जब दुनिया में आए हो तो कुछ ना कुछ जोड़ा भी अवश्य होगा। कितनी संपत्ति जोड़ दी ? कितने मकान बना दिए ? कौन-कौन से बेटे के लिए क्या क्या कर दिया ? हमारी जीवन भर यही सोच बनी रही कि उनके लिए धन-संपत्ति जोड़कर जाना है ।उससे अगले आने वाली पीढ़ी के लिए भी बचा रहना चाहिए। यही कारण रहा कि संपत्ति इकट्ठा करने और जोड़ने की हमारी “और और” की भूख शांत नहीं हुई । सारी दुनिया की सारी दौलत को अपने पैरों तले इकट्ठा करने का सपना संजोया । उसका ढेर लगाया । उसे देख देख कर खुश हुए । सोचा कि अब कई पीढ़ियों के लिए सामान इकट्ठा कर लिया है । इस सारे खेल को करते हुए ऐसा लगा जैसे कि हमने बेटे नालायक पैदा कर दिए हों । उन्हें कुछ नहीं करना। हमें करके जाएंगे – उनकी सारी आवश्यकताएं पूरी।
हम यह भूल गए कि :–
पूत कपूत तो क्यों धन संचय ।
पूत सपूत तो क्यों धन संचय।।
दोनों का ही विशेष महत्व है । यदि पूत कपूत है तो संचित किए हुए को नष्ट कर देगा और यदि सपूत है तो चाहे कुछ मत करके जाओ फिर भी स्वयं कमा लेगा। लेकिन यह कमाई , यह संपत्ति को जोड़ने की कार्यवाही क्या हमारे लिए उचित है ? बिल्कुल नहीं, वास्तव में तो यह हमारी कमाई है ही नहीं ।
हमें तो कुछ और संपदा इकट्ठी करनी थी । उसको हम पूरे जीवन भागते रहे और इकट्ठी नहीं कर पाए । जीवन यूं ही व्यर्थ गंवा दिया। हमारे जीवन में वह संपत्ति कभी नहीं आ पाई , जिसकी आत्मा को चाह थी । इसका कारण यह है रहा कि इंद्रियों के बहिर्मुखी विषयों में हम भटकते रहे। बड़ी सीधी सी बात है जिसका परिवार जिसके कहे में नहीं होता अर्थात वश में नहीं होता , उसका सारा खेल बिगड़ जाता है । वह कभी भी मंजिल को प्राप्त नहीं कर सकता इसी को संसार में लोग अक्सर कहा भी करते हैं कि अमुक व्यक्ति का खेल बिगड़ गया । खेल बिगड़ने का अभिप्राय है कि व्यक्ति जीवन ध्येय से या प्रयोजन से विमुख हो गया । हमारे शरीर में इंद्रियों का भी एक परिवार है , जिसका यह परिवार बिखर जाता है , वह भी बाराबाट हो जाता है। उसके शरीर रूपी रथ के अंग प्रत्यंग टूट फूट जाते हैं जिसके घोड़े उसके बस में ना हो । जब ऐसी स्थिति आ जाती है तो व्यक्ति निराश और हताश हो जाता है। तब पूछता है कि गलती कहां हुई ?
हमको तो देवी संपदा एकत्र करने के लिए ईश्वर ने जन्म दिया था । हमको सांसारिक सुविधा भोगने के लिए नहीं भेजा था । हमको कचरे की गठरी बांधने के लिए नहीं भेजा था , जो हमको भवसागर में पार करने में मदद न करके उसमें डूबा दे।
संसार में वह व्यक्ति ही सबसे अधिक धनी हैं , जिसके पास दैवीय संपत्तियां हैं। जिसके पास ऐसी संपत्ति है , उसके लिए शिक्षा , स्वास्थ्य , संगठन की क्षमता , अनुभव, प्रसाद आदि शक्तियों के भंडार होते हैं। यह दैवीय संपत्ति सद्गुण , सात्विक दृष्टिकोण , सत्य निष्ठ होना , संयमित होना उदार और नम्र व्यवहार करना आदि होते हैं । क्योंकि उसी से मानसिक शांति मिलती है और इसी दैवीय संपत्ति से जीवन सफल होता है।
मित्रता
कवि ने कितना सुंदर कहा है :–
कहां मित्रता कैसी बातें अरे कल्पना है सब ये।
सच्चा मित्र कहां मिलता है दुखी हृदय की छाया सी।।
मुंह देखे की मीठी बातें चिकनी चुपड़ी ही सुन लो।
इसके अलावा एक नीति श्लोक भी देखें :–
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।
चाणक्य कहते हैं कि आपके सामने मीठा बोलकर पीठ पीछे आपके विरुद्ध षड़यंत्र रचने वाले मित्र विष भरे घड़े के ऊपर रखे दूध के समान होते हैं ।
जिस प्रकार विष से भरे घड़े के ऊपर यदि थोड़ा सा दूध डाल दिया जाए तब भी उसे विष का घड़ा ही कहते हैं , उसी प्रकार सामने से आपके बारे में अच्छी बातें करने वाले और पीछे आपका काम बिगाड़ने वाले मित्र भी विष के समान होते हैं , ऐसे मित्रों का तुरंत त्याग कर देना चाहिए ।
न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्।
कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत्॥
चाणक्य इस श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि दुष्ट मित्र पर भूलकर भी विश्वास नहीं करना चाहिए । ऐसे मित्र अवसर मिलने पर आपको हानि पहुंचा सकते हैं। चाणक्य कहते हैं कि मित्र कितना भी प्रिय हो पर उसे अपनी गुप्त बातों को नहीं बताना चाहिए । क्योंकि क्रोध के समय में वह आपकी गुप्त बातों को आपके शत्रु के सामने व्यक्त कर सकता है और इससे आप कठिनाई में फंस सकते हैं ।
तुलसीदास जी कहते हैं :-
धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी॥
भावार्थ : धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। बिना परख किए मित्र बनाना भी चाहिए।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।