अधिकार से पहले कर्तव्य , अध्याय — 5, ईश्वर के प्रति हमारे कर्तव्य
ईश्वर के प्रति हमारे कर्तव्य
हमारा इस संसार में आना कोई आकस्मिक घटना नहीं है । इसके पीछे हमारे जन्म जन्मांतरों के संस्कार और प्रारब्ध का पूरा एक खेल है। जिसके परिणाम स्वरूप ईश्वर ने हमें यह मानव जन्म दिया है । ईश्वर ने संसार के समग्र ऐश्वर्यों को केवल हम मनुष्यों को ही भोगने के लिए भेजा है । सचमुच उसका कितना बड़ा उपकार है कि उसने हमारे लिए प्रकाश करने हेतु इतना बड़ा सूर्य बनाया । रात्रि के लिए उसने चंद्रमा बनाया । आकाश में अनेकों सितारे बनाए । जिन्हें रात्रि में देखकर लगता है कि इनके बनाने वाले ने आकाश की क्यारियों में भांति – भांति के पुष्प खिला दिए हैं। उसने शीतल जल देने वाली नदियां बनाईं , तीन ऋतुएं बनाईं , उनमें अनेकों प्रकार की अलग-अलग वनस्पतियां जंगलों में हमारे लिए पैदा कीं । ये वनस्पतियां हमारे स्वास्थ्य की रक्षा के लिए होती हैं , इनसे हमें औषधियां प्राप्त होती हैं । हमें स्वस्थ रखने के लिए वायु का असीम भण्डार हमारे लिए तैयार किया । नदी , नाले , पहाड़ आदि हमारी विशेष सुरक्षा सुविधा के लिए बनाए ।
स्पष्ट है कि जिस परम पिता परमेश्वर ने हमारे लिए यह सब कुछ बनाया है , उसे स्मरण रखना और उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना हमारा सर्वोपरि और सर्व प्रथम कर्तव्य है ।
कौन दिन होगा प्रभु जब तेरा सच्चा ज्ञान हो ?
भ्रांति कब दूर होकर सत्य ही का भान हो ।।
कब घृणा होगी मुझे दुष्टों के खोटे संग से ?
और कब सत्संग करके नष्ट सब अज्ञान हो।।
ईश्वर द्वारा बनाई गई इस सृष्टि को जब हम बारीकी से देखते हैं तो पता चलता है कि उसने जिस कारीगरी से और व्यवस्थित ढंग से इसे बनाया है , उसे केवल वही बना सकता था । उसके अतिरिक्त किसी और कारीगर या सृष्टा में इतना साहस नहीं था कि वह ऐसी सुव्यवस्थित और सुंदर सृष्टि की रचना कर सकता । उसके किसी भी काम में अवैज्ञानिकता नहीं है , बुद्धि हीनता नहीं है , अतार्किकता नहीं है । इस सृष्टि को देखने से ही पता चलता है कि इसके बनाने वाले का कोई विशेष प्रयोजन रहा होगा और इसका बनाने वाला कोई परम चेतन है । कोई ऐसी परम चेतन सत्ता है जो अनुपम और अद्वितीय है और जिसके अतिरिक्त ऐसी सुंदर रचना कोई और नहीं कर सकता । कुछ लोगों ने संसार के निर्माण के बारे में यह भ्रांति फैलाने का काम किया है कि यह अचानक अपने आप बन गया । यदि सृष्टि अचानक अपने आप बन सकती थी या बन गई थी और उसका कोई प्रयोजन नहीं था तो समझ लेना चाहिए कि फिर संसार में कोई व्यवस्था नाम की चीज ना तो कभी थी और ना कभी होनी चाहिए । परंतु हम देखते हैं कि संसार पूर्णतया एक व्यवस्था के अंतर्गत चल रहा है । यदि व्यवस्था के अंतर्गत चलता हुआ संसार हमें दिखाई दे रहा है तो मानना पड़ेगा कि कोई व्यवस्थापक भी इस व्यवस्था के पीछे कहीं बैठा है । कितना सुंदर कहा है :–
ढूंढता फिरता कहां है मन के मंदिर में तू देख ।
वह सखा मन में रमा है मन के मंदिर में तू देख ।।
क्यों भटकता फिर रहा काशी और काबा में तू ।
यह तेरा बहमों गुमाँ है मन के मंदिर में तू देख ।।
ईश्वर की यह भी कितनी सुंदर व्यवस्था है कि वह जब हमें जन्म देता है तो हमें संभालने के लिए माता और पिता दोनों को अपने रूप में आगे भेज देता है। माता-पिता दोनों हम को संभालते हैं तो ज्ञान मार्ग पर आगे बढ़ाने के लिए सही समय पर हमें गुरु भी तैयार मिलता है । जिनके सामीप्य और सान्निध्य में रहकर हम जीवन को पूर्ण सौंदर्य के साथ जीने की कला सीखते हैं । गुरु के आश्रम से जब समावर्तन संस्कार के माध्यम से घर गृहस्थी संभालने के लिए संसार में आते हैं तो उस समय हमें अनेकों मित्र – संबंधी अपने आप खड़े तैयार मिलते हैं । इस प्रकार हमारा जीवन कहीं पर भी अकेलापन अनुभव नहीं करता । सर्वत्र हमारे लिए उस परमपिता परमेश्वर की व्यवस्था के अंतर्गत हमारे साथी व सहयोगी सब पहले ही खड़े तैयार मिलते हैं । जो लोग इस व्यवस्था को सही ढंग से समझ नहीं पाते हैं उन मूर्ख लोगों ने संसार को स्वार्थ का बसेरा समझ लिया है । ऐसे लोगों की मान्यता होती है कि संसार में जो कोई भी हमें मिल रहा है वह किसी न किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर मिल रहा है । संसार में अपना कोई नहीं है , सब यहाँ पर स्वार्थ के या मतलब के साथी हैं।
यह दृष्टिकोण का अंतर है । जो व्यक्ति संसार को भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार देखता है वह इसके बारे में कुछ ऐसा अनुभव करता है कि यहाँ पर सब कुछ हमारे लिए पहले से ही तैयार है और सब लोग भी हमारे स्वागत सत्कार के लिए तैयार बैठे हैं और जो इसे स्वार्थों के टकराव का स्थल मानता है , वह यहाँ पग – पग पर सर्वत्र स्वार्थों का संघर्ष होता हुआ देखता है ।
कुल मिलाकर केवल एक ही बात है कि ईश्वर ने सृष्टि का सारा सौंदर्य और सारा ऐश्वर्य हम मनुष्यों के उपभोग के लिए बनाया है। हम इसे स्वार्थों का बसेरा बना लें या प्रेम और त्याग का स्वर्ग बना लें यह सब हमारे अपने विवेक पर निर्भर करता है। अच्छी बात इसी में है कि हम ईश्वर के प्रयोजन को समझते हुए इस संसार को स्वर्ग का बसेरा बना लें । इसके लिए आवश्यक है कि परमपिता परमेश्वर की व्यवस्था और उसके प्रयोजन को समझने का प्रयास हम करें । इसके साथ ही साथ हम उसके प्रयोजन को किस प्रकार सार्थक व सफल बना सकते हैं ? – इसे समझने के लिए भी हम अपनी ओर से सकारात्मक प्रयास करते रहें । हमारे ऋषि पूर्वजों ने इसको समझने और समझाने के लिए हमारे लिए यह कर्तव्य सुनिश्चित किया कि उस परमपिता परमेश्वर को प्रातः सायं दोनों समय की सन्ध्या में अवश्य याद करें ।
अध्यात्म की गंगा बहती है
सब साधक इसमें स्नान करो ।
तन मन की मैल मिटाकर के
जीवन का नव निर्माण करो ।।
निर्मल शीतल जल बहता है
जो अंतःकरण मल हरता है,
सब पाप तथा संताप मिटें
यारों अपना उत्थान करो।।
संध्या काल में उसको याद करने से हम अपने जीवन के उद्देश्य और उसके द्वारा बनाई गई सृष्टि के प्रयोजन को समझने में सफल हो सकते हैं।
यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने उस परमपिता परमेश्वर को याद करने के लिए हमारे लिए यह भी व्यवस्था की है कि जब हम प्रातः काल बिस्तर छोड़ें तो उस समय भी उसे सर्वनियंता परमेश्वर का ध्यान निम्नलिखित मंत्रों के माध्यम से इस प्रकार करें :–
प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना । प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम ॥ 1 ॥[ऋग्वेद : मण्डल 7, सूक्त 41 , मंत्र 1- 5 ]
भावना – हे ईश्वर ! आप स्वप्रकाशस्वरूप – सर्वज्ञ हैं । परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य युक्त हैं । आप प्राण और उदान के समान हमें प्रिय हैं । आप सर्वशक्तिमान् हैं । आपने सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न किया है । हम आपकी स्तुति करते हैं । आप भजनीय हैं, सेवनीय हैं, पुष्टिकर्त्ता हैं । आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता हैं । आप हमारे अन्तर्यामी और प्रेरक हैं । हे जगदीश्वर ! आप पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोगनाशक हैं । हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं ।
प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता ।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥ 2 ॥
भावना – हे ईश्वर ! आप जयशील हैं । आप ऐश्वर्य के दाता हैं । आप तेजस्वी – ज्ञानस्वरूप हैं । आपने अन्तरिक्ष के पुत्र-रूप सूर्य को उत्पन्न किया है । आप ही ने सूर्यादि लोकों को विशेष रूप से – सब ओर से धारण किया है । आप सभी को जानते हो । आप दुष्टों को दण्ड देते हो । आप सब के प्रकाशक हो । मैं आपके भजनीय स्वरूप का सेवन करता हूं – उपासना करता हूं । आप सबको उपदेश करते हैं कि – ‘मैं सूर्यादि जगत् को बनाने और धारण करते वाला हूं, आप लोग मेरी उपासना किया करो, मेरी आज्ञा में चला करो ।’ हे भगवान् ! इसलिए हम आपकी स्तुति करते हैं ।
भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः ।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम ॥ 3 ॥
भावना – हे ईश्वर ! आप भजनीय स्वरूप, सबके उत्पादक और सत्याचार में प्रेरक हैं । आप ऐश्वर्यप्रद हैं । आप सत्य धन को देनेवाले हैं । आप सत्याचरण करनेवालों को ऐश्वर्य देनेवाले हैं । हे परमेश्वर ! आप हमें प्रज्ञा का दीजिए । प्रज्ञा के दान से आप हमारी रक्षा कीजिए । आप हमारे लिए गाय, अश्व आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्य-श्री को उत्पन्न कीजिए । आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्य बनें, वीर बनें ।
उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम् ।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ॥ 4 ॥
भावना – हे ईश्वर ! आपकी कृपा से और अपने पुरुषार्थ से हम लोग इसी समय – प्रातःकाल में तथा दिनों के मध्य में प्रकर्षता अर्थात् उत्तमता प्राप्त करें, ऐश्वर्ययुक्त और शक्तिमान् होवें । हे परम पूजित ! आप असंख्य धन देनेवाले हो । आप हम पर कृपा कीजिए कि हम सूर्यलोक के उदय काल में पूर्ण विद्वान् धार्मिक आप्त लोगों की अच्छी उत्तम प्रज्ञा और सुमति में सदा प्रवृत्त रहें ।
भग एव भगवां अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम ।
त्वं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह ॥ 5 ॥
भावना – हे जगदीश्वर ! आप सकल ऐश्वर्य सम्पन्न हैं । इसलिए सब सज्जन आपकी निश्चय करके प्रशंसा – स्तुति करते हैं । आप ऐश्वर्यप्रद हैं । इस संसार में तथा हम जिस किसी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रम में स्थित हैं, उसमें आप अग्रगामी और आगे-आगे सत्य कर्मों में बढ़ानेवाले हूजिए । आप सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त और समस्त ऐश्वर्य के दाता हैं । अतः आप ही हमारे ‘भगवान्’ – पूजनीय देव हूजिए । उसी हेतु से हम विद्वान् लोग सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होके सब संसार के उपकार में तन-मन-धन से प्रवृत्त होवें । यही आपसे प्रार्थना है !
इन मंत्रों के माध्यम से मनुष्य को ईश्वर के विभिन्न नामों का बोध होता है । उसे पता चलता है कि ईश्वर किन-किन शक्तियों के माध्यम से हमारे जीवन में प्रेरणा उत्साह और ऊर्जा भरने का कार्य करता रहता है ? परमपिता परमेश्वर ही वह शक्ति है जिसकी अनुकंपा से हमें यह जीवन मिला है । जिसके बिना सृष्टि में पत्ता तक नहीं हिल सकता । अतः उस प्यारे प्रभु का ध्यान करना और उसे सदैव अपने साथ अनुभव करते रहने से हम चौबीसों घंटे ऊर्जान्वित रहते हैं। किसी कवि ने कितना अच्छा कहा है :–
दिल के परदे में छिपा है दिल पता पाता नहीं ।
आंख की पुतली में रहता है नजर आता नहीं।।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि परमात्मा जीवात्मा को यदि मनुष्य आदि योनियों में से किसी भी योनि में जन्म नहीं देता है तो वह स्वयं अपने आप जन्म लेने की सामर्थ नहीं रखती । इस वैदिक सिद्धांत से एक गहरी समस्या का समाधान होता है , और वह गहरी समस्या यह है कि संसार में कुछ लोग प्रकृति को और उसके पांच तत्वों को ही सब कुछ मानते हैं । प्रकृति के संघात से ही वह शरीर की उत्पत्ति मानते हैं । उनका मानना होता है कि प्रकृति के इन पांच तत्वों के संघात से शरीर के बनने पर जीवात्मा उसमें स्वयं ही प्रवेश कर जाती है । उनका यह भी कहना होता है कि जैसे शरीर की उत्पत्ति होती है वैसे ही जीवात्मा की भी उत्पत्ति होती है , परन्तु वास्तव में यह मत मिथ्या और भ्रामक है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मनुष्य ईश्वर के समक्ष बहुत ही अल्पज्ञ है । यही स्थिति जीवात्मा की है । जीवात्मा भी सृष्टि आदि का निर्माण नहीं कर सकता।
दुनिया को देख दुनिया हैरत में आ रही है ।
शक्ति है कौन जो यह चक्कर चला रही है ।।
भानु शशि सितारे दिन-रात घूमते हैं ।
किसकी महान माया ये इसको घुमा रही है ।।
हमारे वैज्ञानिक पूर्वजों की दृष्टि में कार्य कारण के सिद्धांत के आधार पर इस सृष्टि का निमित्त कारण एकमात्र परमात्मा ही है ।
हमारे वैदिक विद्वानों की स्पष्ट मान्यता है कि प्रकृति सृष्टि का उपादान कारण है। ईश्वर के अस्तित्व का एक प्रमाण सभी प्राणी प्रतिदिन अनुभव करते हैं। वह यह है कि हमारी आत्मा के भीतर सत्कर्मों परोपकार व पुण्य कर्मों को करने में जो प्रेरणा, उत्साह, निःशंकता होती है और अशुभ व पाप कर्मों को करने में जो भय, शंका व लज्जा आत्मा में उत्पन्न होती है उसका कारण परमात्मा की आत्मा में प्रेरणा ही होती है। इनका अन्य कोई कारण नहीं होता। यह ईश्वर का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कार्य को देखकर कर कर्ता का ज्ञान होता है। इस सृष्टि और इसमें रचना विशेष पदार्थों को देखकर इनके रचयिता परमात्मा का ही ज्ञान होता है। यह भी ईश्वर का प्रत्यक्ष ही है।
ऐसे परमपिता परमेश्वर को प्रातः काल में स्मरण कर जब मनुष्य अपने नित्य कार्यों के लिए घर से निकलता है तो उसके भीतर कभी अकेलेपन का भाव पैदा नहीं होता । वह सदा इस भाव से प्रेरित रहता है कि परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा और उसकी असीम शक्तियां उसके साथ हैं , इसलिए वह अपने कार्यों में एक योद्धा की भांति लगा रहता है । पराजित होने का भाव कभी उसके भीतर प्रवेश ही नहीं कर पाता ।
अकेलेपन का भाव उसी व्यक्ति के भीतर उत्पन्न होता है जो परमपिता परमेश्वर का ध्यान नहीं करता और उसे अपने से दूर समझता है । ऐसे व्यक्ति हताशा व निराशा के शिकार रहते हैं ।जीवन में किसी भी प्रकार की हताशा व निराशा हमें कभी घेरने में सफल न हो , इसलिए उस परमपिता परमेश्वर का ध्यान करना , उसका जप करना और उसे सदैव अपने साथ अनुभव करना संसार में आने के पश्चात हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है। अतः हमें सदैव या ध्यान रखना चाहिए कि हमें जो कुछ भी है चराचर जगत दिखाई दे रहा है यह सारा का सारा और इसकी सारी व्यवस्था सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, अनुपम, सर्वाधार, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, नित्य सत्तावान परमेश्वर से ही अस्तित्व में आयी है।
उस परमपिता परमेश्वर को याद करके हम उस पर कोई उपकार नहीं करते , अपितु हम स्वयं अपने ऊपर ही उपकार करते हैं । क्योंकि उसके ध्यान करने से हमारे भीतर आत्मबल में वृद्धि होती है। जिससे हमारे जीवन में आनंद और उत्साह चौबीसों घंटे बना रहता है। कवि की बात भी सही है :-
सार्थक उसी का जन्म है भक्ति प्रभु की जो करे ।
सच्चा है भाग्यवान वह – पापों से जो सदा डरे।।
ईश्वर की प्रत्येक रचना इतनी सुंदर ,सुव्यवस्थित और सुगठित है कि आज का सारा भौतिक विज्ञान , सारे वैज्ञानिक और सारे इंजीनियर मिलकर भी मनुष्य शरीर के किसी अंग विशेष की तो बात छोड़िए अंगुली के छोटे से नाखून तक को भी वैसे उसी रूप में नहीं बना सकते जैसे रूप में ईश्वर ने उसे बनाया है। हम भारतीय लोग प्राचीन काल से ही इस विज्ञान को जानते समझते आए हैं कि हमारे अंग प्रत्यंग और रोम रोम तक को ईश्वर ने बनाया है । यही कारण है कि जब हम संध्या में बैठते हैं तो उस परमपिता परमेश्वर से अपने शरीर के अंग प्रत्यंग के विषय में प्रार्थना करते हैं कि वे सदैव शक्ति संपन्न और सकारात्मक ऊर्जा से भरे हुए होने चाहिए :–
ओं वाक् वाक् । इस मन्त्र से मुख का दक्षिण और वाम पार्श्व स्पर्श करते हुए साधक परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि हमारी वाणी सत्य और वीरता की धनी हो । जब वाणी ऐसी हो जाती है तो उससे किसी भी प्रकार का अनर्गल प्रलाप होने या किसी का अपमान करने या किसी को चुभने वाली बात कहने की संभावना नहीं होती । वाणी की साधना से व्यक्ति के भीतर एक बेहतरीन संतुलन बनने लगता है । जिससे वह प्रत्येक प्रकार की विषम परिस्थितियों से अपने आप को बचाने में सफल हो जाता है । दूसरे वाणी की साधना से हम दूसरों को सदैव सही दिशा में प्रोत्साहित करने और आगे बढ़ने की प्रेरणा दे सकते हैं । वाणी की वीरता इसी में है कि हम किसी को निराश ना करें , किसी को हताश ना करें और किसी को उदास ना करें । दूसरों के भीतर भी तेज का और वीरता का संचार करने वाली हमारी वाणी होनी चाहिए । उन्हें सकारात्मक संदेश , उपदेश और निर्देश देने वाली हो । किसी के साथ ऐसा व्यवहार करने वाली ना हो जिससे उसे किसी प्रकार की हानि पहुंचने की संभावना हो । जो यथार्थ है , सत्य है उसी को बोलने वाली हो।
ओं प्राण: प्राण:। इससे दक्षिण और वाम नासिका छिद्र स्पर्श करते हुए हम परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमारे प्राण बल संचारकारी और ध्यान साधना करने में सदैव अग्रणी हों । प्राणशक्ति जिसकी सही बनी रहती है वही अपने शरीर को साधकर चलने में समर्थ होता है । हम प्राण ऊर्जा इस नासिका से ही ग्रहण करते हैं। अतः नासिका प्राणशक्ति का मूल स्रोत है । यही कारण है कि नासिका के दोनों छिद्रों को स्पर्श करते हुए हम ईश्वर से प्राणों के बल संचारकारी होने की प्रार्थना करते हैं।
ओं चक्षु: चक्षु: । इससे दक्षिण और वाम नेत्र स्पर्श करते हुए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमारे नेत्र दिव्य दर्शन करने वाले हों । यह कभी भी किसी रूप पर या किसी सौंदर्य पर आसक्त होकर हमें पथभ्रष्ट करने वाले न हों । इनकी तपस्विता से हम अपने आपको नीची नजर करके चलने वाले बन जाएं और अपने जीवन पथ पर बढ़ते हुए हम भी तपस्वी हो जाएं। इनको सौंदर्य बोध तो हो परंतु वह ईश्वरकृत पदार्थों , वस्तुओं में हो और उनके यह ऐसे दीवाने हो जाएं कि उसी सौंदर्य में खो जाएं । उसी सौंदर्य को यह हमारे हृदय में उतार दें और हम अपने ह्रदय मंदिर में उस सौंदर्य पर कविता पाठ करने लगें , गीत बनाने लगें । वह गीत हमारे भीतर गूंजने लगे , उस गीत का संगीत हमें नृत्य करने के लिए विवश कर दे। ऐसी ऊंची साधना के साधक हमारे नेत्र हो जाएं तो जीवन में भारी परिवर्तन आ जाता है।
ओं श्रोत्रं श्रोत्रम् । इससे दक्षिण और वाम श्रोत को स्पर्श करते हुए हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमारी श्रवणेन्द्रिय वेदगीत का संगीत सुनने वाले हों और अध्यात्म नीति में प्रवीण हों। कहने का अभिप्राय है कि हमारी श्रवणेन्द्रिय सदैव उन बातों को और उस संगीत को सुनने की अभ्यासी बन जाएं जिससे न केवल हमारा अपना कल्याण हो बल्कि संसार का कल्याण करने में भी हम सहायक बनें । निश्चय वेद की ऋचाएं और वेद की कथाएं हमारे लिए ईश्वर ने इसीलिए बनाकर भेजे कि इनको सुनते रहना और सुनकर अपनी जीवन साधना को बलवती और फलवती करते रहना । संसार के ऐश्वर्यों में फंसकर हमने ही प्रभु के इस आदेश का उल्लंघन करना आरंभ कर दिया । जिससे हमारी श्रवणेन्द्रिय पथभ्रष्ट होकर अश्लील गीत संगीत में जाकर फँस गई । जिसने हमारे जीवन में विध्वंस मचा कर रख दिया है।
ओं नाभि:। इससे नाभि को स्पर्श करते हुए भी हम बहुत सुंदर प्रार्थना अपने इष्ट देव परमपिता परमेश्वर से करते हैं । नाभि हमारे जननेन्द्रिय के निकट होती है। माता के गर्भ में नाभि से ही हम सारे रस ग्रहण करते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि नाभि हमारे जीवन का केंद्र है । शरीर को सारी ऊर्जा यहीं से प्राप्त होती है । सृजन अर्थात जननेन्द्रिय के माध्यम से संतानोत्पत्ति भी नाभि केंद्र से ही संभव होती है । यही कारण है कि इसको स्पर्श करते हुए साधक परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे ऐसी पवित्र नाभि प्रदान कीजिए जिससे यश ,मान और कल्याण प्राप्त होता रहे । जिससे जननेन्द्रिय के माध्यम से दिव्य संतति हमें प्राप्त हो और हम संसार में प्रत्येक प्रकार के कल्याण को प्राप्त होते रहें।
ओं हृदयम्। इससे ह्रदय को स्पर्श किया जाता है। हमारे ह्रदय में दिव्य भावों की उत्पत्ति होती है । हृदय के भीतर उठने वाले हमारे भाव ऐसे हों जिनसे दीन हीन लोगों का कल्याण हो सके और जो दुर्जन हैं उनका दमन हो सके । हृदय की ऐसी पवित्र भावना ही हमारे भीतर वीरता का और मानवतावाद का संचार करती हैं । संसार में जितने भी इतिहास पुरुष हुए हैं उन्होंने अपने हृदय के ऐसे ही पवित्र भावों से इतिहास में यश प्राप्त किया है । जबकि इसी हृदय में उठने वाले नकारात्मक और विध्वंसात्मक विचारों से प्रेरित होकर कुछ लोगों ने इतिहास में क्रूरता और बर्बरता के भी कीर्तिमान स्थापित किए हैं । हमारी प्रार्थना रहती है कि हम क्रूरता और बर्बरता करने वाले लोगों का अनुगमन करने वाले ना हों , बल्कि जिन लोगों ने यश प्राप्त कर मानवता को मुखरित किया है हम उनके अनुगामी हों।
ओं कण्ठ: । इससे कंठ को स्पर्श किया जाता है। जिसमें साधक अपने परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करता है कि मेरे कंठ में सदैव तेरा गुणगान होता रहे। इस कंठ के माध्यम से किसी प्रकार की अश्लीलता फूहड़पन ना झलके । सदैव तेरा मनोहारी संगीत और जीवन को आनंद से भरने वाले गीतों को ही मैं गुनगुनाता रागता रहूँ । संसार का इतिहास इस बात की साक्षी देता है कि जिन लोगों ने संसार में आकर कंठ के माध्यम से ईश्वर के ज्ञान की चर्चा की , लोगों को उसी का संगीत सुनाया । वे इतिहास में अमर हो गए और जिन्होंने कंठ की शक्ति का दुरुपयोग करते हुए उसे अश्लीलता में बहा दिया , वे संसार में मृत्यु को प्राप्त होकर ऐसे हो गए कि जैसे आकर भी नहीं आए थे।
ओं शिर: । इससे मस्तक को स्पर्श किया जाता है। साधक अपने ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मेरा मस्तिष्क ऐसा जीवन पथ निर्धारित करने वाला हो जिस पर नेक कर्मों के पुष्प खिले हों । उन्हीं की सुगंध फैली हो । मेरे लिए ऐसा राजपथ बनाने वाला मेरा मस्तिष्क हो जिस पर किसी भी प्रकार की कोई बाधा ना आ सके । मस्तिष्क ज्ञान का केंद्र है । इसी से हमें प्रत्येक प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है । अतः इस इन्द्रिय को स्पर्श करते हुए हम यही भाव अपने भीतर रखें कि हमारा मस्तिष्क प्रत्येक प्रकार की ज्ञान संपदा से भरपूर हो , जिससे हम जीवन पथ पर चलते हुए कहीं भी लड़खड़ाएं नहीं ,भटकें नहीं।
ओं बाहुभ्यां यशोबलम् । इससे दोनों भुजाओं के मूल स्कन्ध को स्पर्श किया जाता है । साधक की प्रार्थना होती है कि मेरी भुजाएं मान और कल्याण की अभिलाषिनी हों , यस की लुटेरी हों और सदैव ऐसे लोगों की रक्षक हों जो संसार में असहाय हैं , उत्पीड़ित हैं ,जो शोषण , दमन और दलन का शिकार हैं । भुजाएं क्षत्रियों की प्रतीक होती हैं और क्षत्रियों का यही धर्म है कि वे कहीं भी अन्याय , अत्याचार, दमन , दलन , शोषण , उत्पीड़न , अत्याचार ना होने दें।
ओं करतलकरपृष्ठे। इससे दोनों हाथों के ऊपर तले स्पर्श किया जाता है । यहाँ साधक कहता है कि हमारा करतल और करपृष्ठ दोनों ही शुद्ध व उदार हों । उनकी उदारता से अनेकों लोगों का कल्याण होता है। ये कभी दूसरों के माल को हड़पने वाले ना हों बल्कि दूसरों को उनके दुख – दर्द में , कष्ट में , तकलीफ में सहायता करने वाले हों । इनकी उदारता इसी में है कि ये किसी भी प्रकार के रोगी को शांत करने की क्षमता रखते हों । किसी ऐसी माता की सहायता करने में समर्थ हों जिसका पुत्र नहीं रहा या जो किसी भी कारण से आज असहाय है । किसी भी ऐसे पिता को तसल्ली देने वाले हों जो आज पुत्र वियोग में पागल हुआ जा रहा है , किसी ऐसी बहन को सहारा देने वाले हों जिसका भाई आज संसार में नहीं रहा या जिसका पति संसार से चला गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि हम संध्या के समय अपनी प्रत्येक इंद्रिय को ऋषि बना देना चाहते हैं । उसमें किसी भी प्रकार का विकार न रहने पाए और हमारा जीवन सदा संतुलित होकर अपने कर्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ता चले । पूरे संध्या मंत्रों की तो बात छोड़िए यदि संसार में मनुष्य अपनी इंद्रियों को भी ऋषि बनाने की इस भारतीय परंपरा का निर्वाह करना आरंभ कर दें तो भी संसार के अनेकों कष्ट क्लेश समाप्त हो सकते हैं । हमारे चारों ओर आग लगने का कारण केवल यही है कि हमने अपनी इंद्रियों को साधु बनाने की साधना छोड़ दी है । उनका ऋषि स्वरूप हमसे बहुत पीछे छूट गया है । यही कारण है कि चिंतन नाम की कोई चीज हमारे भीतर रह नहीं गई है । सदैव याद रखिए कि जहां चिंतन नहीं होता है , आग वहीं लगती है।
इस प्रकार संध्या के शुभचिंतन से पता चलता है कि हम संसार में आकर ईश्वर के प्रति इसलिए कर्तव्यपरायण नहीं होते कि हम ऐसा करके उस पर कोई उपकार करेंगे , बल्कि ईश्वर ही वह शक्ति है जिसके प्रति हम जितने अधिक कर्तव्यपरायण होते जाते हैं अर्थात भक्ति भावना से भरते जाते हैं – उतना ही हमारा स्वयं का कल्याण होता जाता है । परमपिता परमेश्वर इतने दयालु हैं कि वह अपने पास हमारा कुछ भी हिसाब रखते ही नहीं । वह साथ के साथ हमको ही लौटाता जाता है और हम उसकी कृपा से मालामाल होते जाते हैं। इसीलिए भक्त कह उठता है :–
तेरी दया परमात्मा मुझ पर बनी रहे ।
यह दिल तुम्हारे प्यार से हरदम धनी रहे ।।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत