ओ३म्
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मनुष्य के अनेक कर्तव्य होते हैं। जो मनुष्य अपने सभी आवश्यक कर्तव्यों का पालन करता है वह समाज में प्रतिष्ठित एवं प्रशंसित होता है। जो नहीं करता वह निन्दा का पात्र बनता है। मनुष्य का प्रथम कर्तव्य स्वयं को तथा परमात्मा को जानना होता है। हम स्वयं को व परमात्मा को कैसे जान सकते हैं? इसके लिये हमारे माता-पिता व आचार्य हमें ज्ञान कराते हैं। माता-पिता और आचार्यों से जो ज्ञान मिलता है वह वाणी के द्वारा शब्दमय ज्ञान होता है। हमें इससे ईश्वर व आत्मा का ज्ञान हो जाता है। इस ज्ञान में हम वेद, सत्यार्थप्रकाश एवं ऋषियों के बनाये ग्रन्थ उपनिषद, दर्शन एवं मनुस्मृति आदि के स्वाध्याय वा अध्ययन से वृद्धि कर सकते हैं। इसके साथ ही जब हम प्रतिदिन ईश्वर व आत्मा को लक्ष्य कर चिन्तन व मनन करते हैं तो हमारा ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान स्थिर व स्थाई हो जाता है। ईश्वर के स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव सहित अपनी आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मनुष्य ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के महत्व को भी समझ जाता है। मनुष्य को परमात्मा ने ही माता-पिता के द्वारा जन्म दिया है। हमारा शरीर परमात्मा व उसकी व्यवस्था से बना है। हमें जो सुख प्राप्त होते हैं उसका आधार भी परमात्मा ही है। परमात्मा हमें हमारे पूर्व कृत व क्रियमाण पाप व पुण्य कर्मों के आधार पर सुख व दुःख देता है। परमात्मा हमारा माता, पिता और आचार्य भी है और साथ ही वह हमारा वास्तविक राजा और न्यायाधीश भी है। अतः ईश्वर के हम पर सबसे अधिक उपकार हैं। उन उपकारों को स्मरण करना और ईश्वर को नमन व धन्यवाद करना ही ईश्वर की उपासना व हमारा प्रमुख कर्तव्य हैं। उपासना करने से ईश्वर के प्रति मनुष्यों के कर्तव्य की पूर्ति भी होती है और अनेक अन्य लाभ भी होते हैं जो उपासना न करने वालों को नहीं होते। उन लाभों में एक लाभ यह है कि ज्ञानस्वरूप, प्रकाशस्वरूप, सत्यस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सद्गुणों के भण्डार परमात्मा की उपासना से मनुष्य को सद्ज्ञान, सद्गुणों की प्राप्ति, यश एवं सुखों की प्राप्ति होती है। आत्मा की उन्नति होती है। दुःखों से निवृत्ति भी होती है। परमात्मा की उपासना करने से परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है जो सुख व शान्ति प्रदान करने वाला होता है। परमात्मा से प्राप्त सुख लौकिक सुखों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण एवं आनन्ददायक होता है। इस सुख व आनन्द की तुलना सांसारिक सुखों से नहीं की जा सकती।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश नाम की एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना पर भी प्रकाश डाला है। उन्होंने बताया है कि सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये। परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से वह मुनष्यों के पापों को छुड़ाता नहीं है। उपासना आदि करने का फल इससे अन्य होता है। परमेश्वर की स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना आदि अनेक लाभ होते हैं। स्तुति पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया है कि परमात्मा सब पदार्थों व स्थानों में व्यापक है, वह शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् है। वह शुद्ध सर्वज्ञ, सब का अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध, परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या ‘‘वेद ज्ञान” से यथावत् अर्थों का बोध कराता है। यह ईश्वर की सगुण भक्ति कहलाती है। जिस-जिस गुण से परमेश्वर की स्तुति करते हैं वह सगुण भक्ति कही जाती है। परमात्मा कभी शरीर धारण रहीं करता अर्थात् उसका जन्म नहीं होता, उसमें छिद्र नहीं होता, वह नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसमें क्लेश, दुःख व अज्ञान कभी नहीं होता आदि। जिस-जिस राग, द्वेष आदि गुणों से पृथक मानकर परमेश्वर की स्तुति करते हैं वह निर्गुण स्तुति कही जाती व होती है। इन दोनों सगुण व निगुर्ण भक्ति का फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे ही गुण, कर्म व स्वभाव उपासक को अपने भी करने होते हैं। जैसे ईश्वर न्यायकारी है तो उपासक को भी सबके साथ न्यायपूर्वक व्यवहार ही करना चाहिये। जो मनुष्य अपने मुख के द्वारा दिखावे का परमेश्वर का गुणकीर्तन ही करता जाता है और अपने चरित्र को नहीं सुधारता उसका ईश्वर की स्तुति करना व्यर्थ होता है।
मनुष्य को परमेश्वर से स्तुति के साथ उससे प्रार्थना भी करनी चाहिये। हम नमूने के रूप में वेदमन्त्रों के आधार पर की जाने वाली दो प्रार्थनायें प्रस्तुत करते हैं। प्रथम- हे अग्ने अर्थात् प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! आप की कृपा के जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते हैं उसी बुद्धि से युक्त हम को इसी वर्तमान समय में आप हमें बुद्धिमान कीजिये। द्वितीय प्रार्थना- आप प्रकाशस्वरूप हैं, कृपा करके हे परमेश्वर! मुझ में भी प्रकाश स्थापन कीजिये। आप अनन्त पराक्रम से युक्त हैं इसलिये मुझ में भी कृपाकटाश से पूर्ण पराक्रम धारण कराईये। आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं, मुझ को भी पूर्ण सामर्थ्य दीजिये। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझ प्रार्थना करने वाले को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और स्व-अपराधियों को सहन करने वाले हैं, कृपा करके मुझ को भी वैसा ही बनाईये। हे परमगुरु परमात्मन्! आप हम को असत् कर्म से पृथक कर सन्मार्ग में प्रवृत्त कीजिये। अविद्यान्धकार को छुड़ा के विद्यारूप सूर्य को प्राप्त कीजिये और मृत्यु रोग से पृथक् करके मोक्ष के आनन्दरूप अमृत को प्राप्त कीजिये।
मनुष्य जिस-जिस दोष वा दुर्गुण से परमेश्वर और अपने को भी पृथक मान कर परमेश्वर की प्रार्थना करता है, वह विधि व निषेध युक्त होने से सगुण व निर्गुण प्रार्थना कहलाती है। जो मनुष्य ईश्वर से जिस बात की प्रार्थना व मांग करता है उस-उस प्रार्थना के अनुरूप ही उसको व्यवहार करना चाहिये। मनुष्य जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिये परमात्मा की प्रार्थना करे उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सकता है उतना उसे करना चाहिये। अर्थात् प्रार्थना से पूर्व प्रार्थना के लक्ष्य की पूर्ति के लिये अपनी ओर से आवश्यक प्रयत्न करने चाहियें और इसके बाद ईश्वर से प्रार्थना करते हुए प्रार्थना की पूर्ति व सफलता के लिये विनती करनी चाहिये।
ईश्वर की उपासना के विषय में भी ऋषि दयानन्द के कुछ विचार प्रस्तुत करते हैं। वह बताते हैं कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, जिस मनुष्य ने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त लगाया है, उसको परमात्मा के योग का जो सुख होता है, वह वाणी से नहीं कहा जा सकता। इस कारण से कि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। आनन्द ऐसा गुण है जिसे वाणी से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। ईश्वर की उपासना का अर्थ ईश्वर के समीपस्थ होना है। योगदर्शन निहित अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उस को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो-जो काम करना होता है, वह वह सबको करना चाहिये। ऐसा करने से ही उपासना में सफलता मिलती है। ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं कि जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध स्थान में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभि प्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिक्षा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न होकर संयमी होवें। जब मनुष्य इन साधनों को करता है तब उस का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है। जो मनुष्य दिन के आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। उसको ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार भी होता है।
सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहलाती है। उपासना का फल क्या होता है इसको बताते हुए वह कहते हैं कि उपासना का फल, जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। इस उपासना को करने से इसका फल पृथक होगा। इससे आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सब दुःखों को सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो मनुष्य परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है। क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रखें हैं, उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, उसकी उपासना न करना, कृतघ्नता और मूर्खता है।
ऋषि दयानन्द ने उपासना के लिये सन्ध्या नाम की एक लघु पुस्तक लिखी है। उपासना की यह सर्वोत्तम विधि है। इससे उपासना करने से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी विधि से संसार के सब मनुष्यों को ईश्वर की उपासना करनी चाहिये। उपासना के लिये महर्षि पतंजलि लिखित योगदर्शन व उसका आर्य विद्वानों का भाष्य भी पढ़ना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का भी अध्ययन करना चाहिये। इससे हम उपासना के मर्म को समझ सकेंगे और ऐसा होने पर उपासना करने से हम उपासना के सभी लाभों ईश्वर साक्षात्कार एवं मुक्ति आदि को प्राप्त कर अपने मनुष्य जीवन को सफल कर सकेंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य