प्राचीन काल से अद्यतन पर्यंत मानव की इच्छा रही है शांति की खोज। इसलिए चाहे आज का मानव कितना भी भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण है तथा चाहे कितना भी व्यस्त है , परंतु उसमें एक असीम शांति की चाह में अवश्य है । मानव को असीम शांति कैसे प्राप्त हो सकती है ? इस पर हमारे महर्षियों, मनीषियों ,चिंतकों, मुनियों महापुरुषों द्वारा अनेक रास्ते बताए गए हैं ।आवश्यकता है तो मात्र उचित मार्ग अर्थात सत मार्ग एवं सत्कार्य को ग्रहण करने की।
सर्वप्रथम हमें शांति के अर्थ को समझना होगा। वास्तव में दैहिक दैविक एवं भौतिक त्रिताप से रहित चित्त की सम अवस्था को शांति कहते हैं ।
शांति की भी अवस्थाएं तीन प्रकार की होती हैं , आध्यात्मिक शांति, आधि दैविक और आधिभौतिक शांति।
शांति की प्राप्ति कैसे संभव है ? शांति की प्राप्ति आत्म संतोष से होती है । मनुष्य अपने दायित्व एवं कर्तव्यों के समुचित निर्वहन के पश्चात आत्मसंतोष का अनुभव करता है । परंतु शर्त ये है कि कर्तव्य का निष्पादन भी पवित्रता से अर्थात धर्म की मर्यादा के अनुसार किया गया हो। जिससे चित् की निर्मलता निरंतर बनी रहती है । जो मनुष्य मन ,वचन और कर्म तीनों से पवित्र हो ,उसी पर उस निर्विकार, निर्लेप नियंता की करुणा पल-पल बरसती है। वहीं पर शांति का वास है।
इसके अतिरिक्त सत्व के प्रकाश में चित् की प्रसन्नता का नाम संतोष है । जैसे मन सदैव एक सा नहीं रहता, घटता बढ़ता रहता है ,लेकिन आयु हमेशा पल-पल, स्वास स्वास पर घटती है । इसके विपरीत तृष्णा हमेशा बढ़ती रहती है। परंतु एक बात तो हमेशा एक जैसी रहती है और वह है विधाता का विधान। मानव को अपने चित्त की वृत्ति तीनों प्रकार के तापों में विधि विधान के तुल्य सम रखना ही ईश्वरीय गुण होगा और इसी से शांति का मार्ग प्रशस्त होगा।
विवेकशील मानव स्वस्ति पर विचार करता है ।इस का संधि विच्छेद हो तो सु+ अस्ति अर्थात अच्छा है ,शुभ है ।जो कर्म शुभ है उसके निष्पादन के बाद ही आत्मानन्दानुभूति प्राप्त होती है। इसलिए शुभ व अशुभ पर विचार करके शुभ को धारण करना वह अशुभ को छोड़ देना ही शांति का मार्ग है।
हमारे पूर्वजों को चिंतन की विश्व में कहीं भी कोई समता नहीं कर सकता। वेद ने इस शांति की अनोखी परिकल्पना की है :-
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:सर्वं शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
यजुर्वेद के इस शांति पाठ मंत्र में सृष्टि के समस्त तत्वों व कारकों से शांति बनाये रखने की प्रार्थना करता है। इसमें यह गया है कि द्युलोक में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, शांति हो, शांति हो, शांति हो।
इस मंत्र पर यदि विचार करें तो विद्वानों का यह भी मानना है कि विश्व में सर्वत्र शांति व्याप्त है , इसलिए मेरे हृदय में भी शांति का वास हो । जैसी शांति या व्यवस्था द्यौलोक में , पृथ्वी ,अंतरिक्ष, वनस्पति, औषधि, जल आदि में व्याप्त है ,वैसी ही व्यवस्था मेरे अंतःकरण में भी व्याप्त हो जाए । किसी प्रकार की चंचलता शेष न रह जाए ।मन अचल , शांत , स्थिर, अटल और अडिग हो जाए।
ऐसे ही बृहदारण्यकोपनिषद् में भी एक मंत्र है, जिसे पवमान मन्त्र या पवमान अभयारोह मन्त्र कहा जाता है।
ॐ असतो मा सद्गमय।तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्माऽमृतं गमय।ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28।
इसका अर्थ है, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
जब यह प्रार्थना साकार रूप लेने लगती है तो पता चलता है कि अब मन चलायमान अवस्था को छोड़कर अचल होने लगा है । अस्थिरता को छोड़कर स्थिर होने लगा है और अपनी चपलता को छोड़कर निश्चल हो प्रभु की गोद में बैठने का अभ्यासी हो गया है । जब मन प्रभु की गोद में बैठने का अभ्यासी बन जाता है तो हृदय में असीम आनंद और प्रसन्नता की अनुभूति होती है । उसी अनुभूति का नाम शांति है।
जब इस असीम आनंद और प्रसन्नता की अनुभूति को का आनंद , स्वाद या मजा मन एक बार चख लेता है तो फिर बार-बार उसे इसी आनंद में डूबने की इच्छा होती है , बार-बार होने वाली इस इच्छा से भक्ति और वैराग्य मजबूत होते हैं।
जिसे इस असीम आनंद और प्रसन्नता की अनुभूति में उस प्यारे के नूर की एक झलक मिल जाती है , वह उसके उस अनुपम रूप कर रसिया बन जाता है। वह उसके प्यार में पागल हो जाता है । उसकी तड़प बढ़ जाती है वैराग्य सिर चढ़कर बोलने लगता है। वह पपीहा हो जाता है । चातक बन जाता है । उसकी पी – पी अर्थात ओ३म – ओ३म की ध्वनि केवल और केवल अपने प्यारे को रिझाने के लिए निकलने लगती है । शांति का यह रंग जिसके जीवन में बिखर जाता है उसको लोग चाहे पागल कहें पर उसके हृदय में अमृत के लच्छे भर जाते हैं। वह कह उठता है :–
जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है ।
हर एक शै में आता नजर तू ही तू है।।
मानव्य यदि दोषपूर्ण नीतियों का दमन कर ले और सद प्रवृत्तियों को ही प्रभावी रखे तो मानव मानव ही नहीं अपितु देवता बन जाता है । मानव यदि दुष्ट प्रवृत्तियों के दुष्प्रभाव में आ गया तो राक्षस हो गया। इसलिए चित् की निर्मलता जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। एक ही चित् में उठ रही वृत्तियों से दानव या मानव की संज्ञा सुलभ है।
महात्मा नारायण स्वामी द्वारा रचित ‘योग रहस्य’ नामक पुस्तक मे चित्त की वृत्तियों का निरोध करने का साधन बताया है । जब चित्त की वृत्तियां इंद्रियों के माध्यम से बाह्य जगत में न जाकर अंतर्मुखी हो जाती हैं , तभी मनुष्य का अभ्युदय संभव है ।इसमें वृत्तियों का सदुपयोग को सदप्रवृत्ति कहा जा सकता है तथा बाह्य जगत में इंद्रियों के माध्यम से आंतरिक ऊर्जा का दुरुपयोग दुष्ट प्रवृत्ति कही जा सकती हैं। दुष्ट प्रवृत्ति से ही मानव की उर्जा का दुरुपयोग बाह्य जगत में होता है। जो पतन का कारण बनती है।
इसीलिए शायद विद्वानों ने कहा है कि :–
दमन कर चित्त की वृत्ति लगा ले योग में गोता।
मगन ईश्वर की भक्ति में अरे मन क्यों नहीं होता।।
जनसाधारण योग का अन्यथा अर्थ लगाकर गंगा नदी में गोता लगाकर पाप निवृत्ति समझ बैठते हैं। जो अज्ञानता का परिचायक है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि मानव के दोष कर्मों का फल नहीं मिले।अर्थात गंगा में स्नान करने से पाप नहीं धुलते हैं और न ही पानी में धुलते हैं जैसा किया है वैसा भरना है। इसके अतिरिक्त गंगा नदी में गोता लगाते समय तन धोया तो मन को नहीं धोया । चित् में उठने वाली वृत्ति से ही मानव के भाव और विचार बनते और विचारों से कर्म बनते हैं ।कई सदकार्य करने या दुष्कर्म करने से पहले विचार बीज रूप में चित् में हीं उठेगा ।जैसे मदिरा सेवन करने से पहले उसके प्रति चित् में विचार उठेंगे ।ऐसे ही सत्कर्म करने से पूर्व चित् में अच्छे विचार आएंगे।
विश्व का कल्याण करने की भावना भी चित्त में ही आएगी इसलिए चित् की वृत्ति पर मानव विचार करे क्योंकि वृत्ति ही शब्द बनी शब्दों पर विचार करें तो कार्य की परिणति में बदले शांत चित रहना कब संभव है ।जब मानव के पास आध्यात्मिक ज्ञान और विवेक होगा। आध्यात्मिक ज्ञान से ही आधिदैहिक शांति संभव है या यूं कहें कि आधिदैहिक शांति का प्रादुर्भाव आध्यात्मिक शांति से होता है। आधिदैहिक शांति के बाद आदि भौतिक शांति प्राप्त होती है ,जैसे एक धातु के बने बर्तन में गर्म पेय पदार्थ रखने से धातु का बाहरी तल पकड़ने पर गर्म भासता है लेकिन उसी धातु के बर्तन में यदि ठंडा पेय पदार्थ रखें तो वह ठंडा लगता है ।इसी प्रकार अंतर्मन की शांति से ही परम शांति संभव है। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि यद्यपि तीनों प्रकार की शांति आध्यात्मिक , आधि दैहिक एवं आधिभौतिक अन्योन्याश्रित हैं परंतु आध्यात्मिक शांति प्रथम एवम् प्रमुख हैं।आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है आत्म साक्षात्कार से । कयोंकि जो आत्मसाक्षात्कार करता है, वही प्रभु से साक्षात्कार करता है। इसलिए आत्मसाक्षात्कार को ग्रहण करना चाहिए। आत्मावलोकन करना चाहिए ।तत्पश्चात मंथन करके बुराई और अकर्म को छोड़ना चाहिए ।इंद्रियों को जीत कर साधना के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने से ही ईश्वर का साक्षात्कार प्राप्त होता है व चित् की निर्मलता निरंतर बनी रहती है।
चित् से चिंतन ब्रह्मा का देह करे सत्कर्म ।
वाणी सत भाषण करे यह मानव का धर्म।।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत