यज्ञ और मानसिक स्वास्थ्य
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अमर वैचारिक क्रांतिकारी ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास (chapter)में ऋषि दयानंद महाराज हवन (अग्निहोत्र )के विषय में लिखते हैं… शंकालु शंका उठाता है |
होम/ हवन से क्या उपकार होता है ?
ऋषि दयानंद कहते हैं….” सब लोग जानते हैं कि दुर्गंध युक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुख और सुगंधित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है” अतः सभी मनुष्यों को हवन करना चाहिए |
उपरोक्त वाक्यांशों का हम सरल सहज निष्कर्ष निकालते हैं, वायु सुगंधित या दुर्गंध से युक्त हो वह हमारे मस्तिष्क, मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है|
1984 के भोपाल के गैस कांड जिसमें 3787 जाने गई सरकार के दिए आंकड़ों के अनुसार वास्तविक तौर पर इसमें 16000 से अधिक जाने गई 500000 से अधिक लोग प्रभावित हुए… दुर्गंधी युक्त वायु का ही परिणाम था|
अभी हाल फिलहाल कोरोना महामारी के दौरान आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में एलजी के प्लांट में styrene नामक गैस लीक हो गई भी 11 लोगों की मौत हुई 1000 से अधिक लोग प्रभावित हुए… यह कुछ एक औद्योगिक गैस लीक कांड है जो वायु के नुकसानदायक गैसों से दूषित होने से हुए…|
और जरा हम निकटता से विचार करें तो हमारे मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गंध उत्पन्न होता है मल मूत्र पसीने के रूप में वह भी तो वातावरण में दुर्गंध उत्पन्न करता है|
सर्वाधिक दुर्गंधी हम मनुष्य तथा हमारी विविध गतिविधियों से उत्पन्न होती है… इसी दुर्गंध के कारण बहुत से प्राणियों को दुख पहुंचता है रोगों की उत्पत्ति होती है इसी पाप के निवारण अर्थ वेदों में मनुष्यों को ईश्वर ने आज्ञा दी है अग्निहोत्र हवन के करने का दैनिक विधान किया है… तभी हम पाप से बच सकते हैं |
बहुत से लोग कहेंगे अन्य जीव जंतु भी दुर्गंध फैलाते हैं क्या उनको पाप नहीं लगता? अरे भाई वह भोग योनि है कर्म योनि नहीं है वहां कर्म की स्वतंत्रता उनके सुखों में वृद्धि नहीं कर सकती उनकी दुर्गंधी के निवारण का भी हमारा ही दायित्व बनता है… हमारे बहुत से कार्य जीव जंतुओं से सिद्ध होते हैं |
हमारा मानसिक शारीरिक स्वास्थ्य वातावरण के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है वायु जितनी अधिक सुगंधित होगी हमारा मन उतना ही अधिक प्रसन्न होगा |
अब हमें यह समझना होगा सुगंधित वायु से जो केवल अग्निहोत्र से ही सहज सरल की जा सकती है हमें मानसिक स्वास्थ्य आरोग्य प्रसन्नता कैसे प्राप्त होती है?
हमें अपने शरीर की घ्राण इंद्री प्रणाली( olfactory system )को समझना होगा जो हमारी नाक में स्थित है मस्तिष्क से मिलकर कार्य करती है… सुगंधी या दुर्गंधी के स्रोत बाग उपवन कीचड़ शौचालय कारखाना , यज्ञशाला से सुगंध या दुर्गंध धारण करने वाले मॉलिक्यूल उड़कर हमारी नासिका की
ऑलफैक्ट्री सेल से टकराते हैं… हमारी नासिका की विशेष नर्व सेल को उद्दीप्त करते हैं… नासिका में ऐसी 10,000 से अधिक सेल हैं जो अलग-अलग गंध को ग्रहण करती हैं इलेक्ट्रॉनिक सिग्नल में उन्हें कन्वर्ट कर मस्तिष्क को भेज देती है… अब मस्तिष्क का विशेष हिस्सा उसको एनालाइज करता है यदि गंध नुकसानदायक है तो तीव्र प्रतिक्रिया देता है शारीरिक तौर पर… यदि लाभदायक है तो शरीर में अच्छे hormone का स्त्राव होने लगता है|
जो हमारे अवसाद तनाव को दूर करते हैं| हमारी जिव्हा केवल पांच प्रकार के स्वाद को ही परख सकती है लेकिन हमारी नासिका 1 अरब से अधिक विभिन्न गंध में अंतर स्थापित कर सकती है… जो हित कारक है नासिका उसे सूंघ कर ही बता देती है हमें चखने की जरूरत भी नहीं पड़ती… कभी-कभी आंखें भी यथार्थ निर्णय नहीं कर पाती बहुत से रसायन फल फूल सब्जियां जो जहरीली या जहर मुक्त हैं वह एकदम समदर्शी होती हैं.. ऐसे में उनकी गंध से ही नासिका से निष्कर्ष हो पाता है यह खाने योग्य है या नहीं… हमारा सूंघने का तंत्र जितना स्वस्थ सजग होगा हम उतने ही मानसिक शारीरिक तौर पर स्वस्थ होते हैं |
बहुत से मानसिक रोगों अल्जाइमर डिमेंशिया पार्किंसन सिजोफ्रेनिया में सूंघने समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है|
अब यहीं से यज्ञ चिकित्सा का महत्व शुरू है… हम पहले ही कह चुके हैं दुर्गंध युक्त वातावरण में शरीर मैं बुरे हार्मोन बनने लगते हैं जो तनाव अवसाद को बढ़ावा देते हैं सुगंध या दुर्गंध मस्तिष्क प्रणाली को सकारात्मक , नकारात्मक तौर से प्रभावित करती है..| ऐसा स्थल जहां दिन प्रतिदिन सुबह-शाम नियम से अग्निहोत्र हवन होता है वह दिव्य स्थल इसी कारण कहलाता है कि वहां के वातावरण में सुगंध से युक्त मॉलिक्यूल की अधिक प्रचुर उपस्थिति होती है… हम जैसे ही ऐसे सिद्ध स्थलों में प्रवेश करते हैं हमारा तनाव छूमंतर हो जाता है… प्राचीन ऋषि के आश्रम ऐसे ही अलौकिक आभा से युक्त होते थे… मांसाहारी शाकाहारी जंतु भी एक साथ दिखाई देते थे… बगैर किसी को नुकसान पहुंचाए… यह यज्ञ के प्रताप से ही संभव था… बड़े-बड़े राजा महाराजा जब राज कार्यों राजनीति से थक जाते थे तो ऊर्जावान होने के लिए ऐसे ही आश्रमों में जाते थे |
हमारी नाक हमारे मस्तिष्क से जुड़ी हुई है, नाक में गंध ग्रहण करने वाली cell, उनका प्रोटीन जब छतिग्रस्त होता है तो निकट वर्षों में ही हम किसी गंभीर मानसिक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं ऐसा चिकित्सीय जगत में अनेक शोधों में सिद्ध हो चुका है… वर्ष 2004 का बायोलॉजी का नोबेल अमेरिकी वैज्ञानिक linda B buck , Richard axle को इसी पर शोध के लिए मिला था|
आज हर दसवां व्यक्ति सूंघने के विकार से ग्रस्त है,यह बीमार मानसिक स्थिति का ही परिचायक है | यज्ञ में जब सुगंधी कारक जड़ी बूटियां डाली जाती है तो नासिका तंत्र को स्वस्थ सजग रखती हैं जिससे मस्तिष्क में चेतना रहती है मस्तिष्क भी क्रियाशील बुढ़ापे तक बना रहता है… क्योंकि विभिन्न गंध को ग्रहण करना फिर उनका विश्लेषण करना मस्तिष्क का सर्वाधिक उपयोगी व्यायाम है…. जिससे भुलक्कड़ पन मस्तिष्क के रोग नहीं आते|
मोटा सा निष्कर्ष यह है जब जहरीली गैसों गंधित रसायनों से मस्तिष्क को क्षति होकर जान जा सकती है तो सुगंधित जड़ी बूटियों से युक्त हवन उससे सुगंधित वायु का सकारात्मक प्रभाव भी मस्तिष्क पर पड़ता है |
मानसिक रोगों में यज्ञ रामबाण थेरेपी |
यज्ञ की सारगर्भित महिमा देव ऋषि दयानंद ने सैद्धांतिक तौर पर 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ही समझा दी थी …अब लोग धीरे-धीरे यज्ञ की महिमा समझ रहे हैं ,दुनिया समझे ना समझे हम ऋषि यों की संतान समझ ले इतना ही काफी है |
आर्य सागर खारी ✍