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उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् । सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।।
अथर्ववेद- 8/4/22
भावार्थ:- योगीजन काम क्रोध आदि विकारों की तुलना पशु पक्षियों के स्वभाव से करते हैं। यहां छ: अवगुणों का संबंध पशु पक्षियों से किया गया है । उल्लू अंधकार अथवा मोह से प्रसन्न रहता है। मोह मानव का एक बहुत बुरा अवगुण है। शुशुलूक अर्थात भेड़िया क्रूरता और द्वेष का पर्याय है। क्रोध मानव का भी एक बड़ा अवगुण है। श्वान अर्थात कुत्ता चाटुकारिता और अपनी जाति के प्रति द्रोह के लिए जाना जाता है। द्रोह का अवगुण द्वेष वा मत्सर का सूचक है। चाटुकारिता का कारण लोभ वृति है। मत्सर युक्त लोभ वृति मानव का भी बड़ा अवगुण है । कोक शब्द चिड़ा और हंस दोनों पक्षियों के लिए प्रयोग होता है। यह दोनों ही पक्षी कामुक होते हैं। कामवासना मानव का भी एक और अवगुण है। सुपर्ण अर्थात सुन्दर परों वाला गरुड़ जिसको अपने सौन्दर्य का बहुत अभिमान अर्थात अहंकार होता है। अहंकार मानव का भी मुख्य अवगुण है। गृध्र अर्थात गिद्ध बहुत लोभी होता है । लोभ अवगुण मानव में भी है। काम, क्रोध,लोभ,मोह, अहंकार और द्वेष ये छ: रक्ष अर्थात् शत्रु वेद ने गिनाए हैं ,जिनसे मनुष्य को परिश्रम पूर्वक अपनी रक्षा करनी चाहिए।
मंत्र शब्दार्थ- हे ( इन्द्र) एश्वर्य चाहने वाली आत्मा ( उलूकयातुं ) उल्लू की चाल को, ( शुशुलूकयातुं ) भेड़िए की चाल को,( श्वयातुम् ) कुत्ते की चाल को ( उत कोकयातुं ) और चिड़े या हंस की चाल को, ( सुपर्णयातु़ ) गरुड़ की चाल को ( उत गृध्रयातुं ) तथा गिद्ध की चाल को ( जहि ) त्याग दे ।( रक्ष ) इन शत्रुओं को ( दृषदा + इव+ प्र + मृण ) पत्थर समान कठोर साधन से मसल दे।।
Gist: Vedas and other spiritual texts enumerate six major human sins ie sensual inclination, anger, attachment, greed, jealousy and self pride. These are the symbols of nature of birds like owl, crane, garuda vulture, and animals like dog, and wolf. Being sinful instinct inimical for his self- realisation, a man should mercilessly crush them.
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इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्मसंशिता ।
ययैव ससृजे घोरं तयैव शान्तिरस्तु न: ।।
―(अथर्व० १९/९/३)
(इयम्) यह (या) जो (परमेष्ठिनी) सर्वोत्कृष्ट परमात्मा में ठहरने वाली (देवी) उत्तम गुण वाली (वाक्) वाणी (ब्रह्मसंशिता) वेदज्ञान से तीक्ष्ण की गई है और (यया) जिसके द्वारा (घोरम्) घोर पाप (ससृजे) उत्पन्न हुआ है (तया) उस वाणी के द्वारा (एव) ही (न:) हमारे लिए (शान्ति:) धैर्य और आनन्द (अस्तु) होवे। वेद-मन्त्र का आशय यह है कि जिस वाणी के द्वारा वेदों के ज्ञान से परमात्मा को पहुँचते हैं, यदि उस वाणी के द्वारा कोई अनर्थ होवे तो विद्वान् पुरुष उस भूल को उचित व्यवहार से सुधार कर शान्ति स्थापित करे।
वाणी के दोषों को मनुस्मृति में इस प्रकार गिनाया गया है―
पारुष्यमनृतं चैव पैशून्यं चापि सर्वश: ।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।―(मनु० १२/६)
अर्थात् कटुवचन, झूठ बोलना, चुगली करना और असम्बद्ध प्रलाप―ये वाणी के चार दोष हैं। वाणी का एक और दुर्गुण है―दूसरों की पीठ-पीछे चुगली करना। वेद कहता है―मा निन्दत। ―(ऋ० 4/5/2) निन्दा मत करो। वाणी का पहला गुण है – मितभाषण व सत्यभाषण । अर्थात् थोड़ा बोलो, सच बोलो, भूल कर भी किसी पर मिथ्या आरोप न लगाएं । थोड़ा बोलने वाला व्यक्ति प्राय: सोच-समझकर बोलता है, सच बोलता है, अनाप-शनाप नहीं बोलता, बकबास नहीं करता। वेद का भी आदेश है- मोत जल्पि: ।―(ऋ० ८/४८/१४) बकवास करने वाले हम पर शासन न करे। वाणी का एक और दुर्गुण है―दूसरों की पीठ-पीछे चुगली करना। वेद कहता है―मा निन्दत। ―(ऋ० 4/5/2) निन्दा मत करो।
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आज समाज में जितने भी लड़ाई झगडे व मनमुटाव हैं, वे सब हमारे इन छः शत्रुओं व वाणी के दोषों के कारण ही हैं । मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में भी ये सब बहुत बड़ी बाधा हैं।
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– डा मुमुक्षु आर्य