ओ३म्
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मनुष्य व सभी प्राणी इस मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं। शैशवावस्था से बाल, किशोर, युवा, सम्पूर्ति तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होकर वह मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने अनेक विषयों पर अनेक गम्भीर प्रश्नों का समाधान किया है। जीवन के सम्बन्ध में विज्ञान ने कोई विशेष खोज नहीं की। उसे नहीं पता कि जीवात्मा क्या है? चेतन व अचेतन का भेद क्या है? वह संसार के अनादि, नित्य, अविनाशी पदार्थों के विषय में भी नहीं जानता। इसके विपरीत वेदों में सृष्टि के आरम्भ काल में ही ईश्वर ने मनुष्यों को इन विषयों का निश्चयात्मक व विश्वसीय ज्ञान दिया था। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के स्वरूप का वर्णन होने के साथ आत्मा के जन्म-मरणधर्मा होने, कर्म बन्धनों में फंसा होने, उसके जन्म का आधार पूर्वजन्मों के कर्म होने आदि के विषय में विस्तार से बताया गया है जो तर्क व युक्ति से भी सत्य सिद्ध होता है। वेद एवं पुनर्जन्म विषयक वैदिक सिद्धान्तों का प्रभाव विद्वजनों के मन मस्तिक पर ऐसा है कि वह आज भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार कर इसके अनुकूल जीवनचर्या अपना कर वेदों के नियमों का पालन करते हैं। मनुष्य का वर्तमान जन्म प्रथम व अन्तिम है अथवा एक ही जीवात्मा के अनेक जन्म होते हैं, इस प्रश्न पर वेदों के अपूर्व विद्वान ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास में एक प्रश्न किया है कि जन्म एक होता है व अनेक? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने बताया है कि अनेक जन्म होते हैं। यदि मनुष्य वा उसकी आत्मा के अनेक जन्म होते हैं तो इस पर प्रतिप्रश्न किया गया है कि यदि अनेक जन्म होते हैं तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का मनुष्य वा उसकी आत्मा को स्मरण क्यों नहीं होता? इस प्रश्न का ऋषि दयानन्द जी ने विस्तार से समाधान किया है।
वह लिखते हैं कि जीव अल्पज्ञ होता है। जीव त्रिकालदर्शी नहीं है। इसलिये जीव को पूर्वजन्म की बातों का स्मरण नहीं होता। मनुष्य के मन के बारे में वह बताते हैं कि मन से भूतकाल की बातों का ज्ञान होता है। मन का स्वभाव ऐसा है कि वह एक समय में एक ही बात का ज्ञान कराता है दो बातों का नहीं। इस प्रसंग में वह कहते हैं कि जीवात्मा के पूर्व जन्म की बात तो रहने दीजिये, इसी देह में जब जीव गर्भ में था, उसका शरीर बना, उसके पश्चात उसका जन्म हुआ, जन्म के बाद पांच वर्ष तक जो-जो बातें हुईं, उन बातों का स्मरण वह जीव व मनुष्य क्यों नहीं कर सकता? पूर्वजन्म पर शंका करने वालों से वह पूछते हैं कि जब मनुष्य जागृत व स्वप्न अवस्थाओं में बहुत सा व्यवहार प्रत्यक्ष में करके इसके बाद निद्रा व सुषुप्ति अवस्था जिसे गाढ़ निद्रा कहते हैं, वह अवस्था होती है, तब जागृत अवस्था के व्यवहारों का स्मरण क्यों नहीं कर सकता? वह आगे लिखते हैं कि यदि किसी से कोई पूछे कि उस व्यक्ति ने बारह वर्ष की अवस्था पूरी होने पर तेरहवें वर्ष के पांचवें महीने के नवमे दिन दस बजे पर तुमने क्या किया था? तुम्हारा, मुख, आंख, कान, नेत्र, शरीर किस ओर किस प्रकार का था और उस समय मन में क्या विचार था? इसका कोई मनुष्य ठीक उत्तर नहीं दे सकता। जब सभी मनुष्यों के शरीर में यही स्थिति है तो पूर्व जन्म की बातों के स्मरण में शंका करनी केवल बालकपन या मूर्खों जैसी बातें हैं। इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि हमें इस जन्म की ही बहुत सी बातों का स्मरण नहीं है तो पूर्वजन्म की बातों का स्मरण होने के कारण पूर्वजन्म को स्वीकार न करना उचित नहीं है।
ऋषि दयानन्द ने पूर्वजन्म को अनेक तर्कों व प्रमाणों से स्पष्ट किया है। वह पूछते हैं कि तुम जन्म से लेकर समय-समय में राज, धन, बुद्धि, विद्या, दारिद्रय, निर्बुद्धि, मूर्खता आदि सुख-दुःख आदि संसार में देखकर पूर्वजन्म का ज्ञान क्यों नहीं करते? जैसे एक अवैद्य और एक वैद्य को कोई रोग हो उस रोग का निदान अर्थात् कारण वैद्य जान लेता है और अविद्वान नहीं जान सकता। उस वैद्य ने वैद्यक विद्या पढ़ी है और दूसरे ने नहीं। परन्तु ज्वरादि रोग होने से अवैद्य भी इतना जान सकता है कि उससे कोई कुपथ्य हो गया है जिस से उसे यह रोग हुआ है। वैसे ही जगत् में विचित्र सुख दुःख आदि की घटती बढ़ती देख के पूर्वजन्म का अनुमान क्यों नहीं जान लेते? वह कहते हंै कि विचित्र सुख व दुःखों का कारण जो पूर्वजन्म को न मानोगे तो इससे परमेश्वर पक्षपाती हो जाता है क्योंकि विना पाप के दारिद्रयादि दुःख और विना पूर्वसंचित पुण्य के राज्य धाढ्यता और निर्बुद्धिता उसने मनुष्यों को क्यों दी? और पूर्वजन्म के पाप पुण्य के अनुसार दुःख सुख के देने से परमेश्वर न्यायकारी यथावत् रहता है। ऋषि दयानन्द के इस लेख से जीवात्मा का पूर्वजन्म सिद्ध होता है।
ईश्वर की न्याय व्यवस्था की चर्चा करते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं कि परमात्मा सभी जीवों के प्रति न्याय चाहता है। वह किसी के प्रति अन्याय कभी नहीं करता। इसीलिए वह सबके द्वारा पूजनीय और बड़ा है। यदि परमात्मा किसी एक जीव के साथ भी न्याय विरुद्ध आचरण करें तो वह ईश्वर नहीं कहला सकता। जिस प्रकार किसी उपवन का माली युक्ति के विना मार्ग वा अस्थान में वृक्ष लगाने, न काटने योग्य को काटने, अयोग्य को बढ़ाने, योग्य को न बढ़ाने से दूषित होता है इसी प्रकार विना कारण के असंगत कार्य करने से ईश्वर को दोष लगते हैं। परमेश्वर पर सभी काम न्याय की रीति से करना आवश्यक है। ऐसा इसलिए कि वह स्वभाव से पवित्र एवं न्यायकारी है। यदि परमात्मा उन्मत्त के समान काम करे तो जगत् के श्रेष्ठ न्यायाधीश से भी न्यून और अप्रतिष्ठित होवे। वह पूछते हैं कि क्या इस जगत में विना योग्यता के उत्तम काम करने पर प्रतिष्ठा और दुष्ट काम किये विना दण्ड देने वाला निन्दनीय अप्रतिष्ठित नहीं होता? इसलिए ईश्वर किसी जीव के साथ अन्याय नहीं करता। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईश्वर जीवों को सुख व दुःख, प्रतिष्ठा व दण्ड अपनी इच्छा से नहीं अपितु जीवों के पूर्व किये हुए कर्मों के आधार पर ही देता है। इस कारण अनादि व नित्य जीवात्मा को जन्म व सुख दुःख का मिलना उसके पूर्व जन्मों के पाप व पुण्य कर्मों के आधार पर स्वीकार करना ही उचित व न्यायसंगत है।
ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में पूर्वजन्म व पुनर्जन्म के कुछ उदाहरण देकर भी पुनर्जन्म को सिद्ध किया है। एक उदाहरण देते हुए वह कहते हैं देखो! एक जीव विद्वान्, पुण्यात्मा, श्रीमान् राजा की राणी के गर्भ में आता और दूसरा जीव महादरिद्र घसियारी के गर्भ में आता है। एक को गर्भ में आने से लेकर जन्म होने तक सर्वथा सुख और दूसरे को सब प्रकार दुःख मिलता है। एक जब जन्मता है तब सुन्दर सुगन्धितयुक्त जलादि से स्नान, यक्ति से नाड़ी छेदन, दुग्धपानादि यथायोग्य प्राप्त होते हैं। जब वह दूध पीना चाहता है तो उसे मिश्री आदि के साथ मिला कर यथेष्ट दूध मिलता है। उसको प्रसन्न रखने के लिये नौकर चाकर, खिलौना, सवारी, उत्तम स्थानों में भ्रमण आदि से आनन्द होता है। दूसरे जीव का जन्म जंगल में होता, स्नान के लिये जल भी नहीं मिलता, जब दूध पीना चाहता तब दूध के बदले मे घंूसे व थपेड़ो आदि से पीटा जाता है। वह अत्यन्त आर्तस्वर से रोता है। उसे कोई नहीं पूछता व पुचकारता इत्यादि। यदि इन दोनों जीवों के पूर्वजन्म के पाप पुण्य नहीं मानेंगे तो बिना पुण्य-पाप के सुख दुःख होने से परमेश्वर पर दोष आता है। इस उदाहरण में ऋषि दयानन्द ने बताया है कि दो बच्चों के जन्म, उनकी परिस्थितियों व उनके सुख-दुःख में अन्तर है, इसका कारण उनके पूर्वजन्म के पाप व पुण्य को नहीं मानेंगे तो इससे ईश्वर में मनमानी व पक्षपात का दोष आयेगा। ईश्वर सभी दोषों से रहित है। वह दयालु, पवित्र, पक्षपात रहित तथा न्यायकारी है। अतः जीवों के जन्म की भिन्न-भिन्न स्थितियां जन्म लेनी वाली आत्माओं के पूर्व किये हुए पाप व पुण्य के कारण से ही होती हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में कुछ अन्य उदाहरण भी दिये हैं और उनके निष्कर्ष के आधार पर कहा है कि इसलिये पूर्व जन्म के पुण्य व पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्वजन्म के कर्मानुसार भविष्य के जन्म होते हैं।
ऋषि दयानन्द ने एक अन्य प्रश्न का समाधान भी किया है। प्रश्न है कि क्या मनुष्य व पशु आदि प्राणियों में जीव समान व एक जैसे हैं व अलग अलग हैं? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि सब प्राणियों में जीव एक से हैं परन्तु पाप पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं। वह यह भी बताते हैं कि मनुष्य का जीव पशु आदि के शरीर में तथा पश्वादि का मनुष्य के शरीर में और स्त्री का पुरुष तथा पुरुष का स्त्री के शरीर में आता जाता है। वह कहते हैं कि जब जीव पाप अधिक व पुण्य न्यून करता है तब उस मनुष्य का जीव पशु आदि नीच शरीरों और जब जो मनुष्य धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून करता है तब उसे देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है। जब पुण्य व पाप बराबर होते हंै तब साधारण मनुष्य का जन्म होता वा मिलता है। इसमें भी पुण्य व पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्री वाले प्राणी होते हैं। जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग लिया होता है तब पुनः पाप पुण्य के तुल्य रहने से पुनः मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है। ऋषि दयानन्द ने सन् 1875 में पूना में अनेक प्रवचन दिये थे। इनमें एक उपदेश जीवात्मा के जन्म होने के विषय पर भी है। इसमें भी पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को अनेक नई सार्थक एवं अकाट्य युक्तियों से सिद्ध किया गया है।
ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति, यह तीन सत्तायें, अनादि, नित्य तथा अविनाशी हैं। ईश्वर अपने स्वभाव से जीवों के पाप-पुण्यों का फल देने के लिये यथासयम प्रकृति से सृष्टि की रचना एवं पालन तथा प्रलय करते रहते हैं। इस कारण असंख्य सभी जीवों का उनके कर्मानुसार सुख व दुःख भोग के लिये सृष्टिकाल में जन्म-मरण होता रहता है। यह कर्म अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। आत्मा जन्म व मरण धर्मा है। इसका जन्म हुआ, अतः मृत्यु अवश्यम्भावी है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी सुनिश्चित है। यह वैदिक ईश्वरीय सिद्धान्त व व्यवस्था है। सबको इस पर विश्वास करना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य