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उत्तराखंड में ईसाई धर्मांतरण : पहले जीसस भजन , फिर दिया चावल मुर्गी ,अब बना रहे घरों की छतों पर चर्च

उत्तराखंड में ईसाई धर्मांतरण: पहले जीसस भजन, फिर दिया चावल-मुर्गी… अब बना रहे घरों की छत पर चर्च

उत्पत्ति और उद्धार की कहानियाँ, वो कॉमिक्स और चित्रण, जिनमें बताया जाता था कि किस तरह परमपिता परमेश्वर अपने चेलों की चंगाई कर दिया करते थे… भजन संग्रह और आरती की किताबें! मैं बचपन में अक्सर सोचा करता था कि आखिर गाँव के पास ही देवदार के घने जंगलों में घूमने और छुट्टियाँ बिताने के उद्देश्य से पहुँचे ‘अंग्रेज’ इन किताबों के गट्ठरों को साथ लेकर क्यों पहुँचते हैं?
शाम के समय हम अपने दोस्तों के साथ सैलानियों के इन झुंडों को देखने जाया करते थे। ये तब की बात है, जब मसूरी से ही तकरीबन 50-60 ‘अंग्रेज’ अपना सामान पीठ पर लादकर हमारे गाँव की ओर घूमने आया करते थे। सड़कें और यातायात के साधन तब मसूरी तक ही सीमित थे और वहाँ से पैदल ही यह दूरी तय करनी होती थी।
तब की मेरी समझ कहती थी कि शायद ब्रितानी फितरत के लोग ऐसी जगहों को छुट्टियों के लिए सबसे ज्यादा पसन्द करते हैं, जो मुख्यधारा के जनजीवन से एकदम कटी हुई है। जहाँ पर प्रकृति अपने मौलिक स्वरूप में मौजूद है, ‘अंग्रेज’ लोग ऐसी ही जगहों को चुनते होंगे।
सघन देवदार के जंगलों के बीच प्राचीन टूरिस्ट लॉज के पास लगे इनके तंबुओं के बाहर हम इनके खेल देखते, तो ये फुटबॉल जैसी किसी गेंद को लेकर दौड़ते थे। हम यह जानते थे कि कम से कम यह फुटबॉल तो नहीं हुआ करता था।
पास में ही इनके दूसरे समूह गाँव के लोगों से कुछ बातचीत करते नजर आए थे। इस बातचीत में परमेश्वर की बातें थीं। लोगों को अपने साथ दोहराने को एक गीत जैसा कुछ दिया जाता जो शायद कुछ ऐसा था
ये कहानियाँ एकदम नई होने के साथ-साथ इतनी आश्चर्यजनक और लुभावनी नजर आती थीं कि जिन घरों में गीता और रामचरितमानस के अलावा कभी किसी शादी विवाह की चिट्ठियों के कागज तक नहीं मिलते थे, वहाँ लोग इन्हें रखकर एक दूसरे को सुनाने लगे।
समय बीतता गया, जैसे-जैसे यह जनजातीय क्षेत्र तरक्की करने लगा, विदेशियों के आने-जाने के किस्से भी कम होते गए। अब उनमें से एकाध लोग ही कभी-कभार आते लेकिन लंबे समय तक यहाँ गाँव के आसपास रहकर दिन गुजारते, वो अच्छी हिंदी बोलने लगे थे। गाँव के लोग उसे ‘डेविड’ कहते और वो भी अच्छे से जानता था कि गाँव में कौन प्रधान है, कितने सवर्ण और साथ ही यह भी कि कितने तथाकथित निचली जाति के लोग कहाँ रहते हैं।
“हे यहोवा, मैं गहन कष्ट में हूँ। सो सहारा पाने को मैं तुम्हें पुकारता हूँ। मेरे स्वामी, तू मेरी सुन ले। मेरी सहायता की पुकार पर कान दे।”
जो लोग मिला-मिलाकर अक्षर जोड़ पाने में सक्षम होते उन्हें वो किताबें पकड़ा देते और बाकी लोगों को पोस्टर थमा देते और हम बच्चों को कॉमिक्स। इनमें बताया गया था कि किस तरह गर्भवती मरियम को लेकर यूसुफ़ के मन के वहम को फरिश्तों ने दूर किया और आखिरकार भेड़ और गड़रियों के बीच बेथलहम में एक रात लोगों के उस रखवाले ने जन्म लिया था।
धीरे-धीरे ऐसी भी घटनाएँ सामने आईं, जब दलितों के बच्चों और बेटियों को नौकरी और मोटरसाइकिल देकर उन्हें ईसाई बना दिया गया। अब इनके निशाने पर प्रत्यक्ष रूप से अनुसूचित जाति के लोग आ गए। गाँव के लोगों को लालच देकर उन्हें जीसस की आरतियाँ बाँटी जा रही हैं। उनके घरों में हिन्दू देवी-देवताओं की जगह योहोवा की आरती और जीसस के भजन टँगे हैं।
आस्था का चावल और हर सप्ताह जबरन भेजी जाने वाले मुर्गा-बकरियों से सौदा किया जाने लगा। ईसाई मिशनरियों को कोरोना की महामारी ने मानो एक और बड़ी रेड मारने का अवसर दे दिया। पास के ही एक गाँव में, जहाँ पर अनुसूचित जाति रहती है, सप्ताह में दो दिन कम से कम राशन बाँटी जाती है। इसमें यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि प्रत्येक घर में रोज मीट और माँस पक रहा हो।
हालाँकि भाग्यवश और जिज्ञासा से कुछ समझदार लोग यह भी सवाल पूछते कि परमपिता परमेश्वर के पुत्र जीसस कैसे हो सकते हैं? जबकि भगवान राम के तो बस लव और कुश ही दो बेटे थे? या शिव के तो गणेश और कार्तिकेय, दो पुत्र थे और जीसस जैसी बात तो कहीं लिखी ही नहीं गईं। फिर शिव अपने बेटे का नाम जीसस भी नहीं रखते… आखिर में यह सब एक हास्य पर समाप्त हो जाता।
अब इस गाँव में कुछ लोगों को पकड़कर उन्हें इतना पैसा दिया गया है, जिससे वो अपने लिए घर और उसके ऊपर चर्च तैयार करें। इसी तर्ज पर उत्तराखंड राज्य के लगभग हर गाँव में रहने वाली अनुसूचित जाति को ईसाईयों ने निशाना बनाया है। गाँव के गाँव का ईसाईकरण किया जा रहा है, जिसे लेकर स्थानीय लोग भी बहुत ज्यादा जागरूक नहीं हैं। सवाल यह है कि यदि ईसाई मिशनरी दुनिया से भूख और गरीबी को खत्म करना चाहते हैं, तो फिर उसके लिए उन्होंने सिर्फ अनुसूचित जाति को ही क्यों चुना है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या अनुसूचित जाति से होने का अर्थ गरीब होना है?
वर्ष 2013 की आपदा के बाद से बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिला। बड़े स्तर पर अचानक से इन विदेशियों के दल सक्रिय हो गए। राशन और मदद की आड़ में दलितों के गाँव में बड़ी मात्रा में धर्मांतरण होने लगे। जो काम अब तक गोपनीय रूप से हुआ आ रहा था, अब वह मदद के बहाने खुलकर किया जाने लगा। डॉक्टर्स की टीम गाँव में हेल्थ चेकअप करती और हर जरूरतमंदों के साथ-साथ अनावश्यक रूप से भी बेवजह लोगों को दवाइयों के भंडार वितरित किए जाने लगे। लोग कहते कि किसी ‘वर्ड बैंक’ ने ये दवाएँ भेजी हैं, जिन्हें सरकारी अस्पताल दो जन्म तक नहीं ला सकेंगी।
लेकिन सदियों से जो जनजातीय इलाके अपने पुरखों की जमीन पर हल जोतकर उस पर फसल उगाते आ रहे थे, अचानक से उन्हें चावल और बकरियाँ परोसकर उन्हें पंगु और लाचार बना देने वाले ईसाइयों ने गरीबों को क्यों चुना? इस क्षेत्र में कई पीढ़ियों से ब्राह्मण, राजपूत, दलित, लोहार, बढ़ई… यानी समाज का लगभग हर वर्ग अपनी आवश्यकताओं के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहता आया था। लेकिन हुआ यह कि ईसाई मिशनरियों ने समाज के इस ताने बाने को ही तोड़ दिया।
इसका जवाब तो एकदम ना है। क्योंकि जिस क्षेत्र से मैं सम्बन्ध रखता हूँ, वह एक जनजातीय क्षेत्र है। हम सभी लोगों की आवश्यकताएँ एक-दूसरे परिवार से पारंपरिक रूप से जुड़ी हुई हैं। सआदत हसन मंटो का कहना था कि भूखे आदमी का मजहब रोटी होता है, यही बात स्वयं विवेकानंद ने सौ वर्ष पूर्व कह दी थी। स्वामी जी ने कहा था कि दरिद्र नारायण का कोई धर्म नहीं होता। बेशक दरिद्र नारायण का कोई धर्म नहीं होता।
खेतों में हल चलाने से लेकर फसल बोने, काटने आदि की जिम्मेदारी निभाने वाला यह अनुसूचित वर्ग अब अपनी उपजाऊ जमीन को भी बंजर कर चुका है। ईसाइयों ने किसानों को जीसस की आरती पढ़ाकर उन्हें ‘दलित’ बना दिया। काश्तकार के मन में इस विचार का बीजारोपण किया जाने लगा कि वह निचली जाति का है। यही नहीं, सबसे बड़ा हमला उनकी आस्था पर करते हुए कहा कि उन्हें ऐसी महाभारत पर गर्व नहीं होना चाहिए, जो अपने भाइयों से युद्ध करना सिखाती है।
लेकिन अब इन अनुसूचित गाँवों का तालमेल पूरी तरह से खंडित नजर आता है। जो लोग अपने स्वरोजगार की ओर भी बढ़ रहे थे, उन्होंने अपना काम उस हर सप्ताह बंटने वाली मुफ्त की राशन के लिए छोड़ दिया है। कुछ ही साल पहले स्कूल जाने वाले विद्यार्थी, जो पुलिस या फौज में जाना चाहते थे, वो अब ईसाई मिशनरियों से चर्च बनाने के लिए ‘फंड’ की माँग करने लगे हैं।
यह सब सिर्फ उत्तराखंड की ही कहानी नहीं है। ऐसे कई उदाहरण सामने आते रहे हैं जब ईसाइयों ने आदिवासी इलाकों और दलितों की आबादी को राशन के बहाने ईसाई बना दिया। यह एक सुनिश्चित योजना के साथ होता आया है। लेकिन सबसे करीब से इसे मैंने अपने क्षेत्र में महसूस किया कि किस तरह से इतने वर्षों तक बेहद सावधानी से और अलग-अलग चरण में एक जनजातीय क्षेत्र के तालमेल को खंडित कर दिया गया।
इस कारण धर्म के अलावा और भी कई पारस्परिक सम्बन्ध टूटते चले गए। बात सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं थी, बल्कि अब ऐसे विद्यालय तैयार किए जाने लगे हैं जो मुख्य बाजार से बहुत दूर के गाँव के लोगों को पढ़ाते हैं। इन स्कूलों की शिक्षा प्रणाली और सिलेबस, सब कुछ समझ से परे जरूर है, लेकिन बहुत व्यवस्थित और नियमबद्ध हैं।
फिर भी ग्रामीण लोग सिर्फ ‘अंग्रेजी स्कूल’ के नाम पर और लुभावनी प्रणाली के आधार पर बच्चों को इन स्कूलों में भेज रहे हैं। इसके लिए सिर्फ ईसाइयों को दोष दिया जाना भी अतार्किक ही है, क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर चली आ रही खाना-पूर्ति किसी से छुपी हुई नहीं है। सरकारी विद्यालयों में सिर्फ भर्ती कर दिए जाने के नाम पर अकुशल, बेहद अव्यवहारिक और सतही ज्ञान वाले शिक्षकों के कारण अपने बच्चों को कोई उन विद्यालयों में भेजना भी नहीं चाहता।
इसका नतीजा यह होता है कि जो सांस्कृतिक गौरव अब तक कम से कम हाल की पीढ़ियों तक जीवित था, समय के साथ वह भी इस सांस्कृतिक ईसाईकरण के साथ नष्ट होता चला जाएगा।

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