भारत की आत्मनिर्भरता की कुंजी छोटी दुकानों, और छोटे उद्योगों के ही पास
विजय कुमार
बड़े देशों में लोग सप्ताहांत में मॉल या बिग बाजार से पूरे सप्ताह के लिए पैक की हुई खाद्य सामग्री ले आते हैं या फिर ऑनलाइन मंगा लेते हैं। फिर वे उसे फ्रिज में भर देते हैं। उन्हें ऐसा बासी और रसायनयुक्त भोजन करने की ही आदत पड़ गयी है।
कबीर, तुलसी, रहीम, रसखान हों या बिहारी, इन सबने अपने दोहों में ऐसी बातें कही हैं, जिनके लिए ‘गागर में सागर’ की उक्ति ही ठीक बैठती है। रहीमदासजी का एक प्रसिद्ध दोहा है-
रहिमन नन्हे ही रहो, जैसे नन्ही दूब। बड़े रूख ढह जाएंगे, दूब खूब की खूब।।
अर्थात् नन्ही दूब की तरह छोटे रहना ही ठीक है। क्योंकि आंधी या तूफान में बड़े पेड़ तो गिर जाते हैं; पर नन्ही दूब वैसी की वैसी बनी रहती है। किसी पंजाबी कवि ने सबको अहंकार छोड़कर विनम्र होने को कहा है (नीवां होके चल बंदया..)। ‘‘मन लागो मेरो यार फकीरी में..’’ कवि कहता है, ‘‘हाथ में कूंडा, बगल में सोटा, चारों दिश जागीरी में..।’’ स्वामी रामतीर्थ के अनुसार ‘‘जिसको कुछ ना चाहिए, वो शाहों का शाह’’। जर्मन विद्वान शूमेखर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल’ में विकास के लिए बड़े दानवाकार प्रकल्पों की बजाय छोटे प्रकल्पों की वकालत की है। छोटे और बड़े की यह अंतहीन बहस कब तक चलेगी, पता नहीं।
पर इस कोरोना काल में बड़े की बजाय छोटा ही बाजी मारता दीख रहा है। इसे भारत के संदर्भ में समझना ठीक होगा। यहां लोग ताजा भोजन करना पसंद करते हैं। यदि कुछ सामग्री बच जाए, तो उसे गाय, कुत्ते, कौए आदि को डाल देते हैं। इससे खिलाने वाले को पुण्य मिलता है, भोजन सामग्री बरबाद नहीं होती और पशु-पक्षियों का पेट भी भर जाता है। भारत में हर गांव, गली और मोहल्ले में छोटी-छोटी दुकानें हैं, जहां दैनिक जरूरत का सामान मिल जाता है। दिन भर फल और सब्जी के ठेले वाले भी घूमते रहते हैं। कोरोना काल में जब कई किश्तों में तालाबंदी (लॉकडाउन) हुई, तो इन गली-मोहल्ले की छोटी दुकानों ने ही सबको संभाल लिया।
बड़े देशों में लोग सप्ताहांत में मॉल या बिग बाजार से पूरे सप्ताह के लिए पैक की हुई खाद्य सामग्री ले आते हैं या फिर ऑनलाइन मंगा लेते हैं। फिर वे उसे फ्रिज में भर देते हैं। उन्हें ऐसा बासी और रसायनयुक्त भोजन करने की ही आदत पड़ गयी है; पर ऐसे भोजन से उनकी आंतरिक शक्ति कमजोर पड़ गयी। अतः वे कोरोना से बहुत जल्दी संक्रमित हो गये। इसीलिए भारत में जहां मृतकों की संख्या हजारों में है, वहां स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत अच्छी होने पर भी इन देशों में आंकड़ा लाखों तक पहुंच गया है।
भारत में छोटी दुकानों या ठेलों पर मोलभाव की गुंजाइश रहती है। ठेले वाले शाम को अधिकतम माल बेचकर घर जाना चाहते हैं। उन्हें भी अपने परिवार के लिए कुछ चीजें खरीदनी होती हैं। अतः वे दाम कुछ कम कर देते हैं। गली-मोहल्ले के दुकानदार कुछ दिन के लिए उधार भी दे देते हैं। इससे दुकानदार और ग्राहक में निजी संबंध बन जाते हैं। अतः समय पड़ने पर वे एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आते हैं।
परन्तु मॉल या बिग बाजार की संस्कृति बिल्कुल अलग है। उसकी चमक-दमक, विशाल आकार, ठंडा-गरम वातावरण, बहुमंजिला भवन, लिफ्ट, चलती सीढ़ियां, टाई लगाए चौकीदार, सेल्समैन और सेल्सगर्ल्स आदि से लोग प्रभावित हो जाते हैं। लोग ट्राली लेकर घूमते हुए उसमें सामान भर लेते हैं। प्रायः जरूरत से अधिक सामान ही ले लिया जाता है, जो फिर अंतिम तारीख बीतने पर फेंकना पड़ता है। इसके बाद काउंटर पर जाकर कम्प्यूटर से बने बिल का भुगतान कर लोग बाहर आ जाते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि उस मॉल का मालिक देशी है या विदेशी; उनका कितना पैसा यहां रहेगा और कितना विदेश चला जाएगा ? इन बाजारों में बड़ी और प्रसिद्ध कंपनियों का महंगा सामान मिलता है; पर बड़ी गाड़ियों वाले सम्पन्न ग्राहक अपनी नाक ऊंची करने के चक्कर में खुशी-खुशी जेब कटा लेते हैं।
कोरोना काल की तालाबंदी में लोगों को इन दोनों का अंतर पता लग गया। कोरोना का विषाणु (वायरस) सांस से शरीर के अंदर जाता है और ये विशालकाय मॉल पूरी तरह वातानुकूलित होते हैं। खिड़की और रोशनदान जैसी चीजें वहां नहीं होतीं। यदि कोई कोरोना पीड़ित वहां खांस या छींक दे, तो उसके मुंह और नाक से निकले दूषित कण ए.सी. संयंत्र से घूमते हुए वहां उपस्थित सभी लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। इसलिए ये मॉल बंद कर दिये गये; पर गली-मोहल्लों की दुकानें और ठेलियां लगातार सेवा में लगी रहीं। इससे भारत में लोगों को अधिक परेशानी नहीं हुई, जबकि बड़े और सम्पन्न देशों में लोग त्राहिमाम करने लगे।
इसलिए हमें एक बार फिर रहीमदासजी और शूमेखर की बात पर ध्यान देना चाहिए। गांधीजी के बाद अब नरेन्द्र मोदी भी इसके ही पक्षधर हैं। कारण भी बिल्कुल साफ है। यदि हम गली-मोहल्ले की छोटी दुकानों और ठेलियों से अधिकाधिक सामान लेंगे, तो इससे उन लाखों लोगों का पेट भरेगा, जिनका कोरोना की तालाबंदी में सबसे अधिक नुकसान हुआ है। ये स्वदेशी और स्थानीय (लोकल) दोनों शर्तों को पूरा करते हैं।
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