भारत के इतिहास लेखन में जानबूझकर सबसे बड़ी चूक यह की गई है कि यहाँ के शासकों को विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध या तो पूर्णतया असावधान दिखाया गया है या फिर इस प्रकार प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है कि जैसे उन्हें राष्ट्र और राष्ट्रधर्म की कोई चिंता नहीं थी । इसी धारणा को सत्य के रूप में स्थापित करने के लिए इतिहासकारों ने इतिहास के साथ यह भी घालमेल किया है कि भारत के शासक दूसरे राज्यों से मिलकर देश की रक्षा के लिए कोई संघ बनाने या देशहित में कोई भी कदम उठाने के प्रति सदा निश्चेष्ट व निष्क्रिय रहे । इसी घालमेल की प्रक्रिया में गुर्जर कुषाण वंश के शासक कनिष्क और उसके वंश के अन्य राजाओं को विदेशी दिखाकर उनके शासनकाल को भारत के इतिहास से पृथक करके देखने का भी काम किया गया है । जिसका प्रभाव यह हुआ है कि लोग उसको एक ‘विदेशी आक्रमणकारी शासक’ मानकर उसके शासन और उसकी शासन की जनहितकारी नीतियों की ओर देखना भी उचित नहीं मानते। ‘विदेशी आक्रमणकारी शासक’ मानने के इस अभिशाप से हमने कनिष्क और उस जैसे कई अन्य शासकों को तो अभिशप्त कर दिया और इसी कारण उसे इतिहास के कूड़ेदान में भी फेंक दिया , परन्तु यही बात जब भारत में तुर्कों , मुगलों और विदेशी आक्रमणकारी अंग्रेजों के किसी नवाब , सुल्तान , बादशाह , गवर्नर जनरल या वायसराय के विषय में आती है तो उनके बारे में उसी इतिहासकार की लेखनी कुछ दूसरे प्रकार से लिखना आरम्भ कर देती है। हिन्दू हित के अनुसार शासन करने वाले कुषाण शासकों को जो लेखनी थोड़ी देर पहले यह कहकर कोस रही थी कि वह विदेशी थे और इसलिए उन्हें पढ़ना या उन पर शोध करना उचित नहीं है , वही अब तुर्कों , मुगलों और अंग्रेजों की आरती उतारकर यह कहना आरम्भ कर देती है कि उनका आना भारत के लिए सौभाग्य की बात रही और इन सबने भारत में आकर अमुक -अमुक सुधार किए या अमुक -अमुक जनहितकारी नीतियों का शुभारम्भ कर भारतीयों पर महान उपकार किए इत्यादि।
इतिहास की गंगा का प्रदूषण मुक्त
कहने का अभिप्राय है कि जहां गुर्जर शासक कनिष्क जैसे महान प्रतापी शासक के विशाल साम्राज्य को भी भारतद्वेषी सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है और उसकी गौरव गाथा को गाना विदेशियों का गुणगान माना जाता है, वहीं भारतद्वेषी इतिहासकार भारतीयता को सदा चोटिल करने वाले तुर्कों , मुगलों और अंग्रेजों का गुणगान किस मुंह करने लगते हैं ? यह समझ नहीं आता ।
ऐसे में यह समझने की आवश्यकता है कि भारत के इतिहास के लेखन में उचित मानदंडों का भी निर्धारण नहीं किया गया है । यह निश्चित नहीं किया गया है कि भारत के हित की बात करने वाले और भारत के धर्म और मर्म को समझने वाले प्रत्येक भारतीय शासक के कर्म की उचित समीक्षा और मीमांसा करते हुए उसे भारत के इतिहास के पृष्ठों पर उचित सम्मान व स्थान दिया जाएगा और जिसने इस देश के धर्म व मर्म को न समझकर उसके विपरीत आचरण किया है , या इस देश को प्रत्येक प्रकार से उजाड़ने का कार्य किया है , या इसके धर्म और मर्म को चोटिल करने का कार्य किया है – उसे विदेशी मानकर भारत के उन लोगों के कार्यों का वर्णन किया जाएगा जिन्होंने ऐसे शासकों का विरोध किया जो भारत के धर्म और मर्म के विपरीत कार्य कर रहे थे ।
वास्तव में ही हमें इतिहास लेखन के समय आंखें खोलकर काम करने की आवश्यकता है । तथ्य जो बोल रहे हैं उनके पीछे के छुपे हुए तथ्य जो छुपे हुए कुछ संकेत कर रहे हैं , उनको समझने की आवश्यकता है। हमें यह समझना होगा कि जो दिख रहा है सच वही नहीं है ,अपितु सच उसके पीछे भी हो सकता है । हमारा ध्यान इसी बात पर केंद्रित होना चाहिए कि जो सच हो सकता है , उसी को सामने लाकर प्रस्तुत किया जाए और उसी का गुणगान किया जाए। लेखनी के धनी इतिहास लेखकों के लिए यह एक चुनौती है कि वह भारत के इतिहास की गंगा को प्रदूषण मुक्त करें।
कुषाण वंशी शासकों की अप्रतिम सेवा
यदि हम निष्पक्ष भाव से भारतीय इतिहास के घटनाक्रम का अवलोकन करें तो मौर्य वंश के पश्चात कुषाणवंशीय गुर्जर शासकों ने भारतीय इतिहास की पवित्र गंगा को प्रदूषण मुक्त रखने और भारतीय धर्म तथा मर्म को समझते हुए इसके अनुसार शासन करने का अप्रतिम और श्लाघनीय कार्य किया । यदि वह उस समय नहीं होते तो चन्द्रगुप्त और चाणक्य के द्वारा जिस प्रकार भारत के सुरक्षा कवच को सुदृढ़ करने का ऐतिहासिक और प्रशंसनीय कार्य किया गया था वह सुरक्षित नहीं रह पाता। विशेष रुप से तब जबकि उन दोनों महापुरुषों के इस महान कार्य को सम्पन्न करने के उपरान्त भी यवनों के कई आक्रमण भारत पर हुए थे । आक्रमणों की उस श्रंखला को तोड़ने का और फिर भारत को उधर से सुरक्षित किये रखने का कार्य यदि किसी ने किया तो निश्चित रूप से उसका श्रेय कुषाणवंशीय शासक कनिष्क को ही जाता है । इतना ही नहीं उसके उत्तराधिकारियों के बारे में भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके काल में भी फिर किसी यवन का महत्वपूर्ण हमला भारत पर नहीं हो सका। चन्द्रगुप्त और चाणक्य की परम्परा का सम्मान करते हुए कुषाण वंश के शासकों द्वारा भारत के इतिहास की इस अप्रतिम सेवा को उपेक्षित करना अपने ही इतिहास की हत्या करने के समान है।
भारत के मौर्य वंश के महान शासकों के पश्चात हमें सीधे गुप्त साम्राज्य पर लाकर खड़ा किया जाता है। हम भी बीच के शासकों पर कोई ध्यान न देकर सीधे गुप्त साम्राज्य पर छलांग लगा देते हैं । हम यह नहीं सोचते कि मौर्य काल से लेकर गुप्त साम्राज्य के बीच के काल में क्या भारत समाप्त हो गया था या सो गया था या इसकी राजनीतिक चेतना शक्ति मर गई थी या फिर इस काल में हम किस प्रकार अपने देश व धर्म की सेवा करते रहे और यदि देश – धर्म की सेवा इस काल में भी की जाती रही तो वे लोग कौन थे जो ऐसे महान कार्य को कर रहे थे ? – इतिहास को इन प्रश्नों का उत्तर भी देना ही चाहिए। जब इतिहास इन उठने वाले प्रश्नों के प्रति गंभीर होगा तो निश्चय ही इस काल में इन प्रश्नों का उत्तर बनकर खड़े हुए गुर्जर शासक कुषाणों का उचित मूल्यांकन हो सकेगा। कुषाणों के साथ ही हूण शासक भी इसी काल में हुए और जब उन शासकों की बुद्धि भंग हो गई तो उससे जनता को मुक्त करने के लिए फिर गुर्जरों के ही सम्राट यशोधर्मा उपनाम यशोधर्मन ने कमर कसी ।
गुप्त वंश के बारे में मान्यता है कि इस राजवंश ने 275 ई0 में अपनी स्थापना के पश्चात 320 ई0 से 495 ई0 तक भारत में एक सशक्त नेतृत्व प्रदान किया । इसके पश्चात भी 550 ई0 तक उत्तर कालीन गुप्त सम्राट शासन करते रहे। तदुपरांत भारत में पुष्यभूति वंश की स्थापना छठी शताब्दी में हुई । जिसमें हर्षवर्धन का शासन काल 606 ई0 से आरंभ होकर 648 ई0 में समाप्त हो गया । छठी शताब्दी में ही भारत में प्रतिहार वंश के शासन की नींव पड़ गई । शीघ्र ही भारत की राजनीतिक बागडोर प्रतिहार वंश के शासकों के सशक्त नेतृत्व के हाथों में आ गई । जिसका वर्णन हम आगे अलग पृष्ठों पर करेंगे ।
हर्ष अपने समय का एक बहुत ही प्रतिभाशाली , पराक्रमी , देशभक्त शासक था । उसके शासनकाल में किसी विदेशी को भारत की सीमाओं के साथ छेड़छाड़ करने का साहस नहीं हुआ । यद्यपि इसके उपरान्त भी यह भी एक सत्य है कि अरब वालों का पहला आक्रमण 638 ईसवी में हर्ष के शासन काल में ही हुआ था । यह अलग बात है कि अरबों द्वारा किया गया यह आक्रमण कोई विशेष महत्व नहीं रखता और ना ही इससे भारत की सीमाओं को कोई क्षति हुई। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस समय भारत पर सम्राट हर्षवर्धन का शासन था , उसी समय अरब में इस्लाम धर्म की स्थापना हो चुकी थी। अरब वालों की ओर से भारत पर महत्वपूर्ण आक्रमण 712 ई0 में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में किया गया। इसके उपरान्त भी में हमें यह तथ्य भी समझ लेना चाहिए कि अरब में इस्लाम की उत्पत्ति के मात्र 28 वर्ष पश्चात ही भारत की सीमाओं पर की गई छेड़छाड़ आने वाले समय की ओर संकेत कर रही थी जो आंधी और तूफानों से भरा होने वाला था । उस आंधी और तूफान का सामना करने के लिए नियति ने भी भारत में गुर्जर प्रतिहार वंश को समय से पहले ही तैयार कर दिया था । दोनों घटनाओं की गहराई को समझने की आवश्यकता है कि उधर से यदि इस्लाम भारत पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था तो इधर भारत में भी उसका सामना करने के लिए नियति ने अपनी लीला प्रतिहार शासकों के रूप में रच दी थी।
गुर्जरों की सत्ता का केंद्र बना भीनमाल
इतिहास का यह एक सर्वमान्य सत्य है कि जब कोई जाति इतिहास में अपने गौरव और समृद्धि के काल को प्राप्त कर लेती है या भोग लेती है तो उसके आगे आने वाले उत्तराधिकारियों में भी अपने उसी स्वर्णिम काल को लौटाने की एक भावना देखी जाती है । उनके भीतर एक ललक होती है कि हम अपने खोए हुए उसी वैभव , गौरव और सम्मान को प्राप्त करें ।यह आवश्यक नहीं कि जिस वंश का पूर्व में पराभव हुआ था , उसी वंश के लोग उठकर सामने आएं । सामान्य रूप से जिस वंश का पराभव हुआ होता है , वह तो मिट्टी में मिल जाता है , परंतु उसके समाज के या जाति के अन्य लोगों में उच्च जातीय गौरव का भाव बना रहता है कि हमने इतने समय तक शासन किया है तो फिर हमको ऐसा ही गौरव पुनः प्राप्त करना चाहिए । तुर्क आज तक अपने आप को इस बात पर गौरवान्वित अनुभव करते हैं कि हमने इतने समय तक भारत पर शासन किया । यहाँ तक कि मुगलों को लेकर उन मुसलमानों में भी गौरवबोध होता है जिनका मुगलों से कोई संबंध नहीं है । इसी बात को हमें गुर्जर समाज के बारे में भी मानना चाहिए । गौरवबोध की इसी भावना के कारण और खोए हुए वैभव , गौरव , समृद्धि व सम्मान को प्राप्त करने के लिए गुर्जर कुषाण वंश के पतन के पश्चात फिर कहीं ना कहीं अपना संगठन बनाने की प्रक्रिया में लग गए थे। इसी संगठन ने गुर्जरों के लिए सत्ता का नया केंद्र भीनमाल में स्थापित किया।
भीनमाल को गुर्जरों की सत्ता का केंद्र बनाने का कार्य इस बार यशोधर्मा नाम के एक उत्साही नवयुवक ने किया । यद्यपि वह किसी राजवंश से उत्पन्न नहीं था , परंतु उसने इसके उपरान्त भी एक असम्भव कार्य को सम्भव बनाने का बीड़ा उठा लिया था । यशोधर्मा की उपाधि जनेंद्र विक्रमादित्य मिलती है। जिसकी जानकारी हमें मंदसौर क्षेत्र मे मिले शिलालेख से होती है। इन प्रयासों के अंतर्गत भीनमाल में चाप वंशी गुर्जर राज सत्ता का उत्कर्ष हुआ । जिसके अधीन आबू के चारों ओर के विस्तृत क्षेत्रों का गुर्जर देश नाम प्रसिद्ध हुआ । गुर्जरों की इस राजसत्ता को स्थापित करने के लिए इन लोगों ने 425 ईसवी से 455 ईसवी तक के काल में हूर्ण लोगों से भी संघर्ष किया और 465 से 475 ईसवी तक भीनमाल नगर को अपनी केंद्रीय राजधानी बनाकर अपना नया संगठन सुदृढ़ कर लिया था । रतनलाल वर्मा जी से हमें पता चलता है कि 480 ईस्वी से 490 ईसवी के बीच उनके तरुण सेनापति भट्टार्क ने काठियावाड़ तक के क्षेत्रों को जीतकर वल्लभीनगर में अपनी सत्ता की केंद्रीय राजधानी भीनमाल में स्थापित कर ली थी ।
मार्कंडेय पुराण से हमें पता चलता है कि आबू क्षेत्र में पहले से ही गुर्जर लोग उपस्थित थे । जो कि मथुरा क्षेत्र से वहां गए थे । इन लोगों ने भीनमाल को गुर्जरों की केंद्रीय राजधानी बनाने में विशेष रुप से सहयोग दिया। जनेंद्र नाम के उपरोक्त युवक ने इन सब गुर्जरों को एक सक्षम प्रगतिशील और देशभक्ति से ओतप्रोत तेजस्वी नेतृत्व प्रदान किया । जिससे उसका नाम विशेष रूप से इस क्षेत्र में यशस्वी नायक के रूप में स्थापित हो गया। इन लोगों ने हूण शासकों का बड़ी प्रबलता से सामना किया और उनकी सत्ता को उखाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उस समय हूण शासक धार्मिक कट्टरता का परिचय दे रहे थे और हूणों के शासक सम्राट मिहिरकुल ने यह घोषणा करा दी थी कि यदि कोई शिव के अतिरिक्त किसी अन्य देवी-देवता की पूजा करेगा तो उसको सम्राट दंडित करेगा । निश्चित रूप से राजा की ऐसी साम्प्रदायिक सोच के कारण उसके विरुद्ध जनाक्रोश भड़का होगा । वैसे भी मिहिरकुल का ऐसा आचरण भारतीय राजनीतिक संस्कारों और मूल्यों के विपरीत था । जिसका विरोध करने का अधिकार जनसामान्य को भी था । भारत के इसी धर्म का निर्वाह करते हुए यशोधर्मा तत्कालीन मिहिर कुल नाम के हूण शासन के विरुद्ध सीना तानकर उठ खड़ा हुआ। 528 ईसवी में यशोधर्मा ने हूणों को एक एक भयंकर युद्ध में परास्त कर भागने के लिए विवश कर दिया था।
यशोधर्मा के विषय में इतिहासकारों का ज्ञान मंदसौर से प्राप्त उसके दो अभिलेखों तक ही सीमित है। एक अभिलेख में कहा गया है कि उसका प्रभुत्व लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) से महेंद्र पर्वत (गंजाम जिला) तक और हिमालय से पश्चिमी सागर तक फैला था। यह विवरण परम्परागत दिग्विजय का है। ऐसा लगता है कि यशोधर्मा के राज्य की सीमाओं के बारे में कहा गया यह तथ्य अतिशयोक्ति पूर्ण है , परंतु इसके उपरांत भी इसे पूर्णत: निराधार भी नहीं कहा जा सकता । अभिलेख में यह भी कहा गया है कि असका अधिकार उन प्रदेशों पर भी था जो गुप्त राजाओं और हूणों के भी अधिकार में नहीं थे। उसके प्रांतपाल अभयदत्त के अधिकार में विंध्य और पारियात्र के बीच का प्रदेश था जो अरब सागर तक फैला था। इस विस्तृत साम्राज्य की विजय के संबंध में उसने किन किन राजवंशों को पराजित किया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। अभिलेख में उसके द्वारा पराजित शत्रुओं में केवल मिहिरकुल का ही नाम दिया गया है।
मंदसौर की प्रशस्ति के बारे में डॉक्टर आरसी मजूमदार कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रशस्तियों में अतिशयोक्ति प्रशंसा और आत्म प्रकाशन की भावनाएं अधिक होती हैं। फिर भी वे पूर्णतया असत्य नहीं होती । यदि मंदसौर अभिलेखों के द्वारा यशोधर्मा की दिग्विजय का वर्णन किया गया है तो उसमें सत्य का कुछ आधार अवश्य होगा । तत्कालीन राजनीतिक अवस्था में कोई भी साहसी एवं प्रतापी राजा बड़ी सरलतापूर्वक भारत के अधिकांश प्रदेशों को पदाक्रांत कर सकता था।
वास्तव में यशोधर्मा एक धूमकेतु की भान्ति भारत के राजनीतिक गगनमंडल पर उठा और उसी प्रकार उसका अंत भी हो गया । परंतु इसके उपरांत भी वह गुर्जर देश ( राज्य ) का निर्माता होने का गौरव तो प्राप्त कर ही गया । यह बहुत बड़ी बात थी कि वह जनता के बीच में से उठा और जनसमर्थन से अपना राज्य स्थापित करने में सफल हुआ। जनसमर्थन के माध्यम से इतनी बड़ी क्रांति कर देने के कारण ही संभवत: सम्राट यशोधर्मा को जनेंद्र की उपाधि प्राप्त हुई थी।
जनेंद्र सम्राट यशोधर्मा के पश्चात कर्ण सम्राट गुर्जर नृपति, वर्मलात और व्याघ्रमुख का भी नाम हमें चाप शासकों के रूप में प्राप्त होता है । इनके शासन की यह परम्परा 680 ई0 तक चलने के प्रमाण मिलते हैं । 712 ई0 में मोहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में जब और अरब आक्रमणकारी आए तो उस समय इस गुर्जर राजवंश का अंत हो गया , परंतु उस समय कौन शासन कर रहा था ? – यह पता नहीं चलता।
वल्लभीनगर का मैत्रिक राजवंश का संस्थापक भट्टार्क अपने आपको गुर्जर सम्राट कनिष्क का वंशज कहता था । जनेंद्र सम्राट यशोधर्मा का सेनापति था। उसने 480 ई0 के लगभग काठियावाड़ विजय करके वहाँ की स्थानीय राजधानी वल्लभीनगर को स्थापित किया था। इस महान सेनापति के द्वारा किए गए इस ऐतिहासिक कार्य को यदि देखा जाए तो उसके कुषाणवंशी होने में कोई संदेह भी नहीं है। क्योंकि अपने पूर्वजों की खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने की ललक उसके भीतर रही होगी । तभी उसने इतना बड़ा क्रांतिकारी कार्य उस समय संभव किया होगा । यद्यपि इसमें जनेंद्र सम्राट का और जनता का विशेष सहयोग भी बहुत अभिनन्दनीय था , परंतु इसके उपरान्त भी उसके भीतर एक राजवंश से सम्बन्धित होने का जो भाव था , वह भी उपेक्षित नहीं किया सकता।
भृगुकच्छ भड़ौंच के बारे में
प्राचीन काल के ऐतिहासिक नगर भृगुकच्छ की पहचान आधुनिक गुजरात के भड़ौच से की जाती है। यह पश्चिमी भारत का प्रसिद्ध नगर एवं समुद्री बन्दरगाह था। साहित्य में इसके नाम भरूकच्छ, भृगुपुर, भृगुतीर्थ आदि मिलते हैं। विदेशी लेखक इसे बेरीगाजा, बैरूगाजा, बैर्गोसा आदि कहते है। पुराणों में इसे महर्षि भृगु का क्षेत्र बताया गया है तथा इसे तीर्थस्थल कहा गया है। नासिक के एक गुहालेख से पता चलता है कि नहपान उषावदात के दामाद ने यहाँ यात्रियों की सुविधा के निर्मित आवासगृह, कुएँ, तालाब आदि बनवाये थे।
व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में यह नगर अत्यधिक प्रसिद्ध था। जातक ग्रंथों से प्राप्त जानकारी के अनुसार पश्चिमी तट का यह सबसे बड़ा बन्दरगाह था। ईसा की प्रथम शती उत्तरी तथा मध्य भारत का समस्त आयात-निर्यात यहीं से होता था। सुप्पारक जातक में भरूकच्छ के समुद्री व्यापारियों की साहसिक यात्राओं के रोचक विवरण मिलता है। सुस्सोदि जातक के अनुसार यहाँ के व्यापारी सुवर्णभूमि को जलमार्गों द्वारा जाते थे।
यूनानी-रोमन लेखकों ने भी भृगुकच्छ के व्यापारिक महत्व को संकेत दिया था। पेरीप्लस से ज्ञात होता है कि यहाँ पहुँचने वाले जहाजों को संकट का सामना करना पड़ता था। पश्चिमी देशों से इस नगर में मदिरा, सीसा, स्वर्ण-रजत मुद्रायें, बर्तन, अनुलेप आदि पहुँचते थे। यहाँ से निर्यातित किये जाते थे जिसके बदले में रोम से एक करोड़ मुद्रायें प्रतिवर्ष पहुँचती थी। हुएनसांग भी इस बन्दरगाह की प्रसिद्धी का उल्लेख करता है। उत्तरी भारत के प्रमुख नगर भृगुकच्छ से जुड़े हुये थे। उज्जयिनी से यहाँ मलमल आति थी। दक्षिण के व्यापारी इसी बन्दरगाह से अपनी सामग्रियाँ पश्चिम देशों में भेजते थे।
हर्ष के समय में भृगुकच्छ में गुर्जर वंश की राजधानी थी। जिसका शासक दक्ष द्वितीय था। यह राज्य संभवतः नर्मदा तथा माही नदियों की बीच की भूमि में स्थित था। अतः स्पष्ट है कि भड़ौंच का भारत के इतिहास में विशेष महत्व है। भड़ौंच में भीनमाल के चाप गुर्जर वंश की एक शाखा ने शासन करना आरम्भ किया । इसे चापोत्कट वंश के रूप में इतिहास में मान्यता दी गई है। इसका संस्थापक दद्दा प्रथम भीनमाल नरेश करण का संबंधी था। कुछ इतिहासकार उसे कर्ण का पुत्र कहते हैं तो कुछ उसका भतीजा बताते हैं । इस शासक ने 550 ई0 में नाग शत्रुओं को उखाड़ फेंककर भड़ौंच को अपनी राजधानी बनाने का गौरव प्रदान किया था । यद्यपि यह राजधानी गुर्जरों की मुख्य राजधानी भीनमाल के अधीन ही काम करती रही और यहां के शासक भीनमाल नरेशों के सामंत बने रहे ।। यहाँ पर कई शासकों ने शासन किया।
यहां के एक शासक दद्दा द्वितीय ने कन्नौज के शासक सम्राट हर्षवर्धन के विरुद्ध अपने सजातीय शासक वल्लभी पति ध्रुसेन द्वितीय की सहायता की थी । ध्रुसैन इस युद्ध में पराजय को प्राप्त करने वाला था। परन्तु उसे सही समय पर दद्दा द्वितीय की सहायता मिल जाने से उसकी पराजय विजय में परिवर्तित हो गई थी । इससे पता चलता है कि दत्ता द्वितीय एक शक्तिशाली सेना का स्वामी था। सम्राट हर्षवर्धन की सेना को पराजित करने के पश्चात भड़ौंच के इस शासक का सिक्का जम गया था और भड़ौंच का भी प्रभाव बढ़ गया था। भड़ौंच के गुर्जर शासकों की सेना की विशालता और शक्तिशाली होने का पता इस बात से भी चलता है कि 636 या 638 ई0 में जब अरब आक्रमणकारियों ने इस राज्य पर आक्रमण किया तो यहाँ की शक्तिशाली सेना ने अरबों को धूल चटा दी थी। जिस आशा को लेकर अरब आक्रान्ता भारत में घुसे थे , उस पर तो पानी फिरा ही साथ ही उनकी पिटाई भी ऐसी हुई कि देर तक वह अपनी कमर को सहलाते रहे । इससे गुर्जर शासकों की देशभक्ति की भावना का पता चलता है। भारत पर अरब आक्रमणकारियों का यह पहला आक्रमण था । जिसका गुर्जर शासकों ने मुंहतोड़ उत्तर दिया था। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इतिहास की इस घटना को इतिहास में उचित सम्मान आज तक नहीं मिला है।
इस वंश के शासकों के शासन का उल्लेख हमें 736 ई0 तक प्राप्त होता है । अरब आक्रमणकारियों के निरंतर आक्रमण इनके शासनकाल में होते रहे जिससे इनकी शक्ति का निरंतर ह्रास होता रहा । इसके अतिरिक्त राष्ट्रकूटों के साथ चल रहे युद्ध के कारण इस वंश का पतन हो गया । यद्यपि इसके पश्चात गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट्ट प्रथम ने अरबों और राष्ट्रकूटों को कूटने का काम अपने हाथों में ले लिया था।
चाहमान वंश के बारे में
राजस्थान के जिन गुर्जर शासकों ने समय-समय पर अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए देश और धर्म की सेवा की उनमें शाकंभरी के चाहमान वंश का नाम भी बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वासुदेव नाम के व्यक्ति ने इस वंश की स्थापना की थी उसको गुर्जर राज व सूर्यपुत्र के नाम से बुखार आ गया है भीनमाल के चाप वंशी गुर्जर नरेश कर्ण का सामंत था । जिसने 551 ईसवी में अपनी राजधानी शाकंभरी में स्थापित की थी। यह वह काल था जब देश में राष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव दिखाई दे रहा था । तब यह क्षेत्रीय शक्तियां उठ – उठकर देश की रक्षा के अपने दायित्व का निर्वाह कर रही थीं । इस शासक का सवा लाख गांवों पर अपना राज्य था । जिससे इस शासक की मजबूती का पता चलता है । साथ ही सवा लाख गांवों की संख्या से यह भी स्पष्ट होता है कि इसका राज्य काफी बड़ा था। इस वंश के शासक चाप वंशी गुर्जर सम्राटों के सामंत के रूप में काम करते रहे। उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र शासक के रूप में स्थापित नहीं किया बल्कि एक केंद्रीय सत्ता भीनमाल को ही अपने लिए आदर्श के रूप में स्वीकृति देकर अपनी राजनीतिक शक्ति का परिचय दिया । उन्ह यह भी स्पष्ट किया कि क्षेत्रीय संकीर्णता के आधार पर अपने आपको राजा घोषित करना उनका उद्देश्य न होकर देश , धर्म की रक्षा करना ही उनका प्रथम कर्तव्य है। अतः एक केंद्रीय सत्ता को मजबूती देना उनके लिए प्राथमिकता है। जब अरब आक्रमणकारियों से संघर्ष करते हुए भीनमाल के गुर्जर वंश का पतन हो गया तो उस समय भी शाकंभरी के शासक गुर्जर प्रतिहार वंश के सम्राटों के स्वामीभक्त और विश्वासपात्र सामन्त के रूप में काम करते रहे।
वास्तव में उस समय देशभक्ति का तकाजा ही यह था कि अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे प्रतिहार शासकों की शक्ति को बढ़ाया जाए । यह एक अच्छी और प्रशंसनीय बात थी कि शाकंभरी के गुर्जर शासक देश धर्म की रक्षा के लिए अपनी मजबूत प्रतिहार गुर्जर शक्ति के साथ काम करने में ही अपनी देशभक्ति का परिचय दे रहे थे। इतिहास में अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध बने इस अघोषित संघ में सम्मिलित राजाओं को गौरवपूर्ण ढंग से याद करने की आवश्यकता है । जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को राष्ट्र की प्रतिष्ठा के साथ समन्वित किया और व्यक्तिगत स्वार्थों को देश के सम्राटों के साथ संलग्न कर दिया। उन्होंने उस समय गुर्जर प्रतिहार शासकों के साथ अपना सर्वस्व समर्पित कर उनसे कह दिया था कि आप जहाँ चाहें हमारा प्रयोग कर लें , परन्तु हर स्थिति में देश और धर्म की रक्षा होनी चाहिए।
इसी चाहमान या चौहान गुर्जर वंश ने अपनी कई शाखाओं में गुर्जर राज्यों की स्थापना की थी । जिनमें अजमेर , धौलपुर , प्रतापगढ़ , नाडूल जैसे कई राज्य सम्मिलित थे। इन चौहान शासकों पर गुर्जर प्रतिहार सम्राटों को भी बहुत अधिक गर्व था। क्योंकि उनकी देशभक्ति असंदिग्ध थी । जिसके कारण गुर्जर प्रतिहार सम्राट अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते थे। गुर्जर प्रतिहार सम्राट महेंद्रपाल द्वीतीय के 946 ई0 के शिलालेख में चौहान वंश के शासकों की प्रशंसा की गई है । जिसमें बताया गया है कि चौहान वंश के शासकों के कारण प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज तथा उसके वंशजों को सुख समृद्धि प्राप्त हुई।
मंडोवर का पड़िहार राजवंश
इस राजवंश का संस्थापक गुर्जर सम्राट वर्मलात का द्वारपाल अर्थात प्रतिहार हरिश्चंद्र बताया जाता है । उसी के अधीन 580 ई0 में इस राज्य की स्थापना हुई थी। 625 ई0 के बसंतगढ़ के शिलालेख से जानकारी मिलती है कि वर्मलात ने अपने शासन के अंतिम वर्षों में हरिश्चंद्र को आबू पर्वत की रक्षा का दायित्व प्रदान किया था। उसके पश्चात हरिश्चंद्र के बेटे रज्जिल को मंडोवर पर गुर्जर सम्राट ने अपना सामंत बना कर भेजा था। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह हरिश्चंद्र एक साधारण ब्राह्मण था । जिसने लक्ष्मण वंशी एक महिला से विवाह किया था । जिसका नाम भद्रा था और यह प्रतिहार वंश में जन्मी थी ।
कुछ विद्वानों का ऐसा मानना है कि भद्रा से पैदा हुई संतान प्रतिहार या पड़िहार के नाम से विख्यात हुई । कुछ भी हो लेकिन इतना तो सर्वमान्य सत्य है कि इस वंश के सभी सामंत भीनमाल के चाप वंशी गुर्जर सम्राटों के स्वामी भक्त सामंत बने रहे । उनकी स्वामी भक्ति असंदिग्ध रही और पूर्ण निष्ठा के साथ वह अपने शासकों के साथ मिलकर देशसेवा के अपने कार्य का या उत्तरदायित्व का निर्वाह करते रहे । यही कारण है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 641 में भीनमाल के गुर्जर राज्य का वर्णन करते समय मंडोवर का उल्लेख नहीं किया है । उसने यही उचित समझा होगा कि मुख्य शासकों का वर्णन करना ही पर्याप्त है , उनके सामंतों के वर्णन की आवश्यकता नहीं है। आठवीं शताब्दी में जब अरब आक्रमणकारियों के द्वारा भीनमाल के साम्राज्य का अंत कर दिया गया तो उसके बाद भी मंडोवर के प्रतिहार शासक गुर्जर प्रतिहार सम्राटों नागभट्ट आदि के आधीन सामंत बने रहे और देश की मुख्यधारा से जुड़े रहकर विदेशी आक्रमणकारियों का विनाश कराने में अपनी सहायता पूर्ण मनोयोग से प्रदान करते रहे। यद्यपि इस वंश के शिल्यूक नाम के एक सामंत ने गुर्जर प्रतिहार सम्राट देवराज (765 से 780 ई0 ) के विरुद्ध विद्रोह कर अपना स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयास किया था, परंतु उसका वह विद्रोह दबा दिया गया था । इसके पश्चात परिहार निरंतर गुर्जर प्रतिहार शासकों के प्रति स्वामी भक्त बने रहे ।
इस वंश के शासकों ने गुर्जर प्रतिहारों के साथ मिलकर अरब आक्रमणकारियों के विरुद्ध अपनी वीरता का कई बार परिचय दिया । इसके अतिरिक्त अन्य अवसरों पर भी अपनी वीरता से गुर्जर प्रतिहार शासकों का मन जीतने का काम किया। जैसे गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट्ट द्वितीय ने जब अपने शासनकाल में बंगाल विजय का अभियान चलाया तो बंगाल के पालों के विरुद्ध इस वंश के कक्कुक नामक शासक ने अपनी वीरता का सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन किया था। हमें ध्यान रखना चाहिए कि वर्तमान परिहार राजपूत मंडोवर के वंश से ही हैं । उनके बारे में यह भ्रांति पालना गलत होगा कि वह कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश से किसी प्रकार का कोई संबंध रखते हैं।
वातापी के चालुक्य शासक
चालुक्य वंश पुलकेशी प्रथम गुर्जर ने 550 ई0 में दक्षिण भारत के विदर्भ , कोंकण , वेंगी प्रदेशों को अपने अधीन किया और दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की । उसने अपने राज्य में अश्वमेध जैसे कई यज्ञों का भी आयोजन किया और अपने विजित प्रदेशों को एक साथ संयुक्त करके महाराष्ट्र राज्य की स्थापना की। इस प्रकार वर्तमान महाराष्ट्र राज्य की स्थापना उस समय इसी गुर्जर शासक द्वारा की गई थी । इसमें दो मत नहीं है कि यह चालुक्य वंश गुर्जर जाति से ही था। परंतु उन्होंने अपने आपको गुर्जर ना कहकर केवल चालुक्य तक ही सीमित रखा है। ‘भारतीय संस्कृति के रक्षक’ नामक पुस्तक में रतनलाल वर्मा इसका कारण बताते हैं कि संभवत इन लोगों ने राजनीतिक कारणों से अपने लिए गुर्जर कहना हानिकारक समझा था । उन्हें यह डर था कि यदि वह अपने आप को गुर्जर लिखेंगे तो कहीं वह दक्षिण भारत की अन्य जातियों में अलग-थलग न पड़ जाएं , इसलिए उनके साथ मिलकर चलने के उद्देश्य से उन्होंने ऐसा किया होगा।
पुलकेशी प्रथम की मृत्यु 566 ई0 में हुई । उसके पश्चात उसका पुत्र कीर्तिवर्मन शासक बना । जिसने अपने साम्राज्य को और भी अधिक सुदृढ़ किया। उसके पश्चात मंगलेश प्रथम के शासनकाल में बुद्धि राज कलचुरी को कई युद्धों में पराजित किया गया । उसका खानदेश भी उससे छीन लिया गया । इसके पश्चात मंगलेश प्रथम का भतीजा पुलकेशिन द्वितीय इस वंश का सबसे प्रतापी सम्राट माना जाता है । जिसने 609 से 642 ई0 तक शासन किया । उसने कन्नौज के सम्राट हर्षवर्धन को परास्त किया था और उसके विरुद्ध अपने सजातीय भड़ौंच के चापोत्कट वंशी दद्दा द्वीतीय गुर्जर को और वल्लभी के मैत्रिक वंशी गुर्जर राजा ध्रुसेन द्वितीय को भी संरक्षण प्रदान किया था। हर्ष के मन में इस गुर्जर शासक के प्रति बहुत भय उत्पन्न हो गया था।
चीनी यात्री ह्वेनसांग भी कुछ दिन सम्राट पुलकेशि द्वितीय की राजधानी वातापी में रुका था । ऐसा भी माना जाता है कि एलोरा अजंता की सुप्रसिद्ध गुफाओं की विश्वविख्यात चित्रकारी सम्राट पुलकेशि द्वितीय के शासनकाल में ही हुई थी। जिनको देखकर इस सम्राट के कला प्रेमी होने की जानकारी हमें मिलती है । पुलकेशि द्वितीय पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन के पुत्र नरसिंह वर्मन द्वारा मार दिया गया था । इसका कारण दोनों राज्यों में हुआ एक युद्ध था । जिसमें पुलकेशि द्वितीय विजयी हुआ था और उसने महेंद्र वर्मन के राज्य के बहुत बड़े क्षेत्र को उससे छीन लिया था । इसके पश्चात पुलकेशि द्वितीय के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने 642 से 681 ई0 तक शासन किया । उसने भी अपने पौरुष और पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए अपने साम्राज्य की सुरक्षा की। विक्रमादित्य प्रथम के पश्चात विनयादित्य , विजयादित्य , विक्रमादित्य द्वितीय , मंगलेश द्वितीय व कीर्तिवर्मन ने शासन किया । यह सभी शासक दुर्बल सिद्ध हुए । अतः कोई विशेष जानकारी उनके बारे में प्राप्त नहीं होती । इनके शासनकाल में साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो चला । मंगलेश द्वीतीय की सेनाएं जब अवनिजनाश्रय पुलकेशि नामक सामंत व सेनापति के नेतृत्व में उत्तर भारत के अपने सजातीय गुर्जर योद्धाओं की सहायता हेतु भी युद्ध क्षेत्र में पहुंची थीं । उत्तर भारत के यह गुर्जर शासक अरब आक्रमणकारियों से उस समय लोहा ले रहे थे और देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर रहे थे । जिनकी रक्षा के लिए मंगलेश द्वितीय की सेना मैदान में पहुंची तो इन योद्धाओं का मनोबल और भी अधिक बढ़ गया । जिससे अरब आक्रमणकारियों ने अब नए षड्यंत्र पर विचार करना आरंभ कर दिया ।
राष्ट्रकूट वंश के सामंत दन्तिदुर्ग पर हाथ रखा और उसे अपने साथ मिलाने में सफलता प्राप्त की । इस नई गुप्त संधि के द्वारा अरब आक्रमणकारियों ने दन्तिदुर्ग को मंगलेश द्वीतीय के विरुद्ध खड़ा करने का काम करना आरंभ किया । फलस्वरूप दन्तिदुर्ग ने अपने स्वामी चालुक्य सम्राट के साम्राज्य पर 746 ई0 में अधिकार कर लिया । इस प्रकार देशद्रोही दन्तिदुर्ग के द्वारा देश – धर्म के लिए समर्पित एक बहुत ही पराक्रमी वंश का अंत विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों के षड्यंत्र के चलते हो गया ।
राष्ट्रकूट शासकों के द्वारा जो कुछ भी उस समय किया गया वह देश धर्म के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता । सत्ता स्वार्थ में राजनीति पथभ्रष्ट और धर्म भ्रष्ट हो गई । सत्ता स्वार्थ राष्ट्रकूट शासकों पर इतना अधिक हावी और प्रभावी हो गया कि उनके लिए देश पीछे रह गया और निजी स्वार्थ प्रथम स्थान पर आ गया । फलस्वरूप विदेशी आक्रमणकारियों के जाल में फंसे इन सत्ता के भूखे राष्ट्रकूट शासकों ने देश धर्म की लौ को बुझाने का अपराध कर डाला। माना कि मित्रता निभाना अच्छे लोगों के लिए आवश्यक होता है , परंतु मित्रता का आधार देखना भी आवश्यक होता है। मित्रता यदि किसी स्वार्थ की सिद्धि के लिए की जा रही है तो वह अवसरवादिता हो सकती है , मित्रता कभी नहीं । इसी प्रकार यदि वह मित्रता अपने ही देश को क्षति पहुंचाने के लिए की जा रही है तो वह मित्रता न होकर देशद्रोह होती है । बस , कुछ ऐसा ही इस समय हो गया था। विदेशी आक्रमणकारियों को अपना मित्र और अपने ही देश के लिए लड़ने वाले गुर्जर योद्धाओं को अपना शत्रु मानने का अपराध राष्ट्रकूट शासकों ने किया , जिसका परिणाम देश को भुगतना पड़ा।
वैंगी का चालुक्य राज्य
वैंगी का चालुक्य राज्य भी गुर्जर योद्धाओं की वीरता की कहानी बताने वाला राज्य है। इसकी स्थापना विष्णुवर्धन वातापी के प्रसिद्ध सम्राट पुलकेशि द्वितीय के भाई द्वारा की गई थी । जिसने 621 से 633 ई0 तक यहां पर शासन किया था । उसके पश्चात जयसिंह , प्रथम विष्णुवर्धन द्वितीय , मांगी युवराज , जयसिंह द्वितीय , कोकिल विक्रमादित्य , विष्णुवर्धन तथा विजयादित्य प्रथम वैंगी के स्वतंत्र नरेश के रूप में जाने जाते हैं । इन सबका शासन काल 764 ई0 तक चलता है। विष्णुवर्धन चौथे ने अपने शासनकाल 764 से 799 ई0 में युद्ध में हारकर राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम की अधीनता स्वीकार कर ली थी। तब विजयादित्य द्वितीय ने राष्ट्रकूट सम्राट गोविंद तृतीय की अधीनता से मुक्त होने के लिए उत्तर भारत के गुर्जर प्रतिहार सम्राट नागभट्ट द्वितीय की शरण में जाकर उसकी सहायता व संरक्षण प्राप्त करके वह स्वतंत्र हो गया और गोविंद तृतीय की मृत्यु 814ई0 के बाद उसने राष्ट्रकूट राज्य पर धावा बोलकर उसको नष्ट भ्रष्ट कर डाला।
इस वंश के शासकों को प्रतिहार वंश के शासकों का आशीर्वाद प्राप्त रहा उनके संरक्षण में ये दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट नरेशों से संघर्ष करते रहे। सम्राट मिहिर भोज और प्रतिहार सम्राट महेंद्र पाल प्रथम सहित अन्य प्रतिहार वंश के शासकों ने भी इस वंश पर अपनी कृपा और आशीर्वाद बनाए रखा। सम्राट मिहिर भोज के आशीर्वाद से विजयादित्य तृतीय ने दक्षिण कौशल के राजा पर चढ़ाई की और उसे परास्त कर उसके बहुत से हाथी छीन लिए थे । इसी प्रकार विजयादित्य तृतीय के भतीजे भीम प्रथम ( 888 – 918 ई0 ) ने एक बार राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय से हारने के पश्चात गुर्जर प्रतिहार सम्राट महेंद्रपाल प्रथम के संरक्षण व सहायता से कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट व उसके सहायकों को की बार युद्ध में पराजित करने में सफल रहा था। इस वंश के शासकों ने अपने संरक्षक गुर्जर प्रतिहार सम्राट महिपाल प्रथम के दक्षिण भारत के विजय अभियान में उसकी सहायता की थी। इसी प्रकार अन्य गुर्जर प्रतिहार शासकों को भी उनके दक्षिण भारत में विस्तार में ये लोग सहायता करते रहे थे। इस वंश के गुर्जर योद्धाओं की सहायता से महिपाल प्रथम की गुर्जर सेना राष्ट्रकूट राज्य को पराजित कर सुदूर दक्षिण में केरल तक के प्रदेशों को विजय करके लौटी थी । वैंगी के शासकों का राज्य 1070 ई0 तक रहा । उसके पश्चात चोल सम्राट कुलोतुंग ने इनके राज्य पर अधिकार कर लिया था।
इस प्रकार के वर्णन और उल्लेख से पता चलता है कि गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास दक्षिण भारत में भी अपनी वीरता , पराक्रम और शौर्य की गाथा गा रहा है । इन लोगों ने राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए हर काल में अपने बलिदान किये हैं और कहीं पर भी कोई ऐसा दाग या धब्बा दिखाई नहीं देता जो इनके चरित्र को दोगला सिद्ध करता जो । इनके इतिहास को खंगालने से पता चलता है कि इन लोगों के विषय में कहीं पर भी एक भी ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं होता जिससे पता चलता हो कि इन्होंने अमुक समय पर देश के साथ विश्वासघात किया था। यद्यपि यह स्वयं विश्वासघात ,षडयन्त्रों , और कुचक्रों के स्वयं शिकार अवश्य हुए हैं। जिस पर इस समय व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता है । जिन लोगों ने देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया और राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए अपने समय में अनेकों संघर्षों का सामना किया उन वीर गुर्जरों का इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान अब सुरक्षित होना ही चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक :उगता भारत
( लेखक भारतीय राष्ट्रीय इतिहास पुनर्लेखन समिति के अध्यक्ष हैं )