ओ३म्=============
मनुष्य को जीवन में सुख व शान्ति प्राप्त हो, वह उत्तम कार्यों को करे, उसका समाज व देश में यश हो, वह स्वाधीन, सुखी, समृद्ध, ज्ञानी, सदाचारी, धार्मिक, स्वाध्यायशील, विद्वानों का सत्संगी, ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, वीर सावरकर आदि महापुरुषों के जीवन को पढ़ा हुआ हो, वैदिक विधि से जीवन व्यतीत करने वाला हो, ऐसा करने से ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है और वैदिक धर्म की रक्षा भी होती है। आज के समय में इन बातों का महत्व पहले से कहीं अधिक है। मनुष्य अंग्रेजी व आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन अवश्य करे परन्तु अपने घर पर रहकर ही अपने माता-पिता, आर्यसमाज, गुरुकुलों अथवा आर्यसमाज के साहित्य सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञ विधि, आर्याभिविनय तथा सदाचार व योगदर्शन आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर अपने जीवन को अन्य साधारण मनुष्यों से कहीं अधिक श्रेष्ठ व उत्तम बना सकता है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि माता-पिता को चाहिये कि वह अपनी सन्तानों को किसी आर्य पुरोहित व विद्वान से उसके अवकाश के समय में संस्कृत का अध्ययन भी करायें। ऐसा करने से उसे अपनी आत्मिक व सामाजिक उन्नति करने सहित अपने मित्रों व साथियों को वैदिक गुणों से प्रभावित करने का अवसर मिलेगा। इससे वैदिक धर्म एवं संस्कृति का पोषण होगा और साथ ही इस प्रकार से जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्यों को ईश्वर का सहाय एवं आशीर्वाद प्राप्त होगा जिससे उन्हें आत्मिक व शारीरिक सुख की प्राप्ति सहित भौतिक सुख व समृद्धि भी प्राप्त होगी।
वर्तमान समय में शिक्षित युवा माता-पिता संस्कारित कम ही देखने को मिलते हैं। उन्हें यह ज्ञान ही नहीं होता कि सन्तान का पालन व पोषण किस प्रकार किया जाता है। वह वैदिक जीवन पद्धति से दूर होते हैं जिसका कुप्रभाव वह अपनी सन्तानों पर भी डालते हैं। उनकी सन्तानें वैदिक श्रेष्ठ संस्कारों से वंचित रहती हैं। माता-पिता महंगे अंग्रेजी स्कूलों में अपनी सन्तानों को भेज कर आश्वस्त हो जाते हैं कि वह अपनी सन्तानों को अच्छी शिक्षा दे रहें हैं परन्तु उनका ऐसा सोचना व मानना उचित नहीं होता। अंग्रेजी स्कूलों में आजकल बच्चों को ईसाई मत के संस्कार डालने का प्रयत्न किया जाता है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के बच्चों को भी स्कूल में ईसाईयत के संस्कार दिये जाते थे। इसका पता चलने पर उन्हें आर्य सन्तानों को विदेशी प्रभाव से बचाने व शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति करने की प्रेरणा मिली थी। इसका परिणाम गुरुकुलों की स्थापना सहित कन्या पाठशाला की स्थापना भी रहा। डी.ए.वी. स्कूलों ने भी वैदिक धर्म की रक्षा व आर्य सन्तानों को ईसाई वातावरण व संस्कारों से बचाने में महनीय भूमिका निभाई है। हम आज भी देखते हैं कि बच्चों को अंग्रेजी व मिशनरी स्कूलों में जो प्रार्थना कराई जाती है उसमें राम व कृष्ण तथा सृष्टि रचयिता ईश्वर का नाम भी नहीं होता और इसके विपरीत छोटे-छोटे अबोध बच्चों को ईसामसीह की महानता की बातें बताकर उनके कोमल मन व मस्तिष्क को प्रभावित करने सहित उनके भविष्य में मत-परिवर्तन का कार्य किया जाता है। हिन्दू माता पिताओं का भी आत्मिक पतन इस सीमा तक हो गया है कि वह इसके भावी दुष्परिणामों पर विचार नहीं करते एवं इसकी अनदेखी करते हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो इसके कुपरिणाम बहुत जल्दी सामने आयेंगे और आ भी रहे हैं।आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं सहित इसके सभी विद्वानों को इस समस्या पर ध्यान देना चाहिये। अधिकांश आर्यसमाजी परिवारों के छोटे बच्चे भी अंग्रेजी के विख्यात स्कूलों में पढ़ने जाते हैं। क्या वह बड़े होकर वैदिक धर्म एवं संस्कृति के सच्चे सर्वतोमहान स्वरूप से परिचित हो सकेंगे। ऐसा होना सम्भव नहीं अपितु असम्भव है। अतः माता-पिता का कर्तव्य है कि वह अपने घर में बच्चों को वैदिक धर्म की श्रेष्ठ बातें सुनायें व सिखायें जिससे बच्चे वैदिक धर्म व संस्कृति की विश्व में महानता से परिचित हो सकें। बच्चों के बड़े व समझदार होने पर माता-पिताओं को उन्हें सब मतों के सिद्धान्तों की समीक्षा कर यथार्थ स्थिति को बताना चाहिये जिससे कोई वैदिक धर्म का विरोधी उन बच्चों का मस्तिष्क गलत विचारों से परिवर्तित न कर सके। ऐसा करना अति आवश्यक है। हमें वर्तमान स्थिति देखकर चिन्ता व दुःख होता है। आज का समाज सत्य का प्रेमी व सत्य जानने व उसे अपनाने का इच्छुक नहीं है। उसका सबसे अधिक ध्यान धन कमाने व सुख-सुविधाओं के भोग पर केन्द्रित रहता है और जीवन का अधिकांश समय इन्हीं बातों में लग जाता है। सब अपनी सही व गलत परम्पराओं को ही मानने व उसे ही बढ़ाने में लगे हुए हैं। ऋषि दयानन्द ही विश्व में एक ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों को आंखें मूंद कर स्वीकार न कर उनकी यथार्थ स्थिति को जाना और उनके संशोधन का कार्य किया जिससे मनुष्य की अधिकतम सर्वांगीण उन्नति होकर मनुष्य इस जन्म व परजन्म में सुखों को प्राप्त कर सके।हम समझते हैं कि माता-पिता अपनी सन्तानों को बाल्यकाल में ही वैदिक धर्म की श्रेष्ठ मान्यताओं का परिचय प्रतिदिन कराते रहें। प्रत्येक आर्य व हिन्दू के घर में प्रातः व सायं वैदिक सन्ध्या के मन्त्रों की ध्वनि गूंजनी चाहिये। गायत्री मन्त्र व वैदिक धर्म के भजनों की सीडी भी बजनी चाहिये। बच्चों को ईश्वर, वैदिक धर्म व ऋषि दयानन्द की महानता के गीत सुनाये जाने चाहिये। घर पर प्रत्येक रविवार, अमावस्या एवं पूर्णमास को अग्निहोत्र यज्ञ भी होने चाहियें। मास में एक बार किसी आर्य पुरोहित को बुला कर बच्चों को नैतिक शिक्षा का ज्ञान कराया जाना चाहिये। इस अवसर पर पड़ोस के सभी बच्चों को एकत्रित कर उन्हें हमारे पुरोहित उन्हें वैदिक धर्म की महानता, श्रेष्ठ विचारों तथा वैदिक संस्कारों से, बच्चों की मानसिक स्थिति का ध्यान रखते हुए, परिचय करा सकते हैं। यदि ऐसा करेंगे तो निश्चय ही बच्चे विदेशी मतों के वैदिक धर्म विरोधी भावनाओं व प्रयत्नों का शिकार न बनकर उनसे बच सकेंगे। आर्यसमाज को इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।माता-पिता की सबसे बड़ी पूंजी उनकी सन्तानों का जीवन निर्माण होता है। केवल धन कमाना व सुख भोग मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं है। मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति सहित मनुष्य के जीवन से अविद्या का सर्वथा नाश और विद्या की वृद्धि ही सच्ची उन्नति होती है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये आवश्यक है कि हम वेद, वेदमत, वैदिक सिद्धान्तों एवं मान्यताओं को जाने। हमें ईश्वर व जीवात्मा का सत्यस्वरूप स्मरण रहना चाहिये। हमें प्रतिदिन कुछ समय ईश्वर के गुणों व स्वरूप का ध्यान करने में लगाना चाहिये और अपनी सन्तानों को भी इस विषय में बताना चाहिये। इससे हमारी सन्तानें वैदिक संस्कारों से परिचित हो सकेंगी और उन पर विदेशी व देशी अज्ञानता व अविद्यायुक्त मिथ्या व हानिकारक बातों का प्रभाव नहीं पड़ेगा। वह अन्धविश्वासों, सभी दुरितों व दुष्प्रवृत्तियों व दुव्र्यसनों से भी बचे रहेंगे। उनका चरित्र निर्माण होगा। वह अपनी बुद्धि का औरों से अधिक विकास कर पायेंगे। समाज में उनकी प्रतिष्ठा होगी। वह धर्म के लक्षणों व गुणों को जीवन में धारण कर अपनी बुद्धि को अधिक उन्नत बनाकर अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर जीवन में औरों से आगे बढ़ सकते हैं।उपर्युक्त सभी उपायों को करते हुए हमें संगठन के महत्व को भी नहीं भूलना है। यदि हम संगठित नहीं होंगे तो हमारे विरोधी हमें अपने धर्म व संस्कृति से दूर कर अपने अविद्यायुक्त मतों में सम्मिलित कर सकते हैं। हमें सत्य गुणों से युक्त अपने आर्य व वैदिक संगठनों का सक्रिय सदस्य बनना चाहिये जिससे हम किसी समाज व धर्म विरोधी शक्ति के दुष्प्रभाव से बचे रहंेगे। आज के युग में ऐसा किया जाना बहुत ही आवश्यक है। हमें अपने मन से जन्मना जातिवाद एवं सभी प्रकार के भेदभाव के आदि विचारों को पूर्णतः दूर कर देना चाहिये। सबके प्रति सम्मान एवं समानता के विचार रखने चाहिये। अपने निर्धन, कमजोर, अल्प शिक्षित तथा सामान्य बन्धुओं पर हमें विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। अतीत में तथा वर्तमान में भी विदेशी शक्तियां हमारे ऐसे भाईयों को हमसे दूर करना चाहती रहीं हैं और उन्होंने किया भी है। आज भी यह कार्य हो रहा है। हमारी व्यवस्था में भी उन्हें इसकी छूट मिली हुई है। आर्यनेता पं. ओम्प्रकाश त्यागी ने मोरारजी देसाई की सरकार में धर्म स्वातन्त्रय विधेयक प्रस्तुत किया था। देश की व्यवस्था के नियमों व राजनीति लाभ हानि के कारण वह पारित नहीं हो सका था। अतः हमें सावधान होकर अपने आर्थिक दृष्टि से निर्बल तथा ज्ञान की दृष्टि से भी निर्बल सभी बन्धुओं की रक्षा व सहायता करनी चाहिये। इन सबसे प्रेम व मित्रता रखनी चाहिये और इनके सुख व दुःखों में सम्मिलित होना चाहिये। उन्हें वैदिक धर्म की विशेषताओं से भी परिचित कराते रहना चाहिये। आर्यसमाज के दस नियमों को बताकर हमें उन्हें आत्मा की अमरता, ईश्वर की व्यापकता एवं ईश्वर द्वारा सभी जीवों व प्राणियों के रक्षण आदि बातों को भी बताना चाहिये। इससे भी हम अपने कमजोर भाईयों को अपने धर्म से दूर जाने से रोक सकते हैं।हमने इस लेख में आर्यसमाज व अपने इतर बन्धुओं के परिवारों के माता-पिताओं को अपनी छोटी आयु की सन्तानों के निर्माण में विशेष रुचि लेने व उनके धार्मिक विचारों को परिपक्व करने के लिये कुछ सुझाव दिये हैं। हमें इस विषय में स्वयं विचार करना है और जो उचित हो वह करना है। हमें विदेशी व विधर्मियों के षडयन्त्रों को भी समझना है व उन्हें विफल करना है। हमें अपने सभी बन्धुओं का सहयोगी बनकर उनकी रक्षा करनी है। विदेशी शिक्षा से हमारे बच्चों का जो ब्रेन वाश किया जाता है, उसको समझकर उसको विफल करने के लिये आर्यसमाज से जुड़कर इसके विद्वानों से परामर्श कर अपने धर्म व सन्तानों की रक्षा करनी है। हम आशा करते हैं कि हमारे मित्र हमारे आशय को समझकर इस पर ध्यान देंगे। ओ३म् शम्।-मनमोहन कुमार आर्य