श्री कृष्ण जुगनू
कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।
पिछले दिनो भूलोकमल्ल चालुक्य राज सोमेश्वर के ‘मानसोल्लास’ के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में ‘कौतुक चिंतामणि’ लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचण्डीश्वर तंत्र, दत्तात्रेय तंत आदि कई पुस्तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया।
मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-1 कुटी प्रवेश और 2 वात तप सहा रसायन। मानसोल्लास में शाल्मली कल्प गुटी, हस्तिकर्णी कल्प, गोरखमुण्डीकल्प, श्वेत पलाश कल्प, कुमारी कल्प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्यक्ति चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्त होता… जैसा कि सोमेश्वर ने कहा है – एवं रसायनं प्रोक्तमव्याधिकरणं नृणाम्। नृपाणां हितकामेन सोमेश्वर महीभुजा।। (मानसोल्लास, शिल्पशास्त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)
ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। कहा, ‘ कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्राय वनस्पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। (अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्करण भाग पहला, पेज 188-189)
है न अविश्वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा रसायन…।
लौहस्तम्भ : अद्भुत धातु मिश्रण
*श्रीकृष्ण जुगनू
हमारे यहां लौह कितने प्रकार का रहा और उसको भी कितने प्रकार से काम में लिया गया? यह कम रोचक विषय नहीं है। धार में जब मैंने विजय मन्दिर में लौह स्तम्भ के तीन टुकड़े देखे तो क्या क्या याद नहीं आया। दिल्ली, आबू, ऊंताला आदि के लौह स्तम्भ, त्रिशूल तक के कौतुक स्मरण हुए।
लोहस्तंभ को देखकर किसे आश्चर्य नहीं होता। यह किस धातु का बना कि आज तक उस पर जंग नहीं लगा। ऐसी तकनीक गुप्तकाल के आसपास भारत के पास थी। हां, उस काल तक धातुओं का सम्मिश्रण करके अद्भुत वस्तुएं तैयार की जाती थी। ऐसे मिश्रण का उपयोग वस्तुओं को संयोजित करने के लिए भी किया जाता था। यह मिश्रण ” वज्रसंघात ” कहा जाता था।
शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्त ग्रंथ प्राप्त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-
अष्टौ सीसकभागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।।
(बृहत्संहिता 57, 8)
मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्मीर के पंडित उत्पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-
संगृह्याष्टौ सीसभागान् कांसस्य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्तु संतप्तो वज्राख्य: परिकीर्तित:।। ( मयमतम् : श्रीकृष्ण जुगनू, चौखंबा, बनारस, २००८, परिशिष्ट, मय दीपिका)
आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं।
मगर, क्या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्या है।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू