Categories
धर्म-अध्यात्म

वैदिक सिद्धांतों का पालन ही आदर्श मानव जीवन का पर्याय है

संसार में अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं। जो मनुष्य जिस मत व सम्प्रदाय का अनुयायी होता है वह अपने मत, सम्प्रदाय व उसके आद्य आचार्य के जीवन की प्रेरणा से अपने जीवन को बनाता व उनके अनुसार व्यवहार करता है। महर्षि दयानन्द सभी मत व सम्प्रदायों के आचार्यों से सर्वथा भिन्न थे और उनकी शिक्षायें भी मत-पंथ-सम्प्रदायों की शिक्षाओं से सर्वथा भिन्न थीं। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन का आदर्श ईश्वरीय ज्ञान वेद की शिक्षाओं वा सिद्धान्तों को बनाया था तथा उनका अपने जीवन में पूरा-पूरा पालन किया था। यदि किसी मनुष्य को आदर्श जीवन व्यतीत करना हो तो उसे ऋषि दयानन्द का जीवन चरित पढ़ना चाहिये और उसके अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहिये। ऐसा करने से निश्चय ही उस मनुष्य का कल्याण होगा। उसका यह जन्म तथा परजन्म सुधरेंगे तथा उन्नति को प्राप्त होंगे। महर्षि दयानन्द संसार के ज्ञात इतिहास में ऐसे एकमात्र पुरुष थे जिन्होंने परम्परागत मत को स्वीकार न कर सत्य की खोज की और सत्य की कसौटी पर सर्वथा खरे पाये जाने पर वेद व उनके सिद्धान्तों को अपनाया था। उन्होंने वेद के प्रत्येक सिद्धान्त की अपनी ज्ञान-विज्ञान, सदाचार व सद्ग्रन्थों के अध्ययन से युक्त शुद्ध व विवेक बुद्धि से समीक्षा व परीक्षा की थी। वेद के सभी सिद्धान्त सत्य की कसौटी पर सत्य सिद्ध हुए थे। वेदों के निर्दोष सत्य ज्ञान से युक्त ग्रन्थ पाये जाने पर ही उन्होंने वेदों को स्वयं अपनाया था और उसका देश भर में घूम कर प्रचार भी किया था। उनकी भावना थी कि इससे मनुष्य का कल्याण होकर देश व समाज सभी प्रकार के दुरित विचारों व क्रियाकलापों से मुक्त होकर उन्नति व सफलताओं को प्राप्त कर सकेंगे।

वेदों की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तो यह सृष्टि का सबसे पुराना वा आदि ग्रन्थ सिद्ध होता है। सृष्टि की आदि में मनुष्यों को ज्ञान की प्राप्ति सर्वज्ञ ईश्वर से ही होती है। मनुष्य को मनुष्य शरीर व इसकी ज्ञान ग्रहण करने वाली सभी इन्द्रियां ईश्वर से ही प्राप्त होती हैं। अतः सभी इन्द्रियों के विषय व ज्ञान परमात्मा ही उत्पन्न करता व प्राप्त कराता है। मनुष्यों को वाणी भी ईश्वर ही प्रदान करता है। संसार में भी माता-पिता अपनी सन्तानों को भाषा एवं आवश्यक ज्ञान, जो वह जानते हैं, प्रदान करते हैं। सभी प्राणियों का स्वामी, माता-पिता व आचार्य परमात्मा होता है। उसका कर्तव्य होता है कि वह आदि सृष्टि में जीवों के कल्याण के लिये उन्हें ज्ञान व व्यवहार की शिक्षा दे। ज्ञान के साथ भाषा सन्निहित होती है। बिना भाषा के ज्ञान का अस्तित्व नहीं होता। ज्ञान देने के लिये भाषा का दिया जाना आवश्यक होता है। संस्कृत न केवल वेदों की भाषा है अपितु यह सृष्टि के आदि काल से महाभारत युद्ध तक के 1.96 अरब वर्षों तथा इसके बाद कुछ शताब्दियों बाद तक भी विश्व की एकमात्र एकमात्र व प्रमुख भाषा थी। वेदों में जो ज्ञान प्राप्त होता है वह मनुष्यों के हित व कल्याण की दृष्टि से सर्वोत्तम होता है। वेद ईश्वर व आत्मा सहित सृष्टि का सत्य ज्ञान प्राप्त कराते हैं। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का यथार्थ ज्ञान वेदों से प्राप्त होता है। ईश्वर कैसा है तथा उसका स्वरूप क्या है, इसका उल्लेख वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में किया है। उन्होंने बताया है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। (सब मनुष्यों को) उसी की उपासना करनी योग्य है। ईश्वर जीवों को उनके पूर्वजन्म के कर्मानुसार जन्म देता व उन्हें सुख व दुःख का भोग कराता है। ईश्वर ही वेदज्ञान का दाता और मनुष्यों को मुक्ति का सुख प्रदाता भी है। ईश्वर के मनुष्यों पर अनन्त उपकार हैं। इसलिये सभी मनुष्यों को ईश्वर का कृतज्ञ होना चाहिये और अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिये प्रातः व सायं समय में उसकी उपासना करनी चाहिये। मनुष्य के निमित्त से वायु व जल प्रदुषण आदि होता है। अतः वायु व जल आदि पदार्थों की शुद्धि के लिये मनुष्यों को अग्निहोत्र यज्ञ भी प्रतिदिन प्रातः व सायं करना चाहिये और यज्ञ में गोघृत व साकल्य की सोलह-सोलह आहुतियां देनी चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य पापमुक्त तथा प्रकृति का रक्षक बनता है। वह रोगरहित रहता है। उसकी आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति होती है। सन्ध्या एवं अग्निहोत्र यज्ञ वैदिक धर्म के श्रेष्ठ दैवीय कर्म हैं जिनको करने से जीवन की उन्नति व दोषों की मुक्ति होती है।

ईश्वर सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप तथा प्रकाशस्वरूप है। इससे हमें भी सत्य का धारण एवं पालन करने सहित अज्ञान का अन्धकार दूर करने की प्रेरणा मिलती है। ईश्वर सर्वज्ञ होने से ज्ञानस्वरूप है। अतः हमें भी अपनी आत्मा व बुद्धि की क्षमता के अनुसार ईश्वर के सान्निध्य से ध्यान व स्वाध्याय कर सद्ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य का समग्र विकास होता है। संसार में प्राप्त करने योग्य ज्ञान से उत्तम व श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। संसार में सबसे श्रेष्ठ वस्तु ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान है। अन्य सभी भौतिक पदार्थों का ज्ञान भी प्राप्त करना आवश्यक है परन्तु यदि ईश्वर व आत्मा विषयक सत्य ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर की उपासना में प्रवृत्ति न हुई तो मनुष्य का जीवन एकांगी होने से वह सफलता के उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकता जो एक साधक व उपासक को ही प्राप्त होते हैं। मनुष्य द्वारा अपने साध्य का विचार करने पर ईश्वर ही साध्य व वह उसका साधक सिद्ध होता है। वर्तमान समय में मनुष्यों ने ईश्वर के स्थान पर भौतिक धन व सम्पत्ति को अपना साध्य बना लिया है। इससे मनुष्य ईश्वर से विमुख हो गया है। ईश्वर से विमुख होने के कारण ही वह आचार व अनाचार में भेद नहीं कर पाता जिससे उसका जीवन सुखों के साथ चिन्ताओं, रोगों, दुःखों व अवसाद आदि से घिरा रहता है। वेदों व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करने से ही मनुष्य को ईश्वर व मनुष्य जीवन विषयक यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है जिससे वह अपने उद्देश्य व लक्ष्य को जानकर उस ओर बढ़ते हुए सांसारिक उन्नति व सफलतायें भी प्राप्त करता है। ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालने पर हमें उनमें ज्ञान का ऐसा भण्डार मिलता है जो उनके समकालीन, पूर्ववर्ती व पश्चातवर्ती किसी विद्वान व महापुरुष में दृष्टिगोचर नहीं होता। ऋषि दयानन्द सच्चे यशस्वी व वैदुष्य के महान धनी महापुरुष थे। उनके एक अनुयायी स्वामी रामदेव आज यौगिक जीवन व्यतीत करते हुए यशस्वी होकर भौतिक साधनों में भी देश के अग्रणीय लोगों में हैं। वेद और ऋषि दयानन्द का जीवन मनुष्य को वेद व ऋषियों के जीवन से प्रेरणा लेकर सत्याचार को अपनाकर उन्नति करने की प्रेरणा करता है। अतीत में भी ऐसे बहुत से मनुष्य हुए हैं और वर्तमान में भी इसके अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

ऋषि दयानन्द ने घोषणा की है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद जैसा उपयोगी व हितकर ज्ञान का पुस्तक संसार में दूसरा कोई नहीं है। वेद हमारे जीवन को यज्ञ व परोपकारमय बनाते हैं। देश के लिये भी हमारे जीवन को हितकार व उपयोगी बनाते हैं। वेदों की शिक्षा है कि भूमि व स्वदेश मेरी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं। वेदों की यह शिक्षा प्राचीन एवं अर्वाचीन दोनों समायों में ही प्रासंगिक एवं सार्थक सिद्ध हुई है। इस पर चलकर ही देश व समाज का कल्याण हो सकता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना व विचार भी वेदों की ही देन है। वेद संसार के सभी प्राणियों को ईश्वर की सन्तान मानता है और इसी सिद्धान्त के आधार पर अपना व्यवहार करने की प्रेरणा करता है। वैदिक जीवन अहिंसा के सिद्धान्तों से युक्त तथा हिंसा से रहित जीवन होता है। सभी प्राणियों के प्रति संवेदना रखते हुए उनको जीवन जीने का अधिकार देता है। वेद छल, कपट, प्रलोभन व बल प्रयोग कर अपना मत ग्रहण कराने में विश्वास नहीं रखते जैसा कि कुछ मत करते आ रहे हैं। वेद तो ज्ञान के प्रसार से ही सबको सत्य को ग्रहण करने की प्रेरणा करता है। इस कारण से वेद ही संसार का सर्वश्रेष्ठ मत व धर्म सिद्ध होता है। धर्म का अर्थ ही श्रेष्ठ गुणों व व्यवहार को धारण करना होता है। जिस मनुष्य के जीवन में हिंसा, मांसाहार, दूसरे मतावलम्बियों के प्रति दोष-दृष्टि व अपने दोषों के सुधार की भावना नहीं है, वह श्रेष्ठ नहीं हो सकते। वैदिक धर्म की श्रेष्ठता अपनी परम्पराओं को विवेकपूर्वक दोषों से मुक्त करने तथा सत्य के ग्रहण करने सहित असत्य के त्याग करने के कारण रही है। यही कारण था कि ऋषि दयानन्द द्वारा वेदों का प्रचार करने पर उन्हें समाज में विद्यमान अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व कुरीतियों को दूर करने में सफलता मिली। आज भी आर्यसमाज वेदों का प्रचार व प्रसार कर लोगों को सत्य को ग्रहण करने की प्रेरणा करता है। ऋषि दयानन्द वेद और ऋषियों की परम्परा को मानने वाले ऋषि हुए। वेद के सभी सिद्धान्तों तथा ऋषियों के ज्ञान को वैदिक परम्परा में प्रमुख स्थान प्राप्त है। ऋषि दयानन्द वेद व प्राचीन सभी ऋषियों के आदर्श व अपूर्व प्रतिनिधि थे। उनका जीवन वेदमय एवं ईश्वरमय था। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ था। उन्होंने वैदिक जीवन व्यतीत करते हुए जीवन के सभी कार्यों को करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने की प्रेरणा की है। आर्यसमाज ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों विद्यमान विचारों से प्रेरणा ग्रहण करता है। अतीत में समाज सुधार, पाखण्ड निवारण, देश की आजादी सहित शिक्षा के प्रचार व प्रसार में आर्यसमाज ने बहुमूल्य येागदान किया है। आज भी आर्यसमाज वेदों का प्रचार करते हुए वृहद वेदाधारित यज्ञों को करता व कराता है। देशभक्ति को मनुष्य के जीवन का श्रेष्ठ गुण मानकर उसका भी प्रचार व पोषण करता है। सभी राष्ट्रवादी शक्तियों के साथ सहयोग करता व उनका समर्थन करता है। वह देश विरोधी व समाज को तोड़ने वाली तुष्टिकरण जैसी प्रवृत्तियों का विरोधी है। सत्य एवं विद्या के मार्ग पर चलकर ही देश विश्व का प्रमुख शक्तिशाली राष्ट्र बन सकता है। इसके लिये ऋषि दयानन्द का आर्यसमाज प्रयत्नशील एवं संघर्षरत है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

Comment:Cancel reply

Exit mobile version