किसी वस्तु का बिना मोल लिए किसी को दिया जाना दान कहा जाता है । दान देने में स्नेह , प्रेम , आत्मीयता , लगाव , मानवता आदि ऐसे दिव्य गुण समाविष्ट होते हैं जो कभी इच्छा से तो कभी कभी अनिच्छा से भी किसी को कुछ देने के लिए हमें प्रेरित करते हैं । महर्षि दयानंद ने अपने हत्यारे तक को भी दान देकर अपने पास से भगा दिया था । यह केवल इसलिए संभव हो पाया था कि ऋषि दयानंद उस हत्यारे के अज्ञान से पूर्णतया परिचित थे । वह जानते थे कि इसका कोई अपराध नहीं है । इससे अपराध करवाया गया है । वे यह भी जानते थे कि जिन्होंने अपराध करवाया है उन्हें पकड़ा नहीं जाएगा और जो पकड़ा जा रहा है, वह अपराधी है नहीं । अतः इसको भगाना ही उचित है । इसमें महर्षि दयानंद की मानवता और न्यायप्रियता दोनों ने ही उन्हें उस हत्यारे को दान देकर भगाने के लिए प्रेरित किया ।
आज की न्याय व्यवस्था तो ऐसे अनेकों नादान लोगों को फांसी पर चढ़ा चुकी है या कठोर दंड देकर अपनी अन्यायप्रियता का परिचय दे चुकी है , जिनके द्वारा किए गए तथाकथित अपराध का उन्हें कोई ज्ञान नहीं था , उनसे अपराध करवाया गया या वे अपराध के लिए प्रेरित और बाध्य किए गए । जबकि महर्षि दयानंद की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति क्षमा का पात्र है । जिस दिन आज की न्याय व्यवस्था भी पूर्ण विवेक का परिचय देते हुए न्यायप्रियता के इसी सिद्धांत को अपना लेगी उस दिन समाज में वास्तव में लोकतंत्र स्थापित हो जाएगा।
दधीचि का दान समाज हित में किया गया दान था । जिन्होंने जब यह देखा कि दीन के हित में निज अस्थियों का समर्पण आवश्यक हो गया है तो उन्होंने दुष्ट व्यक्तियों के विनाश के लिए अपनी अस्थियों का भी दान कर दिया । राजा हरिश्चंद्र का दान , कर्ण का दान जैसे अनेक उदाहरण आपने सुने होंगे । इन्होंने अपने दान तो दिए लेकिन दान का कोई मोल नहीं लिया । अतः हजारों – हजारों और लाखों वर्ष बाद भी इतिहास में उनके नाम सम्मान से लिए जाते हैं।
ऐसे ही लोगों का जन्म सफल होता है इसलिए हमको दान करना चाहिए। यदि हम यह जान लेते हैं कि ईश्वर की संतान हम सभी हैं तो हम सभी भाई भाई हैं ,अर्थात हमारे अंदर बंधुत्व की भावना जागृत होती है । उसी भावना से प्रेरित होकर मनुष्य दान करता है। यथासंभव दूसरों की सहायता करता है ।
वेद में कहा गया है – ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर: अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है। ‘दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते , ‘न स सखा यो न ददाति सख्ये , पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि, शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई दुरुपयोग न हो सके।
प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण हैं । न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है।
जिसका अंतःकरण शुद्ध होता है वही दान कर सकता है। विद्यादान, कन्यादान, श्रमदान, रक्तदान, धन-दान आदि बहुत से प्रकार के समाज में दान हैं। अतः दान का अपने-अपने स्थान पर अलग-अलग महत्व है। कर्ण को मालूम था कि कवच और कुंडल दान में देने के पश्चात उसके जीवन की क्षति हो सकती है लेकिन उसने उसके बावजूद भी दान लेने वाले को निराश नहीं किया।
सच्चरित्रता
मानव को सच्चरित्र होना चाहिए , क्योंकि मानव के जीवन में सच्चरित्र होना बहुत ही आवश्यक है । चरित्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। चरित्र के बिना सभी प्रकार के गुण अधूरे हैं। यदि मनुष्य के पास केवल चरित्र अच्छा है अर्थात वह सच्चरित्र है तो उसके पास सब कुछ है ।यदि एक भी दोष है तो उससे सारे चरित्र के गुण नष्ट हो जाते हैं , इसलिए सच्चरित्र होना बहुत आवश्यक है। चरित्र एक शब्द नहीं बल्कि चरित्र मनुष्य के सारे गुणों को मिलाने के पश्चात बनता है ।
चरित्र बहुआयामी है अर्थात सारे गुणों को मिलाकर व्यक्ति का जो व्यवहार ,आचरण बनता है , उसी को चरित्र कहते हैं। चरित्र का संरक्षण प्रत्येक मनुष्य को उन्नति प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।
सच्चरित्र व्यक्ति ही ज्ञान की श्रेष्ठता प्राप्त कर उन्नति को प्राप्त करते हैं। यदि संपूर्ण मानव जाति सच्चरित्र के मूल मंत्र को धारण कर ले तो यही पृथ्वी स्वर्ग हो जाएगी।
सच्चरित्र मनुष्य रचनापरक धर्म के स्वरूप को, दान के महत्व को, सुख-दुख को, कर्म और उसके फल को, गुरु को, आस्था के आयाम को, जीवन के वास्तविक आनंद को, शिष्टाचार को, आध्यात्मिक प्रगति को, आत्मबल और आत्मविश्वास को, स्वाभिमानी होने के गुणों को जानता है । सच्चरित्र मनुष्य कभी निराश नहीं होता क्योंकि उसके पास सभी बड़ों का आशीर्वाद होता है।
चरित्र धन से अधिक महत्वपूर्ण है। सब कुछ खो जाए और चरित्र हो तो आपके पास फिर भी बहुत कुछ बचा है । क्योंकि धन खोने से कुछ नहीं खोया था। इसलिए उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धान होता है। चरित्र को सुधारना मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए।
चरित्र ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। भारतीय संस्कृति ‘सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय’ ‘वसुधैव कुटुंबकम” की भावना का विकास करती है। मैथिलीशरण गुप्त ने एक कविता में बहुत ही अच्छी पंक्तियां लिखी हैं —
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे ।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
चरित्रवान व्यक्ति में मानवीय गुणों का विकास होता है।
मनुस्मृति में वर्णित है, कि सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किन्तु केवल गायित्री मंत्र का ज्ञाता पंडित भी यदि वह चरित्रवान है, तो श्रेष्ठ कहलाने योग्य है। इसका अभिप्राय है कि सच्चरित्रता व्यक्ति को क्रियात्मक ज्ञान की ओर लेकर चलती है । यदि व्यक्ति ने वेदों का अध्ययन तो कर लिया परंतु उसे अपने आचरण में अंगीकार नहीं किया तो इससे मनुष्य का चरित्र उज्जवल नहीं होता । चरित्र की उज्जवलता के लिए आवश्यक है कि वह वेदों के ज्ञान को अपने जीवन व्यवहार में उतार ले , अपना ले ।सत्कर्मों से ही चरित्र का निर्माण संभव है। शिक्षा के द्वारा मनुष्य जो ज्ञान तथा शक्ति प्राप्त करता है, उससे उसमें नैतिक गुणों का उदय होता है तथा सन्मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा उसे प्राप्त होती है। शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति अपनी तामसी तथा पाशविक प्रवृति पर नियंत्रण रखता है। उसमें अच्छे तथा बुरे के विभेद करने की बुद्धि जागृत होती है। वह बुरे कार्यों को त्याग कर अपने को सत्कर्मों में प्रवृत्त करता है।
प्राचीन शिक्षा पद्धति को विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लक्ष्य में पूरा करने में सफलता मिली। हमारे देश के शिक्षार्थियों को देखकर विदेशों के अनेकों शिक्षार्थी भारतवर्ष में शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे । अकेले तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही हजारों विदेशी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण के लिए आते थे। ये सारे के सारे विद्यार्थी भारत से केवल किताबी ज्ञान लेने के लिए नहीं बल्कि चरित्र का ज्ञान लूटने के लिए आते थे । इसके द्वारा शिक्षित विद्यार्थी कालांतर में चरित्रवान एवं आदर्श नागरिक बनते थे। भारत की यात्रा पर आने वाले विदेशी यात्रियों- मेगस्थनीज, ह्वेनसांग सभी ने यहाँ के लोगों के नैतिक चरित्र के समुन्नत होने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं।
स्वाभिमान व अभिमान
स्वाभिमान व अभिमान दोनों का उच्चारण एक समान प्रतीत होता है और ऐसा भी प्रतीत होता है ईशा दोनों का अर्थ भी समान है परंतु ऐसा नहीं है। क्योंकि स्वाभिमान में आत्म गौरव तथा आत्म सम्मान होता है।आ आत्म गौरव और आत्मसम्मान मनुष्य को उन्नति करने के लिए सन्मार्ग पर चलने के लिए जागृत करता है प्रेरित करता है जबकि अभिमान अधोगति की तरफ ले जाता है इसका तात्पर्य हुआ कि स्वाभिमान में उन्नति है और अभिमान में अवनति है। स्वाभिमान में विवेक है , सेवा है , समर्पण है । अभिमान में न तो सेवा है , ना समर्पण है और बुद्धि का प्रयोग तो बिल्कुल भी नहीं बल्कि बिल्कुल विपरीत है कि अभिमान से बुद्धि का ह्रास होता है।
स्वाभिमानी के लिए समाज सहयोगी हो जाता है और अभिमानी के लिए समाज हथियार उठा लेता है।
चित्तौड़गढ़ के किले में जब मैं परिवार सहित पहुंचा तो मैंने वहां पर एक स्थान की जानकारी प्राप्त की कि राजपूत रानियां किस स्थान पर जौहर को प्राप्त कर हुईं थीं ? तब मुझे वह स्थान दिखाया गया । मैंने वहां नतमस्तक होकर उन वीरांगनाओं के लिए परमात्मा से प्रार्थना की कि इन वीरांगनाओं ने जिस प्रकार अपने जीवन की कुर्बानी दी वह स्वाभिमान के लिए दी , देश की निजता और देश की आन – बान – शान के लिए अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान दिया , उसमें अभिमान नहीं था।
युधिष्ठिर में स्वाभिमान था लेकिन दुर्योधन में अभिमान था । अतः दुर्योधन का पतन हुआ युधिष्ठिर की विजय हुई अर्थात स्वाभिमान के साथ धर्म और धर्म के साथ विजय खड़ी है। अभिमान में अहम है, मिथ्या ज्ञान, घमंड अपने आपको सबसे बड़ा ताकतवर मानना, झूठा होना आदि दुर्गुण हैं। स्वाभिमानी कभी अपने नियम से और निश्चय से विचलित नहीं होते।
जबकि अभिमानी प्रतिक्षण नए पैंतरे बदलता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।