राम प्रसाद बिस्मिल जी व काकोरी केस के बारे में दुर्लभ जानकारी

यह जानकारी आपने पहले कभी नहीं पढ़ी होगी।

राम प्रसाद बिस्मिल काकोरी कांड के मुख्य अभियुक्त थे। इनकी फांसी के बाद इनका परिवार अभावों मे रहा। सरकारों ने कोई सुध नहीं ली। परंतु आज हमारे लेख का विषय इनके वकील और सरकारी वकील व नेहरू खानदान से है।

पण्डित जगत नारायण मुल्ला- ब्रिटिश सरकार की ओर से सरकारी वकील थे। बिस्मिल और बाकी क्रांतिकारियों को फांसी दिलवाने मे जी जान लगा दिया। 1926 मे ब्रिटिश सरकार से काकोरी केस के लिए इन्हे 500 रुपया प्रतिदिन मिलता था। सेशन कोर्ट के बाद जब ये केस चीफ कोर्ट मे गया तब भी सरकारी वकील यही थे। ये पंडित मोती लाल नेहरू के भाई नन्द लाल नेहरू के समधी थे। नन्दलाल नेहरू के पुत्र किशन लाल नेहरू का विवाह जगत नारायण की पुत्री स्वराजवती मुल्ला से हुआ था।1916 ई. की लखनऊ कांग्रेस की स्वागत-समिति के अध्यक्ष वही थे। लगभग 15 वर्षों तक लखनऊ नगरपालिका के अध्यक्ष रहे। मांटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के बाद उत्तर प्रदेश कौंसिल के सदस्य निर्वाचित हुए और प्रदेश के स्वायत्त शासन विभाग के मंत्री बने। जगत नारायण मुल्ला 3 वर्ष तक वे लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। जीवन का अंतिम समय इनहोने स्विट्जरलैंड मे बिताया। ये ब्रिटिश के इतने खास थे कि जलियाँवाला बाग की जांच के लिए बने हंटर आयोग के सदस्य थे। इनके लड़के आनंद नारायण मुल्ला बाद मे हाईकोर्ट के जज बने। कांग्रेस ने उसे राज्यसभा का सदस्य भी बनाया।

यहाँ एक और नाम का उल्लेख भी जरूरी है। जवाहर लाल नेहरू के खास गोबिन्द वल्लभ पन्त। पन्त ने क्रांतिकारियों का वकील बनने से इंकार कर दिया क्योंकि उन्हे ब्रिटिश सरकार द्वारा दी जाने वाली फीस कम लगी। 1954 मे पन्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस कुम्भ मे ये नेहरू की आवभगत मे इतने लीन रहे कि कुम्भ मे हैजा फैल गया। सैंकड़ों लोग मर गए। पन्त ने लावारिस की तरह उनका सामूहिक दाह संस्कार करवा दिया। सौभाग्य से एक पत्रकार के उस सामूहिक दाह संस्कार का फोटो ले लिया और यह मामला सार्वजनिक हो गया।

रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों को ब्रिटिश सरकार अपना दुश्मन मानती थी. आज से 90 साल पहले ब्रिटिश सरकार ने 3 लाख रूपए खर्च किए थे काकोरी के केस में ताकि बिस्मिल और उनके साथी फांसी पर टंग जाएं. यह वह दौर था (1927) जब क्रांतिकारियों की वकालत करने के लिए कोई तैयार नहीं होता था.

चंद्रभानु गुप्ता का जन्म 14 जुलाई 1902 में अलीगढ़ के बिजौली में हुआ था. उनके पिता हीरालाल थे. वो दौर आर्यसमाज का था. चंद्रभानु इससे जुड़ गये और पूरे जीवन इन्हीं बातों को ले के चलते रहे. आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते रहे, कभी शादी नहीं की. इनकी शुरुआती पढ़ाई लखीमपुर खीरी में हुई. फिर वो लखनऊ चले आए. लॉ पूरा किया. और लखनऊ में ही वकालत शुरू कर दी. एक जाने-माने वकील बन गये. चंद्रभानु साइमन कमीशन के विरोध में भी खड़े हुए. जेल गये. पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में कुल 10 बार जेल गये. इसी दौरान काकोरी काण्ड के क्रांतिकारियों के बचाव दल के वकीलों में भी रहे.

1937 के चुनाव में वो उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गए. फिर स्वतन्त्रता के पहले 1946 में बनी पहली प्रदेश सरकार में वो गोविंदबल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी के रूप में सम्मिलित हुए. फिर 1948 से 1959 तक उन्होंने कई विभागों के मंत्री के रूप में काम किया.

चंद्रभानु नेहरू के सोशलिज्म से बिलकुल प्रभावित नहीं थे. तो नेहरू इनको पसंद नहीं करते थे. पर यूपी कांग्रेस में चंद्रभानु का इतना प्रभाव था कि विधायक पहले चंद्रभानु के सामने नतमस्तक होते थे, बाद में नेहरू के सामने साष्टांग.

1963 में के कामराज ने नेहरू को सलाह दी कि कुछ लोगों को छोड़कर सारे कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों को रिजाइन कर देना चाहिए. जिससे कि स्टेट सरकारों को फिर से ऑर्गेनाइज किया जा सके. कहा गया कि कुछ दिन के लिए पद छोड़ दीजिए. पार्टी के लिए काम करना है. पर चंद्रभानु की नजर में ये था कि ये सारा गेम इसलिए हो रहा है कि नेहरू जिसको पसंद नहीं करते, वो चला जाए. उन्होंने मना कर दिया. पर इनको समझा लिया गया कि ये कुछ दिनों की बात है. फिर से आपको बना दिया जायेगा मुख्यमंत्री. पर नहीं बनाया गया। इनको हटा कर सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बना दिया। सुचेता कृपलानी का उत्तर प्रदेश से को दूर दूर तक कोई संबंध नहीं था। हमेशा आरोप लगता रहा कि गुप्ता ने खूब पैसा बनाया है. पर जब मरे तो उनके अकाउंट में दस हजार रुपये थे.

अब आप स्वयं देख लें कि आजादी के बाद सत्ता नेहरू को क्यों मिली?
गद्दारों को बड़ी चालाकी से सब छुपा दिया गया और आजादी के बाद उनके खानदान वाले मजे मे रहे।

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