ‘गुर्जर कालखंड’ के रूप में इतिहास में मान्यता मिलनी चाहिए। इस ‘गुर्जर कालखंड’ को राष्ट्रीय इतिहास में स्थान मिलना चाहिए।
इस्लाम की साम्प्रदायिक आंधी
वैसे हमें इस समय के बारे में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस्लाम न केवल उस समय भारत की ओर शत्रुभाव से देख रहा था अपितु वह संसार के अन्य देशों को भी निगलने की तैयारी कर रहा था । यह एक मजहबी आंधी थी जो अरब की धरती से उठ रही थी और कई देशों व कई सभ्यताओं को अपनी चपेट में लेकर या तो निगल चुकी थी या निगलने की तैयारी कर रही थी। मुस्लिम इतिहासकारों ने इस आंधी को कुछ इस प्रकार दिखाने का प्रयास किया है कि जैसे यह केवल भारत की ओर ही आई और इसने भारत को पहले झटके में ही विनष्ट कर दिया , जबकि सच यह है कि यह आंधी विश्व के अन्य देशों की ओर भी फैली और कई देशों व कई सभ्यताओं को निगलने में सफल रही।
भारत के तत्कालीन इतिहास को लुटेरों के लुटेरे इतिहासकारों की कलम से लिखी गई बातों के आधार पर लिखने का प्रयास किया जाता है । जिसे एक ‘अक्षम्य अपराध’ के रूप में ही माना जाना चाहिए। क्योंकि जब लुटेरे आक्रमणकारी भारत देश को लूटते थे और यहाँ पर नरसंहार करते थे तो उनकी उस लूट में से उन चाटुकार इतिहासकारों को उनका हिस्सा मिलता था , जिसे वह लेखन कार्य पर खर्च करते थे और अपनी आजीविका चलाते थे । ऐसे लेखकों से हम यह कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वह भारत की धर्म , संस्कृति और देशभक्ति की भावना का सम्मान कहीं कर सकते थे ? इसके उपरान्त भी भारत के ऐसे अनेकों इतिहासकार और लेखक हुए हैं और वर्त्तमान में भी हैं , जिन्होंने इन्हीं मुस्लिम इतिहासकारों के वर्णन को आधार बना बनाकर भारत के इतिहास के विकृतिकरण और तथ्यों के विलोपीकरण का कार्य किया है।
इस आंधी के बारे में यह एक आश्चर्यजनक किन्तु इतिहास का अकाट्य सत्य है कि भारत को यह सदियों बाद तक भी नहीं निगल सकी । तब ऐसे में निश्चय ही यह मानना पड़ेगा कि भारत के पास कुछ न कुछ ऐसा था जिसके कारण इस्लाम को यहाँ असफल होना पड़ा । निश्चय ही भारत का पौरुष , पराक्रम , वीरता और योद्धाओं का देशाभिमान का भाव हमारे पास ‘कुछ ऐसा था’- जिसके कारण भारत भारत बना रहा और भारत की संस्कृति को इस्लाम सदियों बाद तक भी आहत नहीं कर सका । भारत के इन सभी महान गुणों में श्रीवृद्धि करने में गुर्जर समाज का विशेष योगदान रहा।
थोड़ा सा दक्षिण भारत के बारे में
दक्षिण के दुर्ग को उस समय गुर्जरों के चालुक्य साम्राज्य ने सुरक्षित रखने का दायित्व संभाला । इसके पूर्व कई अन्य राजवंश भी ऐसे थे , जिन्होंने अपने – अपने साम्राज्य दक्षिण में स्थापित कर लिए थे। इनमें सर्वप्रथम नाम कल्चुरि वंश का लिया जा सकता है । इसका शासन गुजरात और पश्चिमी मालवा क्षेत्र का था । छठी शताब्दी के अन्त में यहाँ शंकरगण नामक राजा राज्य कर रहा था । 595 ई0 में शंकरगण के पुत्र बुधराज ने सत्ता संभाली। दूसरा राजवंश भोज था। छठी शताब्दी के अन्त में तथा सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भोजों के दो राज्यों की सत्ता का पता चलता है । इनमें से एक बरार विदर्भ क्षेत्र में तथा दूसरा गोवा के क्षेत्र में था । गोवा राज्य की राजधानी चन्द्रपुर थी । जिसे आज-कल चंदौर कहा जाता है । यह राजवंश भी उस समय पर्याप्त शक्तिशाली था।
दक्षिण भारत का तीसरा राजवंश त्रिकूटक था। कोंकण के उत्तरी क्षेत्र में इस राज्य की सीमाएं थीं । जबकि चौथा राजवंश राष्ट्रकूट था । यह राजवंश मानक द्वारा स्थापित किया गया । जिसने मानपुर को अपनी राजधानी बनाया था । वर्तमान सतारा प्रदेश में इसकी सत्ता थी । इस वंश के शासकों के प्रतिहार शासकों से संघर्ष होते रहे । पांचवां राजवंश पौराणिक राजा नल का बताया जाता है । छठी शताब्दी से इस वंश का उल्लेख मिलता है । विदर्भ क्षेत्र में इसकी स्थिति रही है । चालुक्य राजवंश ने इसको कुछ समय पश्चात उखाड़ दिया था । छठा राजवंश विष्णुकुण्डी का था । इसके राजा माधव वर्मा जनाश्रय ( 535 से 585 ई0 ) का विशेष उल्लेख मिलता है । इसका राज्य आंध्रप्रदेश की ओर था। इसके शासक विक्रमेंद्र वर्मा तृतीय ,( 620 – 631ई0 ) ईसवी को पराजित करके पुलकेशि ने उसकी सत्ता समाप्त कर दी थी । जबकि सातवां राजवंश कलिंग का था । यह वंश वर्तमान गंजाम जिले के मुखलिंगम (कलिंग नगर ) से शासित होता था । इसके राजा महेंद्र वर्मा तृतीय को सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में चालुक्य राजा पुलकेशि ने हरा दिया था ।आठवां राजवंश दक्षिण कौशल का था । मध्य प्रदेश के रायपुर बिलासपुर क्षेत्रों में इसका शासन रहा था । 634 ई0 में इस राजवंश के राजा हर्षदेव को पुलकेशि ने ही पराजित कर दिया था। गुप्त काल से प्रारंभ होकर यह राजवंश 634 ई0 में समाप्त हो गया । इस प्रकार पुलकेशि जैसे गुर्जर शासक की उन दिनों तूती बोल रही थी और गुर्जर सत्ता अपनी पूर्ण आभा बिखेर रही थी।
यद्यपि यह शासक कुछ समय पहले हुए , परन्तु हमने इनका उल्लेख यहाँ पर इसलिए किया है कि जिस समय अरब की धरती पर इस्लाम का जन्म हुआ था उस समय दक्षिण भारत में ये लोग कहीं ना कहीं देशभक्ति की भावना का संचार , प्रचार और प्रसार कर रहे थे । उस समय भारत की धर्म ध्वजा को लेकर यह लोग संघर्षरत थे । जिनका प्रभाव निश्चय ही उनकी मृत्यु के उपरान्त भी बना रहा और लोग उनकी देशभक्ति की भावना से प्रेरित रहे। माना जा सकता है कि राष्ट्रकूट जैसी शक्ति के द्वारा कहीं अपघात भी हुआ , परन्तु हम उन अपघातों को इतिहास का एक अंग मानकर भी उन्हें महिमामंडित करना उचित नहीं मानते , क्योंकि इतिहास वीरों का होता है ,अपघातियों का नहीं। हमें देखना यह चाहिए कि आघातों , अपघातों और विश्वासघातों की चोटों को एक ओर रखकर हमारे देशभक्त क्रांतिकारी , धर्मरक्षक और संस्कृति – रक्षक गुर्जर वंश के शासक या कोई भी अन्य क्षत्रिय शासक या योद्धा किस प्रकार सफल हुए ?
भारत पर चीन का आक्रमण
यह घटना हर्ष की मृत्यु के एकदम बाद की है । जिसके बारे में चीनी दूत वेंग ह्वेन सी ने कुछ संकेत किया है । सी के उद्धरणों के आधार पर सिलवान लेवी इत्यादि का मानना है कि 646 ई0 में चीनी सम्राट ने अपना एक दूत वेंग ह्वेन सी हर्ष के पास भेजा । जिस समय यह भारतवर्ष की सीमा पर पहुंचा तो उसे पता लगा कि हर्ष की मृत्यु हो चुकी थी और उसके स्थान पर अलानाशुन तीनोहोती में अपना राज्य स्थापित कर लिया था । अलानाशुन का समीकरण हर्ष के एक मंत्री अर्जुन के साथ किया जाता है । तीनोहोती संभवतः तीरभुक्ति ( तिरहुत प्रदेश) था। इस नवीन राजा ने चीनी दूत के प्रवेश को रोकने के लिए अपनी एक सेना भेजी । इस सेना ने सी के अंगरक्षकों को मार डाला । इस सेना से सी किसी प्रकार बच गया और वह तिब्बत भाग गया । इस बीच अर्जुन ने आसपास के अन्य राज्यों का दमन करके उनसे कर वसूलना आरंभ कर दिया ।
चीनी राजदूत की सहायता के लिए तिब्बत के राजा सांग गेम्पो ने 1000 सैनिक और नेपाल के राजा ने 7000 सैनिक भेजे । इस सेना के साथ सी ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया और 3 दिन में तोपोहोलो (चम्पारण या छपरा) पर अधिकार कर लिया । सी की सेना ने अर्जुन के 3000 सैनिकों को मार डाला । 10000 भारतीय नदी में डूब गए । स्मिथ ने इस नदी का समीकरण बागमती से किया है । अर्जुन दूसरे राज्य में भाग गया। परंतु कुछ समय पश्चात उसने सी से पुनः युद्ध किया । वह पुनः पराजित हुआ और अपने बहुसंख्यक सैनिकों के साथ बंदी बना लिया गया। सी ने इन समस्त सैनिकों की हत्या करा दी।
इसके पश्चात अर्जुन की रानी ने युद्ध जारी रखा। दुर्भाग्यवश रानी भी युद्ध में पराजित हुई । तब चीनी दूत सी की सेना ने रानी , उसके पुत्र और बहुसंख्यक सैनिकों को बन्दी बना लिया । तत्पश्चात विदेशी सेना ने 580 भारतीय नगरों का दमन किया । विजेता से आतंकित होकर हर्ष के परम मित्र श्री कुमार ने उसे बहुसंख्यक उपहार आदि भेंट किए ।
सी अर्जुन को चीन ले गया और वहाँ उसे अपने सम्राट के समक्ष प्रस्तुत किया । सम्राट ने सी की विजयों की प्रशंसा करते हुए उसे अपने राज्य में एक उच्च पद प्रदान किया ।
चीनी आक्रमण का यह ब्यौरा अधिकांशत: मा तवांग लिन के लेख पर आधारित है । परंतु सीवी वैद्य महोदय इस विवरण को स्वीकार नहीं करते । यद्यपि डॉक्टर मजूमदार का मत है कि तिब्बती राजा गेम्पो ने निश्चित रूप से भारतीय राजनीति में भाग लिया था और उसने संभवत: आसाम और नेपाल पर अधिकार कर लिया था । आधा जम्बूद्वीप उसके अधीन था। पारकर के अनुसार भारत पर तिब्बती अधिकार 702 ई0 तक रहा।
कुछ भी हो हमने इस घटना को यहाँ पर इसलिए उल्लेखित किया है कि भारत की राजनीतिक स्थिति मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से सही पहले बहुत अधिक दयनीय हो चुकी थीं। चीन जैसे दुर्बल देश के दूत के द्वारा भी भारत पर आक्रमण करने का दुस्साहस किया गया और उसमें भी हमारे तत्कालीन शासक सफल नहीं हो पाए । जिससे पता चलता है कि स्थिति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बन चुकी थीं । संभवतः चीन के इस दुस्साहस ने भी अरब आक्रमणकारियों को भारत पर उस ओर से आक्रमण करने के लिए ऊर्जा प्रदान की होगी । यद्यपि अरब आक्रमणकारी उससे पहले भी हमारी सीमाओं पर उत्पात मचा रहे थे , पर उस समय राजनीतिक नेतृत्व की मजबूती के कारण वह भीतर तक आकर किसी प्रकार का उत्पात मचाने में कभी सफल नहीं हो पाए थे , लेकिन अब परिस्थितियां परिवर्तित हो चुकी थीं ।
यद्यपि इन परिवर्तित परिस्थितियों में भी भारत का पराक्रम पुनर्जीवित हो उठा । जब शीघ्र ही नागभट्ट प्रथम और बप्पा रावल जैसे योद्धा उठ खड़े हुए और कश्मीर में ललितादित्य मुक्तापीड़ जैसे शासकों ने देश की सुरक्षा को सुदृढ़ करने की ओर प्रशंसनीय कदम उठाए। जिनके विषय में आगे चलकर यथा- स्थान हम उनके उल्लेखनीय कार्यों पर प्रकाश डालेंगे।
ललितादित्य मुक्तापीड़ ने कन्नौज के हर्षवर्धन के साम्राज्य के उत्तराधिकारी यशोवर्मा नामक राजा को परास्त कर दिया था और उससे अपनी अधीनता स्वीकार करवा ली थी । यद्यपि ललितादित्य ने यशो वर्मा के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाया था। दोनों पक्षों में संधि हो गई। ओउ-कांग नाम के चीनी यात्री के वर्णन से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।
राजा दाहिर के बारे में
राजा दाहिर सिंध के सिंधी ब्राह्मण सैन राजवंश के अंतिम राजा थे। वह अत्यंत प्रतापी , वीर , शौर्य सम्पन्न और देशभक्त शासक थे । उनके बारे में विदेशी इतिहासकारों ने बहुत कुछ गलत लिखा है । उसका कारण केवल यही है कि वह विदेशी लेखक और उनके राजनीतिक संरक्षक इस महान देशभक्त राजा के पौरुष से ईर्ष्या करते थे । अतः उन्होंने घृणावश ऐसा लिखा है । जिससे कि वह एक क्रूर और आततायी राजा के रूप में दिखाई दे । इस राजा ने विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण का बहुत ही वीरता के साथ सामना किया ।
अरबों का आक्रमण तो स्मरण किया ।
दाहिर सेन वीर क्यों विस्मरण किया ?
क्या बलिदानी रक्त सुर्ख नहीं होता है ?
यदि हाँ, तो शत्रु को भारत क्यों ढोता है ?
उसने भारत के अन्य राजाओं से किसी प्रकार की सहायता की याचना नहीं की और न ही इस बात की प्रतीक्षा की कि वे उसकी सहायता के लिए सेना लेकर आएं । जैसे ही उसे यह सूचना मिली कि विदेशी आक्रमणकारी भारत की सीमाओं की ओर बढ़ा चला आ रहा है , वह तुरंत दहाड़ते हुए शेर की भांति शत्रु दल पर टूट पड़ा । महाराजा दाहिर की सेना में गुर्जर सैनिकों तथा सेनापति मानू गुर्जर की उपस्थिति का उल्लेख भी मिलता है । जिसने देवल (कराची ) की बन्दरगाह में अरब के समुद्री जहाजों के उन नागरिकों को मारकर सामान लूट लिया था जो वहाँ की सिंधी हिन्दू स्त्रियों का अपहरण करके ले जाना चाहते थे । बाद में वही मानू गुर्जर महाराजा दाहिर का प्रधान सेनापति बना था। निस्संदेह आज सिन्ध का वह क्षेत्र भारत का एक अंग नहीं है , परन्तु इतिहास का वह कालखण्ड तो सृष्टि पर्यंत भारत का एक अंग रहेगा । ऐसे में उस सत्य घटना का समावेश कर अपने मानू देव गुर्जर सेनापति को भावपूर्ण श्रद्धांजलि तब तक नहीं दी जा सकती जब तक उस घटना का विस्तृत विवरण इतिहास में एक प्रेरक प्रसंग के रूप में दर्ज नहीं हो जाता है।
उनके समय में ही अरबों ने सर्वप्रथम सन 712 ई0 में भारत (सिंध) पर आक्रमण किया था। मोहम्मद बिन कासिम ने 712 में सिंध पर आक्रमण किया था। जहाँ पर राजा दाहिर सैन ने उन्हें रोका और उनके साथ युद्ध लड़ा । उनका शासन काल 663 से 712 ई0 तक माना जाता है। अपने शासनकाल में वह इससे पूर्व भी अरब आक्रमणकारियों के आक्रमणों को रोकते रहे थे । जिनका कोई उल्लेख जानबूझकर नहीं किया जाता , क्योंकि पहले किए गए उन युद्धों में वह सफल रहे थे। उन्होंने अपने शासनकाल में अपने सिंध प्रान्त को बहुत ही सशक्त बनाया । युद्ध का परिणाम चाहे जो रहा हो , लेकिन वर्तमान भारत उनके उपकारों का ऋणी है , क्योंकि उनका सारा जीवन ही देशभक्ति से ओतप्रोत और देश सेवा के लिए समर्पित रहा।
क्या अरब के लोग वीर थे ?
हमें इतिहास के इस तथ्य को भी समझना चाहिए कि अरब देश के लोग न तो वीर थे और न शौर्यसम्पन्न थे ।वह झगड़ालू , लुटेरे और डकैत थे । वीर और शौर्यसम्पन्न वे लोग होते हैं जो दुर्बल के हितों की रक्षा के लिए अपनी जवानी को बलिदान करने का भाव रखते हैं या अपना सर्वस्व उन आदर्शों और सिद्धांतों के लिए बलि देने को तैयार होते हैं , जिनसे मानवता का और प्राणीमात्र का कल्याण होता हो । इसके विपरीत जो लोग मानवता का विनाश करने के लिए या मानवीय सांस्कृतिक मूल्यों व मानदण्डों का विनाश करने के लिए आगे बढ़ते हैं ,वे झगड़ालू , लुटेरे , डकैत व दुस्साहसी तो हो सकते हैं , परन्तु वीर नहीं हो सकते। दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करने के लिए , दूसरों के जीवन को नष्ट करने के लिए , दूसरे देशों में जा – जाकर बड़े – बड़े नरसंहार कर उनके धन-संपत्ति को लूटने और महिलाओं का शीलभंग करने वाले लोगों को भी यदि वीर कहा जाएगा तो जो लोग इन तथाकथित वीरों से अपने सम्मान की लड़ाई लड़ रहे थे , उन्हें क्या कहा जाएगा ? – इतिहास को इस गम्भीर प्रश्न का भी उत्तर देना ही होगा। हम को समझना चाहिए कि :–
अधिकारों का हन्ता ना वीर कभी होता है ।
कर्तव्यपालक दु:खहर्ता ही वीर सही होता है ।।
इन तथाकथित वीर अरब आक्रमणकारियों के बारे में रतन लाल वर्मा जी लिखते हैं :- “पहले चार खलीफा अबू बकर , सद्दीक, उमर , उस्मान अली थे और अरब की जलसेना द्वारा भारत पर पहला आक्रमण 636 ई0 में भड़ौंच राज्य के थाना स्थान पर हुआ था। जिसको भड़ौंच के गुर्जरों ने करारी हार देकर खदेड़ दिया था । उपरोक्त खलीफाओं के समय अरबों को आश्चर्यजनक सफलताएं मिलीं । अरब की अजेय सेनाएं फिलिस्तीन , सूडान , लीबिया , अल्जीरिया आदि देशों को विजय करती हुई तथा वहाँ के जन समूह को तुरन्त मुसलमान बनाती हुई अफ्रीका महाद्वीप के अधिकांश भागों पर अपना कब्जा कर चुकी थीं । मिश्र , बेबीलोन की पुरानी सभ्यताएं समाप्त हो गई थीं । पूर्व में ईरान को विजय करके इस्लाम बना दिया गया था और वहाँ के जो लोग जान बचाकर भारत आ गए थे , वे पारसी कहलाते हैं । उन चार के बाद कर्बला का आपसी युद्ध जीतकर तथा हजरत अली के पुत्र हुसैन को मारकर उमैया वंश के लोग खलीफा बने थे । उनके समय अरब साम्राज्य अफ्रीका , एशिया व यूरोप तीनों महाद्वीपों के विशाल भूखंडों में फैल गया था । यूरोप में स्पेन पर इस्लामी झंडा लहरा रहा था तथा उत्तर में मध्येशिया के तुर्क राज्यों से पराजित होकर धड़ाधड़ मुसलमान बनते जा रहे थे । उसी समय के भारत पर भयानक आक्रमणों का प्रारम्भ हुआ।”
इस प्रकार की वीरता को मुस्लिम आक्रमणकारियों की इस्लाम की सेवा तो कहा जा सकता है , लेकिन इंसानियत की सेवा नहीं कहा जा सकता । खैर , आप जो कुछ भी कहें वह कह सकते हैं । हम तो इतना ही कहना चाहेंगे कि :–
इंसानियत और इस्लाम की सेवा में है फर्क ।
एक करे भव पार तो एक से मिलता नर्क ।।
ऐसी मानसिकता व परिस्थितियों के मध्य अरब आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण करने आरम्भ किए थे । उनके आक्रमण से पहले भारत भी इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयारी कर रहा था। इस तैयारी का सारा उत्तरदायित्व गुर्जर समाज के योद्धा अपने कंधों पर ले रहे थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत