मनुष्य के द्वारा भिन्न भिन्न प्रकार के जाप और तप किए जाते हैं , जिनमें यज्ञ भी एक प्रकार का साधन है। यज्ञ सृष्टि के आदि काल से अर्थात स्वाम्भुवमनु के काल से प्रचलन में है।
हमारे पूर्वज ऋषि – महर्षियों ने यज्ञ को पूजा की सर्वाधिक प्राचीन पद्धति बताया है । वेदों में अग्नि को परमेश्वर के रूप में वंदनीय कहा है अर्थात आर्य लोग अग्नि की उपासना करने वाले होते हैं। अग्नि में जो गुण होता है, वह हमेशा ऊपर को उठती है , चलती है अर्थात उसकी गति और ऊर्ध्वर्गति होती है जो उन्नति का प्रतीक है । अग्नि में उर्जा होती है। जो मनुष्य के जीवन के लिए अति आवश्यक होती है । उर्जा हमको सूर्य से प्राप्त होती है।
अग्नि की प्रधानता को स्वीकार करते हुए हमारे ऋषियों ने अग्नि को यज्ञों में भी प्रमुखता दी। हर संस्कार में अग्निदेव की पूजा का विधान किया गया। विज्ञान का मूल केन्द्र अग्नि को स्वीकार किया गया। यह सारा कुछ अनायास या संयोगवश या हमारे ऋषि वैज्ञानिकों की अज्ञानता के कारण नहीं हो गया था, अपितु इसके पीछे पूरा विज्ञान और तर्क छिपा हुआ था।
यज्ञाग्नि यज्ञ में आहूत पदार्थों को सूक्ष्म कर दूर देशों तक उनका विस्तार करती है और यज्ञरूप होकर प्रभु के संदेश को दिग-दिगंत तक फैलाती है। हम ईश्वर को भी यज्ञरूप मानते हैं, क्योंकि प्रभु की प्रत्येक रचना प्राणियों के हित में संलग्न है और नि:स्वार्थ भाव से उनकी सेवा कर रही है। वह अपने त्याग का त्याग कर रही है-इसलिए प्रभु स्वयं यज्ञरूप है। इस यज्ञ से सृष्टि में ऊर्जा का संभरण होता है और प्रकृति का कण-कण ऊर्जान्वित होकर कार्य करने लगता है।
यज्ञों द्वारा असमय में अंतरिक्ष में सोम भरा जा सकता है। जिससे मेघों का निर्माण होता है और वे यज्ञनिर्मित मेघ यथेच्छ स्थानों पर बरसकर प्राणियों का कल्याण करते हैं। यज्ञाग्नि अतिवृष्टि को रोकने में भी सहायक होती है। ये दोनों विज्ञान हमारे ऋषियों को ज्ञात थे। अनावृष्टि और अतिवृष्टि दोनों पर नियंत्रण होने से हमारे ऋषियों का ऋतु विज्ञान पर भी पूर्ण नियंत्रण था। इस क्षेत्र में अभी आज का विज्ञान केवल रेंग रहा है। अभी वह इस विषय का अपने आपको कुशल खिलाड़ी या विजेता सिद्घ नहीं कर सका है।
यज्ञ के माध्यम से वातावरण पवित्र एवं दिव्य होता है । जिसके द्वारा शाश्वत सुख और समृद्धि की कामना की पूर्ति होती है। जिस मनुष्य को मोक्ष की चाहना हो , उसको यह अवश्य करना चाहिए। यज्ञ करने से मनुष्य का दुख दारिद्र्य दूर होता है । यज्ञ करने वाले मनुष्य को परलोक में भी सद्गति प्राप्त होती है।
यज्ञ में जलने वाली समिधा समस्त वातावरण को प्रदूषण मुक्त करती है । यज्ञवेदी पर गूंजने वाली वैदिक ऋचाओं का अद्भुत प्रभाव वातावरण और मनुष्य के जीवन पर पड़ता है । यज्ञ मनुष्य की मनोकामनाओं को पूर्ण करने में सहायक होते हैं । यज्ञ से शांति और सुख की प्राप्ति होती है । जो यज्ञ करते हैं उनको कोई बाधा जीवन में आती नहीं है । यज्ञ करने वाले व्यक्ति के हर मंत्र में शरीर को झंकृत करने की अपार शक्ति होती है । परमपिता परमात्मा से नाता जोड़ने का माध्यम केवल यज्ञ है। इससे मनुष्य का चिंतन और मनन श्रेष्ठ बनता है । यज्ञ लौकिक संपदा के साथ-साथ अलौकिक संपदा की प्राप्ति का द्वार है।
वर्तमान समय में हवा , पानी , पृथ्वी , ध्वनि , प्रकाश ,आकाश आदि सभी महत्वपूर्ण संसाधन प्रदूषण रूपी महाभयंकर रोग से ग्रस्त हो चुके हैं तथा अन्न , वनस्पति, शाक , कंद , मूल , फल , फूल ,औषध आदि समस्त खाद्य पदार्थ दूषित हो गए हैं और इन दूषित वातावरण और खाद्यान्नों के प्रयोग से मनुष्य के शरीर में बनने वाली रस , रक्त , मांस , मेद ,अस्थि , मज्जा , वीर्य , राज आदि धातु भी अशुद्ध , निकृष्ट तथा निर्बल हो चुकी हैं । इन समस्त धातुओं व रसों के आधार पर काम करने वाले मन , बुद्धि आत्मा भी दूषित एवं विकृत हो गए हैं। इस कारणवश प्रत्येक मनुष्य के विचार , वाणी और व्यवहार में दोष आ गया है । जिसका सीधा प्रभाव आज के व्यक्ति पर , परिवार पर , समाज पर , राष्ट्र पर और विश्व में प्रत्यक्ष तौर पर पड़ रहा है ।
परिणामत: परस्पर प्रेम ,श्रद्धा ,विश्वास ,निष्ठा सद्भाव ,संगठन ,त्याग ,धैर्य, क्षमा ,सहनशक्ति ,सेवा, दया, निष्कामता की भावना किंचित मात्र रह गई है बल्कि इसके विपरीत स्वार्थ घृणा, द्वेष ,ईर्ष्या , संशय, चिंता ,अन्याय ,छल ,कपट, असहिष्णुता ,क्रूरता, अभिमान ,ओछेपन आदि में नित्य वृद्धि हो रही है।
शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ के विषय में निम्न प्रकार कहा गया है।
यज्ञो वै श्रेष्ठतमम कर्म: –
अर्थात यज्ञ ही श्रेष्ठतम कर्म हैं।
यज्ञ की महिमा अनन्त है। यज्ञ से आयु, आरोग्यता, तेजस्विता, विद्या, यश, पराक्रम, वंशवृद्धि, धन- धान्यादि, सभी प्रकार की राज-भोग, ऐश्वर्य, लौकिक एवं पारलौकिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है। हमारा शास्त्र, इतिहास, यज्ञ के अनेक चमत्कारों से भरा पड़ा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी सोलह-संस्कार यज्ञ से ही प्रारंभ होते हैं एवं यज्ञ में ही समाप्त हो जाते हैं।
क्योंकि यज्ञ करने से व्यष्टि नहीं अपितु समष्टि का कल्याण होता है। अब इस बात को वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि यज्ञ करने से वायुमंडल एवं पर्यावरण में शुद्धता आती है। संक्रामक रोग नष्ट होते हैं तथा समय पर वर्षा होती है। यज्ञ करने से सहबन्धुत्व की सद्भावना के साथ विकास में शांति स्थापित होती है।
संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं ।अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। और वर्षा यज्ञ से संभव होती है ।यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होता है। कर्म समुदाय वेद से उत्पन्न और वेद अविनाशी परमपिता परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं। अतः सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है। अतः हम सभी को यज्ञ करना चाहिए।
आयुर्वेद में निम्न प्रकार कहा गया :–
आयुर् यज्ञेन कल्पताम।
अर्थात जो मनुष्य प्रतिदिन अग्निहोत्र और अपनी प्रकृति के अनुसार आहार विहार करते हैं , वे निरोग होकर बहुत अधिक जीने वाले होते हैं। अतः सभी को यज्ञ करना चाहिए। इसका अभिप्राय है कि आयु यज्ञ से ही सफल होती है ।यदि जीवन में से यज्ञ की भावना को निकाल दिया जाए तो जीवन निष्फल जाता है ।
यजुर्वेद में आया है कि समिधाओं से यज्ञ की अग्नि प्रज्वलित करके उसे प्रदीप्त करो और उस प्रदीप्त अग्नि में उत्तम सामग्री की आहुति दो । जब अग्नि में सुगंधित पदार्थों का हवन होता है तभी वह यज्ञ वायु आदि पदार्थों को शुद्ध करता है। शरीर और औषधि आदि पदार्थों की रक्षा करके अनेक प्रकार के रसों को उत्पन्न करता है। उन शुद्ध पदार्थों के भोग से मनुष्यों में ज्ञान, विद्या और बल की वृद्धि होती है।
” ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” में आया है कि जैसे यज्ञ करने से वायु और जल की उत्तम शुद्धि और पुष्टि होती है , वैसी अन्य प्रकार से नहीं हो सकती ।इसके अलावा अथर्ववेद में आया है कि यज्ञ कुंड में डाली हुई सामग्री दुख देने वाले रोगों को ऐसे बहाकर ले जाती है जैसे नदी झाग को बहाकर ले जाती है।
यज्ञ में गाय के घी का उपयोग करना चाहिए जो परमाणु के विकिरण के प्रभाव को प्रचुर मात्रा में दूर करता है। — सिरोविच , रूसी वैज्ञानिक।
यज्ञ के धुंए से निकलने वाले अणु रेडिएशन में विद्यमान अल्फा , केबीटा और गामा अणु से काफी बड़े होते हैं। इसलिए रेडिएशन के अणु जब यज्ञ धुआं के बड़े अणुओं से टकराते हैं तो रेडिएशन के अणु अपनी उर्जा खो देते हैं और प्रभाव शून्य हो जाते हैं। जिससे रेडिएशन का खतरा समाप्त हो जाता है।
पुणे में एक कॉलेज है , जिसका नाम फर्ग्युसन कॉलेज है। इस कालेज के जीवाणु शास्त्रियों ने एक प्रयोग किया । उन्होंने 36 गुना 22 गुना 10 घनफुट के एक हॉल में एक समय यज्ञ किया । जिसके परिणाम स्वरूप 8000 घनफुट वायु में कृत्रिम रूप से निर्मित प्रदूषण का 77.5 परसेंट हिस्सा खत्म हो गया। इसके अलावा इस यज्ञ से यह भी सिद्ध हुआ कि एक ही है जिसे 96 परसेंट हानिकारक कीटाणु नष्ट हो गए।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।