नीरज कुमार पाठक का संकलन
1600 साल बाद भी लोहे के इस खम्भे पर नहीं लगी है जंग,
दुनिया में आज भी ऐसी कई सारी चीजें हैं जो इतिहासकारों के लिए किसी पहेली से कम नहीं है ऐसी ही एक पहेली है दिल्ली में कुतुबमीनार परिसर में स्थित यह लौह स्तम्भ जो 98 % शुद्ध लोहे से बना होने के बावजूद उसमें आज तक कोई जंग नहीं लगा है। 1600 साल पहले इस स्तम्भ को बनाया गया था कुमारगुप्त ने इसे अपने पिता चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की याद में बनवाया था।
413 ईसवी यानि कि आज से लगभग 1604 साल पहले इसका निर्माण किया गया था। इसकी ऊंचाई 7.21 मीटर है और यह जमीन में 3 फुट 8 इंच नीचे गड़ा है। और इसका वजन 6000 किलो से भी अधिक हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार इस लौह स्तम्भ का निर्माण लोहे के टुकड़ों को गर्म करके जोड़कर किया गया था. लेकिन इस स्तम्भ पर कही भी जोड़ के निशान नहीं हैं.
रॉबर्ट हेड जो कि एक धातु वैज्ञानिक हैं उन्होंने इस लौह स्तम्भ पर अध्ययन करके अपने शोध में लिखा कि यह स्तम्भ रॉ आयरन से बना हैं. जिसे पिघलाने में 2000 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान की जरुरत होती हैं. लेकिन आश्चर्य की बात तो यह हैं कि प्राचीन समय में यह प्रक्रिया कैसे की गयी होगी. इस लौह स्तम्भ में 98 प्रतिशत लोहा, 1 प्रतिशत फॉस्फोरस, 0.66 प्रतिशत लीड, 0.17 प्रतिशत ब्रास और 0.17 प्रतिशत बेल मेटल हैं. जब बारिश का पानी इस लोहे के स्तम्भ से रियेक्ट करता हैं. जिससे एक तत्व तैयार होता हैं जिसे मिसा वाइट कहते हैं. यह मिसा वाइट इस लोहे के स्तम्भ पर एक परत का निर्माण करता हैं. जो इसे जंग लगने से बचाता हैं.
एक अन्य रिसर्च
साल 1998 में इसका खुलासा करने के लिए IIT कानपुर के प्रोफेसर डॉ. आर. सुब्रह्मण्यम ने एक प्रयोग किया। रिसर्च के दौरान उन्होंने पाया कि इसे बनाते समय पिघले हुए कच्चे लोहे (Pig Iron) में फास्फोरस (Phosphorous) को मिलाया गया था। यही वजह है कि इसमें आज तक जंग नहीं लग पाया है।
अब दुनिया यह मानती है कि फास्फोरस का पता हेन्निंग ब्रांड ने सन 1669 में लगाया था, लेकिन इसका निर्माण तो 1600 में किया गया था यानि कि हमारे पूर्वजों को पहले से ही इसके बारे में पता था। इससे एक बात तो साफ है कि प्राचीन काल में भी हमारे देश में धातु-विज्ञान का ज्ञान उच्चकोटि का था।
कुछ इतिहासकारों का तो यह भी मानना है कि स्तम्भ को बनाने में वूज स्टील का इस्तेमाल किया गया है। इसमें कार्बन के साथ-साथ टंगस्टन और वैनेडियम की मात्रा भी होती है जिससे जंग लगने की गति को काफी हद तक कम किया जा सकता है। भारत की राजधानी दिल्ली में खड़ा लौह स्तम्भ वैज्ञानिकों के लिए बहुत बड़ा आश्चर्य का विषय हैं. इस लौह स्तम्भ में लोहे की मात्रा 98 प्रतिशत हैं. ये स्तम्भ 1600 साल से भी ज्यादा पुराना व खुले आसमान में खड़ा हैं और इसे आज तक इंच मात्र भी जंग नहीं लगा. इसी कारण यह दुनिया भर के लिए आश्चर्य का विषय है.
लौह स्तम्भ से जुड़े कुछ रोचक तथ्य
इतिहासकारों के अनुसार सन 1739 में नादिरशाह जब दिल्ली पहुंचा और उसने ये सुना कि यह स्तम्भ किसी हिन्दू राजा की याद में बनाया गया हैं. तब उसने इस स्तम्भ पर तोप चलाने का आदेश दे दिया था. जिसके कारण इस स्तम्भ पर खरोच के निशान भी हैं.
जब इस स्तम्भ पर तोप से हमला किया गया तब इस स्तम्भ को तो मामूली खरोच आई लेकिन इस स्तम्भ के पास ही एक मस्जिद गिर गई थी. जिसके बाद उस राजा ने अपना इरादा बदल दिया और तोप से हमला बंद करा दिया.
इस स्तम्भ पर संस्कृत भाषा में एक शिलालेख लिखा हैं. जिसके अनुसार
“इस लौह स्तम्भ को मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर भगवान विष्णु के मंदिर के सामने एक ध्वज स्तम्भ के रूप में लगाया गया था. बाद में इस स्तम्भ को दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा फहराया गया. इस स्तम्भ पर लिखी पंक्तियों के अनुवाद से पता चलता हैं कि चन्द्र नाम का राजा जिसका साम्राज्य पूरे भारत वर्ष में हिन्द महासागर तक फैला था. वह राजा खिन्न होकर पृथ्वी छोड़कर विष्णुलोक चला गया परन्तु उसका प्रभाव आज भी धरती पर कायम हैं.”
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ सम्राट अशोक का है जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था लेकिन अगर हम इतिहास को देखे तो पता चलता हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन कभी भी हिन्द महासागर तक नहीं पहुंचा.
इतिहासकारों के अनुसार के इतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य के अलावा चन्द्र नाम का कोई दूसरा राजा नहीं था लेकिन हम हमारी पौराणिक कथाओ को देखें तो भगवान राम को रामचंद्र भी कहा जाता हैं और माता सीता की खोज में वो हिन्द महासागर तक पार करके गए थे. पद्म पुराण के अनुसार भगवान रामचंद्र पृथ्वी छोड़कर विष्णु लोक चले गए थे और यह घटना लौह स्तम्भ के शिलालेख पर लिखी हुई हैं |
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