श्री कृष्ण जी का वास्तविक स्वरूप
डॉ विवेक आर्य
कृष्ण जी को अपमानित करने वाले भजन
1-छलिया का वेश बनाया, श्याम चूड़ी बेचने आया।
2- पत्थर की राधा प्यारी, पत्थर के श्याम बिहारी
पत्थर से पत्थर टकराकर पैदा होती चिंगारी।
3- एक दिन वो भोले भण्डारी बन के बृज नारी गोकुल मे आ गए है।
इसी तरह के अनेक भजन हैं जो हमारे आदर्शों को अपमानित करते हैं। इस लेख के माध्यम से हम व्यासपीठ के मठाधीशों द्वारा श्री कृष्णजी के विषय में फैलाई जा रही भ्रांतियों का निराकरण करेंगे।
प्रसिद्ध समाज सुधारक एवं वेदों के प्रकांड पंडित स्वामी दयानंद जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी महाराज के बारे में लिखते हैं कि पूरे महाभारत में श्री कृष्ण के चरित्र में कोई दोष नहीं मिलता एवं उन्हें आप्त (श्रेष्ठ) पुरुष कहा है। स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी को महान् विद्वान् सदाचारी, कुशल राजनीतीज्ञ एवं सर्वथा निष्कलंक मानते हैं,
महाभारत मे श्रीकृष्ण —
1-धर्म और न्याय के पक्षधर:-पाण्डव धर्म परायण थे इसलिए उन्होंने उनका साथ दिया और उनकी जीत करवाई।कौरव सभा में भी श्रीकृष्ण ने यही बात कही-
यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः ।।-(उद्योग० ९५/४८)
जहाँ सभासदों के देखते-देखते अधर्म के द्वारा धर्म का और असत्य द्वारा सत्य का हनन होता है,वहां वे सभासद नष्ट हुए जाने जाते हैं।
2- दृढ़प्रतिज्ञ:-
श्रीकृष्ण दृढ़प्रतिज्ञ थे।उन्होंने दुर्योधन की सभा में जाने से पहले द्रौपदी के सम्मुख जो प्रतिज्ञा की थी उसे निभाया।जब द्रौपदी ने रोकर और बायें हाथ में अपने केशों को लेकर अपने अपमान का बदला लेने की बात कही तब श्रीकृष्ण बोले-
चलेद्धि हिमवाञ्छैलो मेदिनी शतधा भवेत् ।
द्यौः पतेच्च सनक्षत्रा न मे मोघं वचो भवेत् ।।-(उद्योगपर्व ८२/४८)
अर्थ:-चाहे हिमालय पर्वत अपने स्थान से टल जाए,पृथिवी के सैकड़ों टुकड़े हो जाएँ और नक्षत्रोंसहित आकाश टूट पड़े,परन्तु मेरी बात असत्य नहीं हो सकती।
इससे पूर्व उन्होंने यह प्रतिज्ञा की थी-
धार्तराष्ट्राः कालपक्वा न चेच्छृण्वन्ति मे वचः ।
शेष्यन्ते निहिता भूमौ श्वश्रृगालादनीकृताः ।।-(उद्योग० ८२/४७)
अर्थ:-यदि काल के गाल में जाने वाले धृतराष्ट्र-पुत्र मेरी बात नहीं सुनेंगे तो वए सब मारे जाकर पृथिवी पर सदा की नींद सो जाएँगे और कुत्तों तथा स्यारों का भोजन बनेंगे।
3-सहनशीलता:-
उनमें सहनशीलता का गुण भी था।वे राजसूय यज्ञ में शिशुपाल से कहने लगे कि मैं तुम्हारी सौ गालियाँ सहन कर लूँगा परन्तु इससे आगे जब तुम बढ़ोगे तो तुम्हारा सिर धड़ से पृथक कर दूंगा।उन्होंने ऐसा ही किया।
एवमुक्त्वा यदुश्रेष्ठश्चेदिराजस्य तत्क्षणात् ।
व्यापहरच्छिरः क्रुद्धश्चक्रेणामित्रकर्षणः ।।-(सभापर्व ४५/२५)
अर्थ:-ऐसा कहकर कुपित हुए शत्रुनाशक यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण ने चक्र से उसी क्षण चेदिराज शिशुपाल का सिर उड़ा दिया।
4-निर्लोभता:-
उन्होंने कंस को मारा,परन्तु उसका राज्य अपने हाथ में नहीं लिया।अपने नाना उग्रसेन को राजा बनाय।
उग्रसेनः कृतो राजा भोजराज्यस्य वर्द्धनः ।-(उद्योग १२८/३९)
जब जरासन्ध को मार दिया तब श्रीकृष्ण ने उसके बेटे सहदेव का राज्याभिषेक किया।
5-ईश्वरोपासक:-
श्रीकृष्ण ईश्वरोपासक थे।ले नित्य-प्रति सन्ध्या,हवन और गायत्री जाप करते थे-
अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।
रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।-(महा० उद्योग० ८४/२१)
अर्थ:-जब सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही रथ से उतरकर रथ खोलने का आदेश दिया और पवित्र होकर सन्ध्योपासना में लग गये।
6- महाभारतकाल के सर्वमान्य महापुरुष:-
श्रीकृष्ण महाभारत काल के सर्वमान्य महापुरुष थे।राजसूययज्ञ के अवसर पर भीष्म पितामह ने प्रधान अर्घ्य देते हुए उनके विषय में यह कहा था:-
वेदवेदांगविज्ञानं बलं चाभ्यधिकं तथा ।
नृणांलोकेहि कोsन्योsस्ति विशिष्टः केशवादृते ।।
दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं ह्रीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमा ।
सन्नतिः श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताच्युते ।।-(महा० सभापर्व ३८/१९/२०)
अर्थ:-वेदवेदांग के ज्ञाता तो हैं ही,बल में भी सबसे अधिक हैं।श्रीकृष्ण के सिवा इस युग के संसार में मनुष्यों में दूसरा कौन है? दान,दक्षता,शास्त्र-ज्ञान,शौर्य,आत्मलज्जा,कीर्ति,उत्तम बुद्धि,विनय,श्री,धृति,तुष्टि,और पुष्टि -ये सभी गुण श्रीकृष्ण में विद्यमान हैं।
7-जुए के विरोधी:-
वे जुए के घोर विरोधी थे।जुए को एक बहुत ही बुरा व्यसन मानते थे।जब वे काम्यक वन में युधिष्ठिर से मिले तो उन्होनें युधिष्ठिर को कहा-
आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतोsपि कौरवैः ।
वारयेयमहं द्यूतं दोषान् प्रदर्शयन् ।।-(वनपर्व १३/१-२)
अर्थ:-हे राजन् ! यदि मैं पहले द्वारका में या उसके निकट होता तो आप इस भारी संकट में न पड़ते।मैं कौरवों के बिना बुलाये ही उस द्यूत-सभा में जाता और जुए के अनेक दोष दिखाकर उसे रोकने की पूरी चेष्टा करता।
8-एक पत्नि व्रत:-
महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व अश्वत्थामा श्रीकृष्ण से सुदर्शनचक्र प्राप्त करने की इच्छा से उनके पास गये,तब श्रीकृष्ण ने कहा –
ब्रह्मचर्यं महद् घोरं तीर्त्त्वा द्वादशवार्षिकम् ।
हिमवत्पार्श्वमास्थाय यो मया तपसार्जितः ।।
समानव्रतचारिण्यां रुक्मिण्यां योsन्वजायत ।
सनत्कुमारस्तेजस्वी प्रद्युम्नो नाम में सुतः ।।-(सौप्तिकपर्व १२/३०,३१)
अर्थ:-मैंने १२ वर्ष तक रुक्मिणी के साथ हिमालय में ठहरकर महान् घोर ब्रह्मचर्य का पालन करके सनत्कुमार के समान तेजस्वी प्रद्युम्न नाम के पुत्र को प्राप्त किया था।विवाह के पश्चात् १२ वर्ष तक घोर ब्रह्मचर्य को धारण करना उनके संयम का महान् उदाहरण है।
ऐसे संयमी और जितेन्द्रिय पुरुष को पुराणकारों ने कितना बीभत्स और घृणास्पद बना दिया है।
फिर श्री कृष्ण जी के विषय में चोर, गोपिओं का जार (रमण करने वाला), कुब्जा से सम्भोग करने वाला, रणछोड़ आदि प्रसिद्ध करना उनका अपमान नहीं तो क्या है? श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का आधार क्या है? इन गंदे आरोपों का आधार है पुराण। आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं।
पुराण में गोपियों से कृष्ण का रमण करने का मिथ्या वर्णन
विष्णु पुराण अंश 5 अध्याय 13 श्लोक 59-60 में लिखा है-
वे गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी। कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे।
कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
भागवत पुराण स्कन्द 10 अध्याय 33 शलोक 17 में लिखा है-
कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे। जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता है वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीड़ा ‘विषय भोग’ किया।
भागवत पुराण स्कन्द 10 अध्याय 29 शलोक 45-46 में लिखा है-
कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया। वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था। वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी छोटी पकरना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन पकड़ना, मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय भोग) किया।
ऐसे अभद्र विचार कृष्णा जी महाराज को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द 10 के अध्याय 29,33 में वर्णित किये हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए मैं वर्णन नहीं कर रहा हूँ।
राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन
राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता है। महाभारत में राधा का वर्णन तक नहीं मिलता। राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यंत अशोभनिय वृतांत का वर्णन करते हुए मिलता है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय 3 श्लोक 59-62 में लिखा है कि गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता है – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया है। तू मेरे घर से चला जा। तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट है, तुझे मनुष्यों की योनी मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा। हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावती, हे माधवों! यह कृष्ण धूर्त है इसे निकल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय 15 में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यंत अश्लील वर्णन लिखा है जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए मैं यहाँ विस्तार से वर्णन नहीं कर रहा हूँ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय 72 में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यंत अश्लील रूप में वर्णित है।
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक है। राधा कृष्ण के बामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी अथवा रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यसोधा का भाई था इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई।
कृष्ण की गोपिओं कौन थी?
पद्मपुराण उत्तर खंड अध्याय 245 कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा है कि रामचंद्र जी दंडक-अरण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे। उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अंत में गोपियों के रूप में जन्म लिया और रामचंद्र जी कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया। इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई। वरना अन्य प्रकार से उनकी संसार रुपी भवसागर से मुक्ति कभी न होती।
क्या गोपियों की उत्पत्ति का उपरोक्त दृष्टान्त बुद्धि से स्वीकार किया जा सकता है?
श्री कृष्ण जी महाराज का वास्तविक रूप
अभी तक हम पुराणों में वर्णित गोपियों के दुलारे, राधा के पति, रासलीला रचाने वाले कृष्ण के विषय में पढ़ रहे थे जो निश्चित रूप से असत्य है।
अब हम योगिराज, नीतिनिपुण , महान कूटनीतिज्ञ श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में उनके सत्य रूप को जानेंगे।
आनंदमठ एवं वन्दे मातरम के रचियता बंकिम चन्द्र चटर्जी जिन्होंने 36 वर्ष तक महाभारत पर अनुसन्धान कर श्री कृष्ण जी महाराज पर उत्तम ग्रन्थ लिखा ने कहाँ हैं कि महाभारत के अनुसार श्री कृष्ण जी की केवल एक ही पत्नी थी जो कि रुक्मणी थी। उनकी 2 या 3 या 16000 पत्नियाँ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। रुक्मणी से विवाह के पश्चात श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ बदरिक आश्रम चले गए और 12 वर्ष तक तप एवं ब्रहमचर्य का पालन करने के पश्चात उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम प्रदुमन था. यह श्री कृष्ण के चरित्र के साथ अन्याय हैं की उनका नाम 16000 गोपियों के साथ जोड़ा जाता है। महाभारत के श्री कृष्ण जैसा अलौकिक पुरुष , जिसे कोई पाप नहीं किया और जिस जैसा इस पूरी पृथ्वी पर कभी-कभी जन्म लेता है। स्वामी दयानद जी सत्यार्थ प्रकाश में वहीँ कथन लिखते है जैसा बंकिम चन्द्र चटर्जी ने कहा है। पांडवों द्वारा जब राजसूय यज्ञ किया गया तो श्री कृष्ण जी महाराज को यज्ञ का सर्वप्रथम अर्घ प्रदान करने के लिए सबसे ज्यादा उपर्युक्त समझा गया जबकि वहां पर अनेक ऋषि मुनि , साधू महात्मा आदि उपस्थित थे। वहीँ श्री कृष्ण जी महाराज की श्रेष्ठता समझे की उन्होंने सभी आगंतुक अतिथियो के धुल भरे पैर धोने का कार्य भार लिया। श्री कृष्ण जी महाराज को सबसे बड़ा कूटनितिज्ञ भी इसीलिए कहा जाता है क्यूंकि उन्होंने बिना हथियार उठाये न केवल दुष्ट कौरव सेना का नाश कर दिया बल्कि धर्म की राह पर चल रहे पांडवो को विजय भी दिलवाई।
ऐसे महान व्यक्तित्व पर चोर, लम्पट, रणछोर, व्यभिचारी, चरित्रहीन , कुब्जा से समागम करने वाला आदि कहना अन्याय नहीं तो और क्या है और इस सभी मिथ्या बातों का श्रेय पुराणों को जाता है।
इसलिए महान कृष्ण जी महाराज पर कोई व्यर्थ का आक्षेप न लगाये एवं साधारण जनों को श्री कृष्ण जी महाराज के असली व्यक्तित्व को प्रस्तुत करने के लिए पुराणों का बहिष्कार आवश्यक है और वेदों का प्रचार अति आवश्यक है।
और फिर भी अगर कोई न माने तो उन पर यह लोकोक्ति लागु होती हैं-
जब उल्लू को दिन में न दिखे तो उसमें सूर्य का क्या दोष है?
प्रोफैसर उत्तम चन्द शरर जन्माष्टमि पर सुनाया करते थे
: तुम और हम हम कहते हैं आदर्श था इन्सान था मोहन |
…तुम कहते हो अवतार था, भगवान था मोहन ||
हम कहते हैं कि कृष्ण था पैगम्बरो हादी |
तुम कहते हो कपड़ों के चुराने का था आदि ||
हम कहते हैं जां योग पे शैदाई थी उसकी |
तुम कहते हो कुब्जा से शनासाई थी उसकी ||
हम कहते है सत्यधर्मी था गीता का रचैया |
तुम साफ सुनाते हो कि चोर था कन्हैया ||
हम रास रचाने में खुदायी ही न समझे |
तुम रास रचाने में बुराई ही न समझे ||
इन्साफ से कहना कि वह इन्सान है अच्छा |
या पाप में डूबा हुआ भगवान है अच्छा ||