संध्योपासन एवं यज्ञ के उपरांत श्रद्धा से परमात्मा के लिए नमस्कार करना अवैदिक या मूर्ति पूजा का जो तक नहीं

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प्रस्तुति : आचार्य ज्ञान प्रकाश वैदिक

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“यज्ञ नमश्च। यज्ञ और नमस्कार” –

यज्ञ में या यज्ञसमाप्ति पर नमस्कार की क्रिया करनी चाहिए। यज्ञ के साथ नमस्कार क्रिया का सम्बन्ध उक्त वेदवाक्य प्रकट कर रहा है। प्रायः ऐसी विचारधारा लोगों में व्याप्त हो गई है कि यदि यज्ञ में हाथ जोड़कर नमस्कार की क्रिया की जाएगी तो वह वेदि के सामने हाथ जोड़ने की क्रिया हो जाएगी और वह भी मूर्तिपूजा की क्रिया के तुल्य हो जाएगी। यदि परमात्मा के लिए या परमात्मा के नाम पर किसी भी स्थान पर किसी भी प्रकार से हाथ जोड़ने की क्रिया की जाएगी तो उससे अन्धश्रद्धा को बल मिलेगा और वह भी मूर्तिपूजा या जड़पूजा हो जाएगी। मूर्तिपूजा या जड़पूजा के आक्षेप के भय के कारण ही ‘हाथ जोड़ झुकाय मस्तक वन्दना हम कर रहे’ – इस पंक्ति को यज्ञ की प्रार्थना में से निकाल फेंका है, परन्तु हमारा इस प्रकार का चिन्तन वास्तविक नहीं है, अपितु प्रतिक्रियात्मक है। प्रतिक्रियात्मक चिन्तन से कभी-कभी हम वास्तविकता से भी विमुख हो जाते हैं।

“परमात्मा के लिए नमस्कार करना मूर्तिपूजा नहीं है” –

एक समय था हम भी ऐसे ही प्रतिक्रियात्मक विचारों से प्रभावित होकर यज्ञवेदि के सम्मुख हाथ जोड़ने आदि शब्दों के उच्चारण का प्रबल विरोध करते थे, परन्तु जब हमें महर्षि दयानन्द का लेख वेदि के सामने हाथ जोड़ने का मिला तो हमें चुप होना पड़ा और मानना पड़ा कि यज्ञवेदि के सामने हाथ जोड़ने का तात्पर्य मूर्तिपूजा से क्यों लें ? हम अपनी उपासना को दूषित या अपूर्ण इसीलिए क्यों करें कि हम हाथ जोड़ेंगे तो दूसरे फिर हमें क्या कहेंगे? हमें अपना सत्य कर्तव्य करना चाहिए।

“महर्षि दयानन्द जी द्वारा सन्ध्या एवं यज्ञ में नमस्कार का आदेश” –

महर्षि दयानन्दजी सरस्वती ने संस्कारविधि के सन्यास प्रकरण में लिखा है “आचमन और प्राणायाम करके हाथ जोड़ वेदि के सामने नेत्रउन्मीलन करके मन से मन्त्रों को जपे।” इन शब्दों को पढ़ने के बाद विचारना चाहिए कि महर्षि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, क्योंकि वह वेद में नहीं है, परन्तु परमात्मा के लिए नमस्कार करने का निषेध कभी नहीं करते थे, क्योंकि वेद में ‘यज्ञ नमश्च’ आता है। अनेक मन्त्रों में नमस्कार है। सन्ध्या के मन्त्रों में भी है और सन्ध्या के अन्त में – नमः शंभवाय च-मन्त्र है ही। इस मन्त्र के ऊपर महर्षि ने लिखा है ‘तत ईश्वरं नमस्कुर्यात’ – यह समर्पणविधि के पश्चात् है। भाषा में भी वे लिखते हैं कि ‘इसके पीछे ईश्वर को नमस्कार करे” और इस मन्त्र के अर्थ के अन्त में वे लिखते हैं –“उसको हमारा बारम्बार नमस्कार है।”

इसी प्रकार सन्ध्या के उपस्थानमन्त्रों के भाष्य के अन्तिम शब्द विशेष मननीय हैं जो कि निम्न हैं –

सर्वे मनुष्याः परमेश्वरमेवोपासीरन्। यस्तस्मादन्यस्योपासनां करोति स इन्द्रियारामो गर्दभवत्सर्वैशि्शष्टैविज्ञेय इति निश्चयः। कृताञ्जलिरत्यन्तश्रद्धालुर्भूत्वैतैमन्त्रैः स्तुवन् सर्वकालसिद्धत्यर्थं परमेश्वरं प्रार्थयेत् ॥

सब मनुष्यों को परमेश्वर की ही उपासना करनी चाहिए। जो कोई उस परमात्मा को छोड़कर अन्य की उपासना करता है वह अपने इन्द्रियसुखों में रत होने से गर्दभपशुवत् सब शिष्टजनों को जानना चाहिए। हाथ की अञ्जलियों को जोड़कर अत्यन्त श्रद्धालु होकर इन (उपस्थान) मन्त्रों से स्तुति करते हुए सर्वकाल में सिद्धि के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करे।

“वेद और महर्षियों के आदेश पर चलें” –

यहाँ कृताञ्जलि शब्द नमस्कार की मुद्रा या हस्ताञ्जलि-मुद्रा का ही वाचक है। यदि महर्षि को हाथ जोड़ने से भय होता और इसे मूर्तिपूजा का ही द्योतक मानते तो वे कभी भी उपर्युक्त स्थलों पर हाथ जोड़ने के लिए नहीं लिखते। संस्कारविधि और पञ्चमहायज्ञविधि दोनों में ही परमात्मा के लिए नमस्कार- मुद्रा का विधान है, अतः हमें अपने प्रतिक्रियावादी चिन्तन- प्रकार में परिवर्तन करना होगा और सोचना होगा कि कहीं हम कुछ विपरीत मार्ग से चिन्तन करके अपनी उपासना को ही तो विकृत एवं नष्ट नहीं कर रहे हैं ? महर्षि के उपर्युक्त वाक्यों के सम्मुख तर्क-वितर्क की आवश्यकता नहीं रहती। इन वाक्यों के देख लेने पर और कई वर्षों तक मन में आन्दोलन होते रहने पर यही निश्चय हुआ कि हमें अपने विचारों के पीछे नहीं चलना चाहिए, अपितु वेद और महर्षियों के पीछे चलना चाहिए।

“महर्षि कात्यायन का यज्ञाग्नि के सम्मुख हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान” –

स्वयं महर्षि दयानन्दजी वेद और महर्षियों के पीछे चलते हैं। महर्षि कात्यायन ने वामदेव्य गान के पश्चात् किस रीति से यज्ञवेदि के सामने प्रार्थना करें, इसके लिए निम्न प्रकार लिखा है –
‘स्पृष्ट्वापो वीक्ष्यमाणोऽग्निं कृताञ्जलिपुटस्ततः।
आयुरारोग्यमैश्वर्य प्रार्थयेद् द्रविणोदसम्॥

यहाँ पर भी उसी यज्ञाग्नि के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने का विधान है और उसका फल – ‘दीर्घायुर्ह वै भवति’ – निश्चय से दीर्घायु प्राप्त होती है, यह बताया है तथा आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य की प्रार्थना करने को कहा है। यज्ञ के श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान से और उसकी किसी क्रिया का अनादर न करने से अवश्य दीर्घायु होती है।

“महर्षि दयानन्दजी द्वारा वेदभाष्य में यज्ञ को नमस्कार का विधान” –

यजुर्वेद के [२।२०] के भाष्य में पूर्वमन्त्र की अनुवृत्ति लेकर महर्षि लिखते हैं – ‘संवेशपतयेऽग्नये तुभ्यं स्वाहा नमश्च नित्यं कुर्मः’ – यह संस्कृत में लिखा है और आर्यभाषा में – “जो आप हैं उसके लिए धन्यवाद और नमस्कार करते हैं” – यह लिखा है, अतः यज्ञ में नमस्कार या यज्ञरूप प्रभु को नमस्कार करना वेदानुकूल है। यज्ञ प्रतिमा-पूजा नहीं है।

“नमस्कारक्रिया श्रद्धापूर्वक करें” –

क्या यह सब नमस्कारक्रिया केवल वचन से ही होगी और कर्मरहित ही रहेगी? मन, वचन, कर्म जबतक एक नहीं होंगे तबतक असत्य आचरण होगा। यज्ञ में – इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि – ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद भी यदि असत्य आचरण करें तो प्रतिज्ञा की हानि होगी। अत: मन, वचन, कर्म में एकरूपता लाने के लिए जहाँ सन्ध्या, यज्ञ या अन्य कर्मकाण्ड में नमस्कारक्रिया किसी भी दिशा में या यज्ञवेदि के सामने या अग्नि के सम्मुख करने का विधान हो वहाँ उस विधि को पूर्णरूप से श्रद्धापूर्वक करना चाहिए। ईश्वर को छोड़कर अन्य को ईश्वर या ईश्वरतुल्य मानकर, व्यक्ति या प्रतिमा आदि के पूजन का निषेध महर्षियों ने किया है, वह नहीं करना चाहिए।

“शतपथ में यज्ञ द्वारा नमस्कार” –

शतपथ [६।१।१।१६] में यज्ञ को ही नमस्कार का रूप बताया है और यज्ञ के द्वारा ही परमात्मा को नमस्कार करना बताया है। जैसा कि – ‘यज्ञो वै नमो यज्ञेनैवैनमेतन्नमस्कारेण नमस्यति’ – यह लिखा है। पुनः — ‘नमोऽस्तु रुद्रेभ्यो०’– यजुर्वेद के १६वें अध्याय के ६४, ६५. ६६वें मन्त्र के बारे में शतपथ [९।१।१।३९] में लिखा है- ‘यद्वेवाह दश दशेति दश वा अंजलेरंगुलयो दिशि दिश्येवैभ्य एतदञ्जलि करोति तस्मादु हेतद्भीतोऽञ्जलिं करोति तेभ्यो नमो अस्त्विति तेभ्य एव नमस्करोति’ – यहाँ पर हाथ जोड़कर ही यज्ञ में दसों दिशाओं में स्थित रुद्रों को नमस्कार करना बताया है, अतः यज्ञ में नमस्कार की क्रिया असंगत कर्म नहीं है। यदि हमारा मन इसके लिए उद्यत नहीं होता है तो जो व्यक्ति सन्ध्योपासना में एवं यज्ञ के उपरान्त श्रद्धा से प्रभु को नमस्कार करना चाहे उसको अवैदिक मूर्तिपूजा या जड़पूजा में ग्रहण न करे।

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स्रोत – याज्ञिक-आचार-संहिता।
लेखक – पं० श्री वीरसेन वेदश्रमी वेदविज्ञानाचार्य।

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