भारत में ही नहीं सारे विश्व में भी इस्लाम को मानने वाले लुटेरे बादशाह , सुल्तान या आक्रमणकारी जहाँ जहाँ भी गए , वहाँ – वहाँ ही उन्होंने स्थानीय लोगों के धार्मिक स्थलों का विध्वंस करना अपनी प्राथमिकता में सम्मिलित किया । इसका कारण केवल एक ही था कि इस्लाम को मानने वाले लोग पहले दिन से ही सारे संसार को इस्लामिक झंडे के नीचे ले आना चाहते थे । दु:ख की बात यह है कि इस मजहब को मानने वाले लोगों का यह प्रयास आज भी भी चल रहा है । वर्तमान संसार में बढ़ रहे कलह और क्लेश का एक प्रमुख कारण इस्लाम के मानने वाले लोगों की ऐसी सोच भी है ।
धार्मिक स्थलों के बारे में इस्लाम की सोच पर यदि विचार किया जाए तो इतिहास का यह एक कुख्यात तथ्य है कि यहाँ पर एक राम मंदिर नहीं अपितु भारत के लोगों की धार्मिक आस्था और विश्वास के प्रतीक अनेकों राम मंदिरों को इस्लाम के लुटेरे आक्रांताओं के द्वारा समय-समय पर तोड़ा गया है । निश्चित रूप से इन मन्दिरों की सुरक्षा के लिए भारत के लोगों ने अनगिनत बलिदान भी किये ।जिन्हें आज के इतिहास में कोई स्थान नहीं मिलता । इतिहास के अनेकों स्थलों पर ऐसा आभास कराया जाता है कि जैसे अतीत में कुछ भी नहीं हुआ और यदि कुछ हुआ है तो उसे साम्प्रदायिक सद्भाव के नाम पर भूल जाओ। यह कोई बुरी बात भी नहीं है । अतीत की कड़वी बातों को भूलना भी समय के अनुसार उचित ही होता है । जहाँ दो सम्प्रदाय परस्पर मिलकर चलने के लिए संकल्पबद्ध हों , वहाँ तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि लोग पिछली बातों को भूलें और आगे की स्वर्णिम योजनाओं पर काम करना सीखें ।
परन्तु जब अतीत में अपराधी रहा कोई सम्प्रदाय आज भी अपनी नीतियों को बदलने को तैयार ना हो तो क्षति उठा रहे सम्प्रदाय को यह सोचना ही चाहिए कि यदि वह सचेत , जागरूक और सावधान नहीं हुआ तो उसके अस्तित्व को क्षति पहुंचाने वाला सम्प्रदाय उसे मिटा कर रख देगा । इस दृष्टिकोण से इतिहास को वास्तविक तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया जाना और वास्तविक तथ्यों के साथ ही पढ़ा जाना आवश्यक होता है। साम्प्रदायिक सद्भाव किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए बहुत आवश्यक होता है परन्तु यह तभी बन पाता है जब प्रत्येक सम्प्रदाय सद्भाव की स्थापना के प्रति अपने समर्पण को पूर्ण निष्ठा के साथ निभाने के लिए वचनबद्ध हो।
भारत में जिन प्रमुख मन्दिरों को लूट – लूटकर और फिर वहाँ अपने अत्याचारों का दमन चक्र चलाकर उन्हें पूर्णतया विनष्ट करने का पाप विदेशी आक्रांताओं ने किया है , उनमें कश्मीर के अनंतनाग का सूर्य मन्दिर या मार्तण्ड मन्दिर सर्व प्रमुख है।
कश्मीर में स्थित पहलगाम और अनंतनाग में आने वाले पर्यटक इस मन्दिर की मनोहारी वास्तुकला को देख कर आज भी दाँतों तले उंगली दबा जाते हैं। आजादी के बाद कश्मीर में रहे मुस्लिम मुख्यमंत्रियों की उपेक्षापूर्ण नीतियों के कारण दक्षिणी कश्मीर के अनंतनाग और पहलगाम के रास्ते में स्थित मार्तंड सूर्य मन्दिर आज खण्डहर में परिवर्तित हो चुका है। इस प्रान्त को देश के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस के सबसे बड़े नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपने चहेते शेख अब्दुल्लाह की गोद में एक उपहार के रूप में डाल दिया था । दूसरे शब्दों में उनकी इस प्रकार की हिन्दू विरोधी नीति को ऐसे भी कहा जा सकता है कि उन्होंने हिन्दुओं के धर्म स्थलों को बर्बाद या आबाद करने का काम उन्हीं लोगों के हाथों में दे दिया था जिनके पूर्वजों ने या जिनकी विचारधारा में विश्वास रखने वाले उनके आकाओं ने कभी धरती के इस स्वर्ग पर खड़े हिन्दू मन्दिरों का विनाश किया था । पंडित जवाहरलाल नेहरु स्वयं भी हिन्दू मन्दिरों के प्रति कोई अधिक लगाव नहीं रखते थे । धर्मनिरपेक्षता की बीमारी पंडित जवाहरलाल नेहरू को सबसे अधिक थी । यही कारण था कि वह हिन्दू धर्म स्थलों से लगभग घृणा करते थे। अतः शेख अब्दुल्लाह जैसे लोग हिन्दू धर्म स्थलों के प्रति क्या नीति अपनाएंगे ? – इस पर नेहरूजी को कुछ भी सोचने की आवश्यकता नहीं थी।
मार्तंड सूर्य मन्दिर का निर्माण मध्यकालीन युग में 7वीं से 8वीं शताब्दी के दौरान सूर्य राजवंश के राजा ललितादित्य ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। मार्तण्ड सूर्य मन्दिर दक्षिण कश्मीर भाग में स्थित छोटे से शहर अनंतनाग से 60 किमी की दूरी पर स्थित एक पठार के ऊपर स्थित है। वास्तव में यह मन्दिर भारत की एक ऐतिहासिक विरासत या धरोहर है। जिसे देखकर भारत की स्थापत्य कला की उत्कृष्टता का अनुमान लगाया जा सकता है । इसमें 84 स्तंभ हैं जो नियमित अन्तराल पर रखे गए हैं।
मार्तण्ड सूर्य मन्दिर के निर्माण में पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया है । यदि इस मन्दिर का आप सूक्ष्मता से अवलोकन करेंगे तो पता चलता है कि इसका आंगन 220 फुट x 142 फुट है। यह मन्दिर 60 फुट लम्बा और 38 फुट चौड़ा था। इसके चतुर्दिक लगभग 80 प्रकोष्ठों के अवशेष आज भी विद्यमान हैं। इस मन्दिर के पूर्वी किनारे पर मुख्य प्रवेश द्वार का मंडप है। इस मंडप के बनावट और सौंदर्य को विदेशी लोगों ने भी चोरी किया है अर्थात इसकी नकल अपने यहाँ के धर्म स्थलों या ऐतिहासिक भवनों के निर्माण में की है। आप कभी इतिहास में इस बात से भ्रमित ना हों कि हमारे अमुक मन्दिर और यूरोप के या अमेरिका या एशिया के अमुक देश के धर्म स्थलों की बनावट एक जैसी है और हमारे इस मन्दिर पर अमुक देश की स्थापत्य कला का प्रभाव पड़ा है । इस प्रकार के भ्रामक तथ्य भारत से द्वेष रखने वाले इतिहासकारों ने जानबूझकर हमारे इतिहास में डाल दिये हैं । इस भ्रामक तथ्य के स्थान पर आप सदा यह पढ़ने व समझने का प्रयास करें कि भारत की इस स्थापत्य कला का अमुक – अमुक देशों के भवनों या धर्म स्थलों पर भी प्रभाव पड़ा है।
यह मन्दिर हिन्दू राजाओं की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है। इस मन्दिर को बनाने के लिए चूने के पत्थर की चौकोर ईंटों का उपयोग किया गया है।
आप मन्दिर घूमते हुए एक सरोवर को भी देख सकते हैं, जिसमें आज भी रंग बिरंगी मछलियां तैरती हुई दिखाई पड़ती हैं।
भारत में जब 7वीं सदी के प्रारंभ में मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण प्रारम्भ हुए तो उन्होंने पहले दिन से ही हिंदू धर्म स्थलों को तोड़ने , लूटने और वहाँ पर यदि संभव हो तो अपना धर्म स्थल खड़ा करने की नीति पर काम करना आरम्भ किया। भारत में अपना शासन स्थापित करना इन मुस्लिम आक्रमणकारियों का दूसरा उद्देश्य था । उनकी प्राथमिकता भारत के धर्म को नष्ट कर लोगों को इस्लाम के झंडे के नीचे ले आना था । जब हम ऐसा कह रहे हैं तो कई लोगों को यह भ्रांति भी हो सकती है कि यदि इस्लाम के आक्रमणकारी इसी उद्देश्य को लेकर भारत आए थे कि उन्हें यहाँ के लोगों का धर्मांतरण करना है तो भारत में आज भी हिन्दू ही क्यों अधिक हैं ? ऐसी भ्रांति में जीने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि वर्तमान भारत तो सातवीं शताब्दी के भारत की अपेक्षा एक तिहाई से भी कम है। उस समय के भारत में ईरान , अफगानिस्तान , पाकिस्तान , बांग्लादेश , वर्मा , नेपाल , तिब्बत का बहुत बड़ा क्षेत्र व श्रीलंका आदि सम्मिलित हुआ करते थे। धर्मांतरण करते – करते इस्लाम ने भारत का आधे से अधिक भूभाग छीन लिया है । वर्तमान भारत जैसे दो भारत भारत से छीने जा चुके हैं। वर्तमान इतिहास में इस दु:खद तथ्य का कोई उल्लेख नहीं किया जाता।
7वीं से लेकर 16वीं सदी तक लगातार हजारों हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिरों को तोड़ा और लूटा गया। उनमें से कुछ ऐसे थे, जो कि विशालतम होने के साथ ही भारतीय अस्मिता, पहचान और सम्मान से जुड़े थे।
कभी भारत की आन , बान , शान और गौरव के प्रतीक इस ऐतिहासिक और विशालकाय मार्तण्ड सूर्य मंदिर को मुस्लिम शासक सिकंदर बुतशिकन ने तुड़वाया था। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार इस मंदिर को कर्कोटा समुदाय के राजा ललितादित्य मुक्तिपीड़ ने 725-61 ईस्वी में निर्मित करवाया था।
ललितादित्य मुक्तापीड़ नाम का यह हिन्दू सम्राट अपने गौरवपूर्ण ऐतिहासिक काल के लिए इतिहास में जाना जाता है।
मुस्लिम इतिहासकार हसन ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में कश्मीरी जनता का धर्मांतरण किए जाने का उल्लेख इस प्रकार किया है, ‘सुल्तान बुतशिकन (सन् 1393) ने पंडितों को सबसे ज्यादा दबाया। उसने 3 खिर्बार (7 मन) जनेऊ को इकट्ठा किया था , जिसका मतलब है कि इतने पंडितों ने धर्म परिवर्तन कर लिया। हजरत अमीर कबीर (तत्कालीन धार्मिक नेता) ने ये सब अपनी आंखों से देखा। …उसने मन्दिर नष्ट किया और बेरहमी से कत्लेआम किया। -व्यथित जम्मू-कश्मीर, लेखक नरेन्द्र सहगल।
इस उल्लेख से पता चलता है कि जिस समय इस मंदिर को तोड़ा गया था उस समय हमारे अनेकों धर्म रक्षक लोगों ने अपना बलिदान दिया था। सात मन जनेऊ उन लोगों के उतारे गए जिन्हें या तो काट दिया गया था या उनका धर्म परिवर्तित कर उन्हें मुस्लिम बना लिया गया था। आज यह मन्दिर अपने दुर्भाग्य पर रो रहा है। जम्मू कश्मीर की अभी तक की सरकारों ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया कि भारत की ऐतिहासिक विरासत के प्रतीक इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया जाए । अब जबकि जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटने पर परिस्थितियों में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है , तब केंद्र सरकार को इस मन्दिर की ऐतिहासिकता के दृष्टिगत इसका जीर्णोद्धार कराना चाहिए । साथ ही यहाँ पर जिन लोगों का बलिदान हुआ , उनकी स्मृति में भी एक स्मारक बनाया जाए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
राष्ट्रीय अध्यक्ष ; भारतीय राष्ट्रीय इतिहास पुनरलेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत